10.6.21

नुसरत जहां निखिल प्रकरण एवम भारतीय न्याय व्यवस्था में अधिकारों का संरक्षण ।

8 जनवरी 1990  बांग्ला फिल्म अभिनेत्री ने अपने पति निखिल जैन को बिना तलाक दिए बाहर का रास्ता दिखा दिया और अब ये दोनों विवाह के बंधन में नहीं है। मीडिया को दिए गए पत्र में नुसरत जहां ने कहा है कि उनकी डेस्टिनेशन वेडिंग टेक्निकली एक वेडिंग नहीं कही जा सकती।
 टीएमसी सांसद नुसरत ने साफ कर दिया है कि क्योंकि उनकी शादी निखिल से विशेष विवाह अधिनियम के अंतर्गत पंजीकृत होनी थी किंतु ऐसा ना हो सका इस कारण अब ना तो तलाक की कोई गुंजाइश है और ना ही कोई कानूनी बाध्यता है। 31 वर्षीय अभिनेत्री एवं सांसद के टर्की में हुए कथित विवाह के समाचार पर और अब नई खबरों से ब्लॉग लेखक का निजी कोई आकर्षण नहीं है परंतु कुछ दिनों पहले मलाला यूसुफजई ने जो बयान दिया उसे लेकर खासा विवाद पाकिस्तान मीडिया में आया है। बताओ और सामाजिक विचारक मैं महसूस करता हूं कि इस तरह के बेमेल विवाह अक्सर सफल नहीं होते हैं। अति महत्वाकांक्षा जो दोनों ओर से भरपूर थी पारिवारिक विवाह संस्था को क्षतिग्रस्त करती है यह स्वभाविक है। मलाला यही कहती है आप सहमत हो या ना हो मलाला के कथन से मुझे इत्तेफाक है। सामान्य तौर पर विवाह संस्था और निकाह जिसे मैं व्यक्तिगत तौर पर कॉन्ट्रैक्ट रिलेशनशिप के तौर पर देखता हूं में बड़ा फर्क है । 
     विवाह स्प्रिचुअल रिलेशनशिप की श्रेणी में आता है जबकि निकाह को एक इंस्ट्रुमेंटल रिलेशनशिप के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।
      क्योंकि यह वही स्थिति थी जिस के संबंध में मलाला ने अपने विचार व्यक्त किए। मलाला कहती है कि आपसी संबंध खास तौर पर दांपत्य संबंध का आधार निकाहनामा नहीं होना चाहिए। देखा जाए तो कुछ हद तक यह ठीक भी है म्युचुअल अंडरस्टैंडिंग इसमें बहुत मायने रखती है। क्योंकि यह भारतीय कानून के मुताबिक विशेष विवाह अधिनियम के अंतर्गत अंतर धर्म विवाह के रूप में चिन्हित नहीं हो पाया अतः सांसद का कथन भी अपनी जगह बिल्कुल सही है कारण जो भी हो ना तो यह निकाह  ना ही यह विवाह था इसे केवल लिव इन रिलेशनशिप के रूप में चिन्हित किया जा सकता है। जहां तक पाकिस्तान में हुए बवाल का संबंध है वह भी स्वभाविक तौर पर उठना अवश्यंभावी था। क्योंकि लिव इन रिलेशनशिप को पाकिस्तान में ऐसा कोई वैधानिक दर्जा प्राप्त नहीं है जो महिला के अधिकार को संरक्षित कर सके। लेकिन भारत में लिव इन रिलेशनशिप को  ज्यूडिशियल सपोर्ट मिला हुआ है और महिलाओं के अधिकार सुरक्षित हैं। इस ब्लॉग पोस्ट के जरिए आपको यह बताना चाहता हूं कि वास्तव में भारत की न्याय व्यवस्था बहुत  ही हंबल और कल्याणकारी है। इस दिशा में  विभिन्न प्रकरणों में पारित आदेशों का अर्थ यह नहीं है कि हमारे माननीय न्यायाधीशों ने लिव इन रिलेशनशिप को बढ़ावा देने की कोशिश की बल्कि यह है कि भारतीय न्याय व्यवस्था चाहती है कि किसी भी भारतीय नागरिक के अधिकारों का संरक्षण होता रहे। 
   नुसरत जहां ने जिस तरह से आरोप अपने लिव-इन पार्टनर निखिल जैन पर लगाए हैं अगर वे कोई सिविल वाद एवं क्रिमिनल पिटीशन या कंप्लेंट करती हैं और परीक्षण में यह सब मुद्दे सही पाए जाते हैं तो एक आम अपराधी की तरह श्री निखिल जैन पर कार्यवाही संभव है। अच्छा होता कि आपसी समझदारी से इस विवाह संस्था को जारी रखा जाता ।
मूल रूप से कलाकार एवं जन नेता श्रीमती नुसरत जहां की फिल्म बंगाल में बेहद पसंद की जाती थी उनमें कुछ फिल्मों के नाम है शोत्रू (2011), खोखा 420 (2013), खिलाड़ी (2013)
      सुधि पाठक जाने यह लेख किसी के सेलिब्रिटी होने के कारण नहीं लिखा गया बल्कि एक सामान्य दृष्टिकोण से लिखा गया है ।

8.6.21

उसे रुको वह सच बोल रहा है.....! पुख्ता मकानों की छतें खोल रहा है

"रोको उसे वह सच बोल रहा है, पुख़्ता मकानों की छतें खोल रहा है"
     जबलपुर के एक मशहूर सिंगर जिन्हें आप जानते हैं जी हां चाचा लुकमान के शागिर्द शेषाद्री अय्यर ने जब अपने प्रोग्राम में यह शेर पढ़ा कि  "रोको उसे वह सच बोल रहा है, पुख़्ता मकानों की छतें खोल रहा है" बेशक यह शेर बहुत मजबूत है मेरे जेहन की दीवार पर पुश्तैनी खूंटी की तरह लगा हुआ है। सोच रहा था कि पर कभी कोई आर्टिकल लिख कर टांग दूंगा 10 साल पहले से ही याद रखा है शेर को और आज टांग रहा हूं एक टिप्पणी हामिद मीर के साथ हुए हादसे के बहाने बोलने की आजादी पर लिखे गए इस आर्टिकल को..
यह तस्वीर जो आप देख रहे हैं इन दिनों अखबारों में जो वीडियो आप देख रहे हैं पाकिस्तान से आने वाले वीडियो पाकिस्तान के सहाफी जिओटीवी के मशहूर पत्रकार हमिद मीर साहब के है। हामिद मीर एक बेहतरीन तरक्की पसंद और स्पष्ट वादी पत्रकार हैं। उनके आर्टिकल्स इंडियन विदेशों में भी शाया हुआ करते हैं । 
  भारतीय जर्नलिज्म के समानांतर अगर हम अपने हमसाया मुल्क के पत्रकारों के बारे में सोचें तो उन्हें कहने का बात करने का स्वतंत्र अभिव्यक्ति का कोई हक वाज़े तौर पर हासिल नहीं है । यहां अभिव्यक्ति की आजादी पर सवाल उठाने वाले बहुत दूर ना जाए चीन और पाकिस्तान के उदाहरणों से समझने की कोशिश करें कि किस तरह से हर लफ्ज़ पाबंद है।
हर लफ्ज़ पर पाबंदी लगाना इन दोनों मुल्कों की आदत में शुमार है। एक मीडिया इंटरव्यू में  पाकिस्तान के अब्दुल समद याकूब जो रूलिंग पार्टी यानी पीटीआई के ऑफिशियल प्रवक्ता हैं खुलकर कहते हैं कि-" हामिद मीर के साथ जो हुआ वह किसी भी मायने में दुरुस्त नहीं है। हालांकि यह उनकी निजी राय है परंतु वह यह बताते हैं कि प्राइम मिनिस्टर इमरान खान नियाजी जी उनके बेहतरीन दोस्त हैं.. 
    एक अन्य पत्रकार जनाब कस्वर क्लासरा कहते हैं कि हामिद मीर साहब के साथ जो हुआ गलत हुआ लेकिन उन्होंने पाकिस्तानी आर्मी और आईएसआई पर जो इल्ज़ामात लगाए हैं उनके सबूत देना चाहिए था मीर साहब को। इस पर अपना ओपिनियन देते हुए तारेक फतह लगभग हंसते हुए कहते हैं कि एक पाकिस्तानी पत्रकार किस तरह से अपने बचाव में क्या कुछ सबूत ला सकता है ? 
   उधर टैग टीवी के ताहिर गोरा अपने थर्ड ओपिनियन प्रोग्राम में बैरिस्टर हमीद बसानी से इस पर टिप्पणी लेते हैं तो बसानी साहब सीधे तौर पर पाकिस्तानी गवर्नमेंट को फौज को आईएसआई को फासीवाद के खाने में रख देते हैं।
पीटीआई के प्रवक्ता आई याकूब ने जो कहा उससे स्पष्ट हो जाता है कि-" भले ही पाकिस्तान की डेमोक्रेटिक सरकार या उसके प्रधानमंत्री भी कुछ कहना चाहते हैं परंतु नहीं कह सकते"  इसका  मतलब है कि आईएसआई और फौज का दबदबा बोलने की आजादी लिखने की आजादी पर भारी पड़ रहा है यहां तक कि पाकिस्तान के आईन भी।
  खुदा का शुक्र है कि हिंदुस्तान में वह तमाम बातें नहीं है जो हमसाए मुल्क में हैं। हमसाया मुल्क वहां के लोग किन-किन बंदिशों में इसका अंदाजा आप इस तरह लगा सकते हैं। इसी मौजूद पर एक शेर कहने को जी चाहता है
कहने को तो शहंशाह है, अपने वतन का वो...
उसकी ज़ुबाँ पे लटके डालो को  देखिए..!
गिरीश बिल्लोरे मुकुल

6.6.21

सिनेमा के स्वर्णिम युग में मूँगफली का अवदान : के के नायकर

सिनेमा के कलाकार तब देवतुल्य होते थे। उनका आभामंडल बहुत विशाल होता। प्रेमनाथ जबलपुर आते तो अक्सर चाहने वालों से घिरे होते। एक बार मानस भवन में उनसे भेंट हुई। गोपीकृष्ण के नृत्य का कार्यक्रम था। पद्मा खन्ना भी आई हुई थीं। कार्यक्रम के बाद औपचारिक भेंट हुई। मैंने उनसे पूछा, "आपकी अगली फिल्म कौन-सी आ रही है?" उन्होंने इनकार में सिर हिलाया और अपनी भारी- भरकम आवाज में कहा, " बाबू! उम्र हो गयी है। अब हीरो की मार खाने वाले सीन में उठने में बहुत देर लग जाती है। बहुत से शॉट खराब हो जाते हैं।" यह उनसे मेरी पहली और आखिरी मुलाकात थी। यों 'एम्पायर' में वे कभी-कभार दिख जाते थे। वहाँ क्षेत्रीय भाषाओं की फिल्में भी लगती थीं और तमिल फिल्में देखने अक्सर अम्मा जाया करती थीं।

अम्मा अड़ोस-पड़ोस की किसी महिला के साथ सिनेमा जाने की योजना बनातीं, तो अपन किसी कुशल जासूस की तरह समूची योजना के तह में पहुँच जाते। उन्हें योजना के 'लीक' हो जाने की भनक भी नहीं लग पाती। अपन बिल्कुल ठीक समय पर जाकर चुंगी चौकी में कहीं छिपकर खड़े हो जाते। जैसे ही अम्मा का रिक्शा गुजरता रिक्शे के पीछे-पीछे दौड़ लगाने लगते और सिनेमा हॉल पहुँचकर ऐन टिकिट लेने से पहले प्रकट हो जाते। अम्मा अचंभित हो जातीं। गुस्सा भी करतीं। कोई विकल्प लेकिन बाकी नहीं रह जाता था। इतनी दूर अकेले बच्चे को वापस भी नहीं भेजा जा सकता था। मजबूरी में उन्हें अपनी टिकिट भी खरीदनी पड़ती और सिनेमा देखने का सुख हासिल हो जाता। सिनेमा देखना उन दिनों सबसे बड़ा सुख हुआ करता था।

सिनेमा हॉल में काम करने वाले मैनेजर, ऑपरेटर, बुकिंग क्लर्क, गेट कीपर और यहाँ तक कि सायकिल स्टैंड और कैंटीन में काम करने वाले कर्मचारियों की भी तब समाज में बड़ी इज्जत होती थी। कोई बुकिंग क्लर्क या गेट कीपर किसी के घर आ जाएं तो शाम को पूरे मोहल्ले में यह खबर 'वायरल' हो जाती थी और मेजबान दो-चार दिनों तक सीना तानकर घूमता था। लोग इनसे जबरदस्ती ताल्लुक बनाने के फेर में होते। चलते-पुर्जे किस्म के इंसान मौका मिलने पर जबरदस्ती टिकिट  खिड़की  के पास पहुँच जाते और अपना चेहरा दिखाकर पूछते कि, " बड़े भाई! आपके लिए चाय भिजवा दें?" जवाब इनकार में मिलता तो भी वे हिम्मत नहीं हारते। कहते, "अच्छा तो पान ही खा लें..अब देखिए मना नहीं करना।"  वे उनकी खिदमत में चाय, पान, गुटखा, सिगरेट कुछ न कुछ पेश करके ही दम लेते। दो-चार बार यह सिलसिला दोहराने पर मेल-मुलाकात का कोई न कोई सिलसिला बन ही जाता था। सारी कवायद का एकमात्र उद्देश्य यह होता था कि जब कोई हिट सिनेमा लगे और उसकी टिकिट हासिल करने में पसीने छूट जाएँ तो उनकी थोड़ी-बहुत मदद ली जा सके। तब एमपी-एमएलए की टिकिट हासिल करने में भी वैसी मारामारी नहीं होती थी, जैसी सिनेमा की टिकिट हासिल करने में। 

थर्ड क्लास की टिकिट सात-आठ आने में मिल जाया करती थी। इतने पैसों का जुगाड़ भी तब मुश्किल से होता था। सिनेमा जाना हो तो पैदल ही जाना पड़ता था। साइकिल लेने पर दोहरा खर्च था। एक तो साइकिल का किराया फिर साइकिल स्टैंड का। और कहीं सीट कवर वगैरह चोरी हो गया तो एक और मुसीबत अलग से। जिनकी साइकिल स्टैंड वालों से थोड़ी-बहुत जान पहचान होती, वे बड़े इसरार के साथ कहते कि "बड्डे, जरा सही जगह में लगवा दो।" सही जगह में लगवाने का मतलब यह होता कि एक तो कोई सामान चोरी न हो और दूसरे शो खत्म होने के बाद उसे निकालने में जरा आसानी रहे। सिनेमा छूटने के बाद स्टैंड से साइकिल निकालना तब बहुत बहादुरी का काम हुआ करता था।

सिनेमा देखने की कार्रवाई शो से डेढ़-दो घण्टे पहले ही शुरू हो जाती थी। थिएटर पहुँचने के बाद सबसे पहले पोस्टर देखने का चलन था। कभी-कभी पोस्टर देखना सिनेमा देखने से भी भला लगता था। जब सिनेमा में ठीक वही पोस्टर वाला दृश्य आता तो असीम आनन्द की अनुभूति होती। कोई सखा साथ होता तो दोनों बेसाख्ता कह उठते, "अबे! वोई वाला सीन है बे!" एक पोस्टर अलग बक्से में "आगामी आकर्षण" वाला होता था। बक्से के आगे काँच और उसके आगे अमूमन एक लोहे की जाली लगी होती थी। पोस्टर देखते-देखते नज़र मार ली जाती की कहीं टिकिट वाली लाइन लंबी तो नहीं हुई जा रही है। दो या अधिक लोग साथ होने पर एक व्यक्ति लाइन पर मुस्तैद खड़ा होता और बाकी पोस्टर देखते। लाइन पर लगे जवान को बाद में छोड़ा जाता। कभी-कभी जब उसकी पोस्टर देखने की बारी नहीं आ पाती तो वह आसमान सिर पर उठा लेता और कहता, "याद रखना! अगली दफे तुम लोग लाइन में लगोगे।"

 सिनेमा हॉल के मालिक के पास कुछ छँटे हुए दादा किस्म के लोग पाए जाते थे। इनके पास टिकिट की लाइन ठीक रखने की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी होती थी। वे इस काम को इतनी गम्भीरता से अंजाम देते थे गोया विश्व स्वास्थ्य संगठन ने उन्हें कोरोना की वैक्सीन बाँटने की जिम्मेदारी सौंप रखी हो। वे इतने गम्भीर होते थे कि उनके चेहरे तनाव से खिंचे होते थे, देह ऐंठी हुई होती थी और जरा-सी बात पर भी वे बिफर उठते थे। लेकिन जैसे उद्योग-धंधों में सेफ्टी- ऑर्गेनाइजेशन सिर्फ प्रवचन दे सकता है, कोई कार्रवाई नहीं कर सकता, वैसे ही इनके हाथ भी बंधे हुए होते। कोई नई और हिट फिल्म लगती तो पुलिस वालों को तलब किया जाता था। फ़िल्म "मुझे जीने दो" की याद मुझे बहुत अच्छे से है। अभी लाइन में लगे ही थे कि बारिश शुरू हो गई। उन दिनों आंधी-तूफान आने, बिजली गिर जाने या भूकम्प के झटके आने पर भी सिनेमा की लाइन से हट जाने का रिवाज नहीं था। अपन डटे हुए थे। एक रंगदार बार-बार आता और लाइन में लगे टिकिटार्थियों को चमका जाता। लोगों ने सोचा कि वह सिनेमा वालों का आदमी होगा। थोड़ी देर बाद वह नज़र बचाकर लाइन में घुस गया। पीछे किसी ने ताड़ लिया। उसने इतनी जोर से हल्ला मचाया गोया नई-नवेली दुल्हन के जेवरात लुटे जा रहे हों। बाकी लोग भी समर्थन में आ गए। पुलिस मौका-ए-वारदात पर मौजूद थी। बारिश बढ़ गयी थी। पुलिस वालों ने "निकल स्साले!" कहते हुए छाते से ही उसकी पिटाई कर दी। किसी ने पीछे से त्वरित टिप्पणी की, "और घुस ले बेट्टा!" वह खिसियाया हुआ बाहर निकला और फिर हँसने लगा। तब इस तरह की पिटाई का कोई बुरा नहीं मानता था। कब, कौन, किस बात पर पिट जाए; इसकी कोई गारंटी नहीं होती थी। कहते है कि एक बार तो एक महापौर ही सिनेमा की लाइन में पिट गए थे। पुराने साथी इस वाकये के बारे में जानते होंगे। वे पहलवान के नाम से मशहूर थे। एक तो नेताजी ऊपर से पहलवान। शहर में उनकी धाक थी। शहर के लोग उन्हें जानते थे और उनका रुआब सिनेमा की लाइन में भी चल जाता था। लेकिन सिनेमा सिर्फ शहर के लोग नहीं देखते! गाँव से कुछ नवयुवक आए हुए थे। नेताजी ने अपना रुआब दिखाया तो युवकों ने उन्हें ही तबीयत से कूट दिया। वे बेचारे क्या जानते थे कि कुटने वाला शख्स कौन है?

लाइन में सबसे पीछे खड़ा होने वाला शख्स, दुनिया का सबसे बदनसीब इंसान होता। एक-एक पल उसके लिए बहुत भारी होता था।  उसे लगता था कि वह एक जगह जम गया है, उसके पैरों तले जड़ें उग आई हैं और सामने वाले लोग हैं कि सरक ही नहीं रहे हैं। उजड्ड बारातियों वाली भीड़ में लड़की के बाप की तरह दयनीय होकर वह अपना मुँह लटकाए रखता। इस बीच कोई भला आदमी आता और उसे ढाढ़स बँधा जाता कि इंसान की तरह लाइन भी नश्वर है और उसे कभी न कभी खत्म होना ही है। कोई इंसान कुछ ज्यादा ही भला हुआ तो अपने ठोंगे से उसे एक-दो मूंगफलियां ऑफर कर देता। लाइन में लगा दुखियारा उससे पूछ बैठता, "भैया! आपकी टिकिट हो गयी है?" वह अपनी आँखों से 'हाँ' का इशारा करता और इस तरह गर्व के साथ सीना तानकर आगे बढ़ जाता जैसे कॉमन वेल्थ गेम्स में गोल्ड लेकर आ रहे हों। कभी-कभी जब लाइन अचानक बहुत तेजी से सरकने लगती तो दुखियारे इंसान की आँखों मे चमक आ जाती। उसे लगता कि दुनिया में देर है, पर अंधेर नहीं है। आँखों की यह चमक और चेहरे की मुस्कान बहुत थोड़ी देर रह पाती जब उसे पता चलता कि लाइन इसलिए जल्द सरक रही थी क्योंकि खिड़की बन्द हो गई। थोड़ा शोर होता। 'ब्लैक मार्केटिंग" के लिए सिनेमा वालों को गाली दी जाती। कुछ खिसियाए मुँह घर लौट जाते और कुछ 'ब्लैक' में टिकिट लेकर अंदर चले जाते। दुखियारा इंसान बुदबुदाता नज़र आता, "घोर कलजुग है भाई!"

टिकिट हासिल कर लेने के बाद हॉल के अंदर प्रवेश करने में बड़ी हड़बड़ी होती थी। अंधेरी जगह होने के कारण कुछ सूझता नहीं था। दर्शक नया हुआ तो थर्ड क्लास की टिकिट लेकर फर्स्ट क्लास के गेट में पहुँच जाता और गेट कीपर की डाँट खाता। हड़बड़ी एक तो इसलिए होती कि सीट ठीक-ठाक मिल जाए और दूसरे न्यूज रील भी छूटनी नहीं चाहिए। विज्ञापन भी नहीं। हालाँकि विज्ञापन तब कम ही होते थे। स्थानीय विज्ञापनों के लिए स्लाइड का इस्तेमाल किया जाता था, जो दो तरीकों से बनती थी। एक, फोटोग्राफी वाली तकनीक में नेगेटिव के इस्तेमाल से और दूसरी, खालिस देसी पद्धति से काँच के सहारे। काँच की एक प्लेट में चूना पोत दिया जाता और पेंटिंग के ब्रश की उल्टी तरफ से चूने को खुरचकर अक्षर लिखे जाते थे। रंगों के प्रभाव के लिए रंगीन पन्नियों का इस्तेमाल किया जाता था। ये स्लाइड अक्सर इंटरवेल के बाद फ़िल्म शुरू होने से पहले चलाए जाते थे। दर्शकगण इन्हें भी देखने से नहीं चूकना चाहते थे। तब चीजें दुर्लभ थीं, तो जिज्ञासाएं बहुत हुआ करती थीं। अब जिज्ञासाएं शांत करने की प्रवृत्ति पर तकनीक हावी है तो बच्चे खोज-बीन के स्वाभाविक लुत्फ से वंचित हो गए लगते हैं।अंदर हॉल में लगे पँखे हेलीकॉप्टर की गड़गड़ाहट के साथ चलते थे। इस बात का पता इंटरवेल में चलता था। जैसे ही इंटरवेल होता, फेरीवाले खटाक से अंदर चले आते। उन्हें कोई रोक-टोक नहीं होती थी। समाज में अवसरों का सम्मानजनक बँटवारा था। अब इंटरवेल में चने बेचने का काम भी सिनेमा का मालिक ही करता है। हॉल के दरवाजे पर 'स्वागतम' की जगह वह निहायत ही बेशर्मी के साथ एक फूहड़ तख्ती लटकाए रखता है, जिसमें लिखा होता है, "आउटसाइड फुड इस नॉट अलाउड।" 

एसी वगैरह के चोचले तब नहीं थे। सिनेमा खत्म होता तो हॉल से निकलने वाले दर्शक भीड़ में भी अलग से पहचाने जा सकते थे। कपड़ों का बुरा हाल होता। गर्मियों के दिनों में लोग हाथों में रुमाल घुमाते हुए बाहर निकलते। फिर भी फ़िल्म अच्छी हुई तो चेहरे से नूर टपकता था। फ़िल्म अगर रोने-धोने वाली रही हो तो महिलाओं के चेहरे देखते ही बनते। रुमाल उनके भी हाथों में होते पर उसका प्रयोजन भिन्न होता। थर्ड क्लास में अक्सर कुर्सियों के बदले लम्बी बेंच होती थी तो कुछ लोग सोने के पाक इरादे से ही थिएटर चले आते थे। यह सुविधा फ़िल्म के उतरने से कुछ पहले हासिल होती थी। कटनी के एक सिनेमा हॉल में अपन कोई फ़िल्म देख रहे थे। सेकंड शो। फ़िल्म खत्म हो गई पर सामने की बेंच में एक सज्जन बदस्तूर सोए पड़े थे। मैंने झिंझोड़कर उठाना चाहा, पर कोई प्रतिक्रिया हासिल नहीं हुई। बगल में बैठे एक सज्जन ने उन्हें जोरों की लात लगाई। वे हड़बड़ाकर उठे और बड़ी मासूमियत से पूछा, "अच्छा! फ़िल्म खत्म हो गयी क्या?"

सेंट्रल टॉकीज मिलौनीगंज में थी। सेंट्रल' और 'लक्ष्मी' टॉकीज को उन दिनों खटमल टॉकीज भी कहा जाता था। घरों में भी खटमलों की आपूर्ति यहीं से होती थी। घर मे कोई खटमल दिख जाए तो सिनेमा देखकर आने वाले को दोषी माना जाता। खटिया तब रस्सी वाली होती थी और वे उसमें आसानी से छुप जाते थे। कार्यक्रम के सिलसिले में जब कभी इंदौर जाना होता, अपना बड़ा बुरा हाल होता। वहाँ अपने मित्र हीरालाल जी के यहाँ ठहरना होता। वे श्वेताम्बर जैन हैं। उनके यहाँ जीव हत्या वर्जित है। खटमल उनके यहाँ टैंक की तरह धावा बोलते थे। एकाध बार जवाबी हमला करने की कोशिश की तो हीरालाल कहते, "जीव हैं। उनका राशन कार्ड नहीं बनता। रहने दो।"  इंदौर वाला इंतकाम मैं जबलपुर में लेता। 'खटमल टॉकीज' से लौटने के बाद अगले दिन खटिया बाहर निकाल दी जाती। उसे डंडों से पीटा जाता और गर्म पानी डाला जाता। उन दिनों एक गाना भी चलता था, "धीरे से जाना खटियन में, रे खटमल..।"

बहरहाल, 'सेंट्रल' में  एक बड़ा मजेदार वाकया हुआ। फ़िल्म में घोड़ों वाला एक दृश्य था। घोड़े साधारण नहीं थे। उनके पास पँख थे। वे उड़ने वाले सफेद घोड़े थे। जब वे उड़ने लगे तो दृश्य बड़ा मनोरम था। सफेद-सफेद रुई जैसे बादलों में सफेद घोड़े कभी गुम हो जाते, कभी नज़र आने लगते। ऐसा लग रहा था कि उनकी उड़ान से पर्दा भी हिल रहा है। अद्भुत समाँ बंध गया था। पर्दा सचमुच हिल रहा था। लेकिन वह तब भी हिलता रहा जब घोड़ों वाला दृश्य खत्म हो गया। यह करामात असली घोड़े की थी। टॉकीज के मालिक अपने घोड़े को पर्दे के पीछे बाँधकर रखते थे। उस दिन घोड़े का पैर फँस गया था और वह अपने पैर निकालने के लिए पर्दे को झटकार रहा था। दर्शकों ने सोचा, यह फ़िल्म का 'स्पेशल इफ़ेक्ट' है।

'मुग़ले-आजम' वाले एक दृश्य ने तो और भी गज़ब ढा दिया था। बादशाह 'अनारकली' से उसकी आखिरी ख्वाहिश पूछते हैं। 'अनारकली' एक दिन के लिए हिंदुस्तान की मलिका बनना चाहती है। बादशाह हिकारत से कहते हैं, "आखिर दिल की बात जुबान पर आ ही गई।" अनारकली कहती है, "वायदा शहजादे ने किया था। मैं नहीं चाहती कि हिंदुस्तान का होने वाला बादशाह झूठा कहलाए।" फिर वह मशहूर डायलॉग होता है, "अनारकली! सलीम तुम्हें मरने नहीं देगा और हम तुम्हें जीने नहीं देंगे।" तो तय यह होता है कि अनारकली सलीम को रुखसत से पहले बेहोशी का लखलखा सुंघाएगी। गाना शुरू हो गया है-

 "जब  रात  है  ऐसी  मतवाली
तो सुब्ह का आलम क्या होगा।"

इधर हुआ यह कि अपन इंटरवल में एक किलो अँगूर खरीद लाए थे। बड़े-बड़े और रसीले। फ़िल्म का आनन्द लेते हुए इत्मीनान से एक-एक अँगूर आहिस्ता-आहिस्ता खाया जा रहा था। हॉल बाहर के मौसम की तुलना में जरा सुकूनदेह था। साथ में घना अंधकार। पृथ्वीराज कपूर, दिलीप कुमार और मधुबाला की लाजवाब अदाकारी। नौशाद साहब का मादक संगीत। माहौल का असर...!! उधर अनारकली ने सलीम को बेहोशी की दवा सुंघा दी है। होश खोने से पहले सलीम को नशा-सा आ रहा है। सीन इतना जबरदस्त है कि मुझे लगा कि मुझे भी नशा आ रहा है। सलीम के साथ -साथ मैं भी झूमने लगा हूँ। यह अद्भुत है! अपने तार शहजादे सलीम के साथ जुड़ गए हैं। क्या यह टेलीपैथी है? जब तक अनारकली को दीवार पर चुनवाया जाता, अपन को समझ में आ गया था कि सारी गड़बड़ किलो भर अँगूर भकोसने की वजह से हुई है। अँगूर ने अपना कमाल दिखा दिया था और उसी दिन अपन को समझ में आया कि शराब को "अँगूर की बेटी" क्यों कहा जाता है। फ़िल्म खत्म हो चुकी थी पर अपन से कुर्सी से उठा नहीं जा रहा था।

अंग्रेजी फिल्मों का जलवा भी कुछ कम न था। अंग्रेजी फिल्मों की एक खासियत यह होती थी कि उनके नाम हिंदी में होते थे। हिंदी में उनके नाम तय करने के लिए सिनेमा हॉल वालों के पास एक रिसर्च टीम हुआ करती थी जो बड़ी मेहनत के साथ इंग्लिश फ़िल्म के लिए हिंदी नाम ढूँढ कर लाती थी। अक्सर इस नाम का मूल नाम से कोई लेना -देना नहीं होता था पर वह हमेशा बड़ा फड़कता हुआ-सा होता था। अंग्रेजी फ़िल्म की दूसरी खासियत यह होती थी कि इसके हीरो-हीरोइन के नाम भी हिंदी में होते थे। सिनेमा देखकर लौटे नौजवान से जब पूछा जाता कि हीरोइन का नाम क्या था, तो जवाब इस तरह मिलता: "पहले भी तो आई है, बड्डे! अपन ने होली में देखी थी न! उसमें जो हीरोइन थी, वही है।" अंग्रेजी फ़िल्म की तीसरी खासियत यह होती थी कि इसकी समीक्षा या प्रशंसा भी हिंदी में की जाती थी। फ़िल्म देखने के बाद किसी के भी मुँह से "इट वाज अ नाइस मूवी ऑफकोर्स" नहीं फूटता था। हर कोई यही कहता, "गज़ब की फ़िल्म थी गुरु! एकदम धाँसू!" अंग्रेजी फ़िल्म देखकर आने वाले कभी भी उसे खराब नहीं कहते थे। यह ज्यादातर 'डिलाइट' में लगती थी या 'एम्पायर' में। 'डिलाइट' वाली फिल्में चालू किस्म की होती थीं और 'एम्पायर' वाली क्लासिक। मैंने अपने कार्यक्रम "इंग्लिश पिक्चर का ट्रेलर" इन्हीं दो सिनेमा हॉल में किए गए ऑब्जर्वेशन के आधार पर तैयार किया था। एक मिमिक्री आर्टिस्ट के रूप में अपना यह कार्यक्रम मुझे बेहद पसंद है। यह दुनिया भर की आवाजों का खेल है और ये बगैर किसी अंतराल के एक के बाद एक बदलती चली जाती हैं।

आखिर में एक पुराने किस्म की कहानी, जो इतनी नई है कि आपने कभी भी नहीं सुनी होगी। हुआ यूँ कि 'भोलाराम का जीव' जब इस दुनिया से उस दुनिया की यात्रा में था तो अचानक दूतों की पकड़ से छूटकर भाग गया। दूतों ने उन्हें एक गठरी में बांध रखा था। जीव की तलाश में दूत मारे-मारे फिर रहे थे। जीव कहीं नहीं मिला तो वे समय काटने के लिए एक सिनेमा हॉल में घुस गए। हाथ में मूँगफली का एक ठोंगा भी था। दूत भले आदमी थे। अंधेरे में अगल-बगल के लोगों को भी मूँगफली के दाने खिलाए। लौटकर आए तो देखा भोलाराम का जीव गठरी में विराजमान है। दूतों को बहुत आश्चर्य हुआ। पूछने पर मालूम हुआ कि हॉल में जिन लोगों को उन्होंने मूँगफली की पेशकश की थी, उनमें से एक भोलाराम भी था। भोलाराम ने इससे पहले अपने जीवन में कभी भी मूँगफली खाते हुए सिनेमा नहीं देखा था।

मूँगफली नामक अन्न की उत्पत्ति हिंदी सिनेमा के चलते ही हुई होगी। हिंदी सिनेमा का रसपान मूँगफली की सहायक-सामग्री के बगैर मुमकिन नहीं था। सेकंड शो के बाद जब थर्ड-क्लास से बाहर निकलना होता था तो नीचे फर्श पर मूँगफली के छिलकों की कालीन बिछी होती थी। उन दिनों आजकल की तरह मैनेजमेंट के कोर्स नहीं होते थे, अन्यथा "सिनेमा हॉल में छिलका प्रबंधन" जैसा कोई शोध जरूर हुआ होता। यह भी पता लगाया जाता कि मूँगफली की सकल वार्षिक पैदावार का कितना हिस्सा सिनेमा हॉल में खपता है और मुल्क की जीडीपी में इसका क्या योगदान है। मूँगफली हमेशा टिकिट लेने के बाद या इंटरवेल में खरीदी जाती थी। अगर पहले से ले ली और टिकिट न मिले तो वह बेकाम, बेस्वाद होकर रह जाती। कुछ कमीने किस्म के दोस्त ऐसे भी होते जो मूँगफली का ठोंगा लाकर भी उसे छिपाए रखते थे। वे दायीं ओर होते तो उसे दायीं जेब में रखते और बायीं ओर होने पर बायीं जेब में। छिलका इतनी सफाई से उतारते कि जरा भी आवाज न हो। पकड़े जाने पर सफाई देते हुए कहते, "भाई खतम हो गयी थी, बस पचासई ग्राम मिली।" बाकी मौकों पर एक गुप्त समझौते के तहत मूँगफली के दाने टूँगने का अवसर उसे ही अधिक देने का चलन था, जो मूँगफली खरीद कर लाता था। इस समझौते का उल्लंघन करने वाले के हाथों में ठोंगे के साथ काले नमक की पुड़िया थमा दी जाती थी, जिससे उसकी गति स्वाभावतः भंग हो जाती। इनकार करने वाले को यह ताना सुनना पड़ता, "अब हम खरीद कर लाए हैं..तुम जरा सा पकड़ भी नहीं सकते!"

"हिंदी सिनेमा और मूँगफली" की कथा में बहुत से आयाम हैं। लोग अपने-अपने अनुभवों के आधार पर इस कथावली को समृद्ध कर सकते हैं। हालाँकि मुझे याद नहीं पड़ता कि हिंदी सिनेमा वालों ने कभी इनका नोटिस लिया हो। "द पीनट वेंडर" नामक एक क्यूबन गाना अलबत्ता पूरी दुनिया में बड़ा मशहूर हुआ जिसे कोई डेढ़ सौ से भी ज्यादा बार रेकॉर्ड किया जा चुका है। हिंदी सिनेमा के स्वर्णिम दिनों के आनन्द में मूँगफली के अवदान को भुलाया नहीं जा सकता। उन दिनों चार आने की मूँगफली के साथ सिनेमा देखने में जो आनन्द था, वह अब सौ रुपये के 'पॉपकॉर्न' में नहीं मिलता!

5.6.21

बोलने की आजादी बनाम मलाला यूसुफजई

       मलाला यूसुफजई गूगल फोटो
मलाला यूसुफजई के मुतालिक पाकिस्तान में दिनों खासा हंगामा बरपा है। मलाला ने जो भी कहा निकाह को लेकर उसे एक अग्राह्य नैरेटिव के रूप में देखा जा रहा है। सोशल मीडिया पर तो गया गजब की आग सी लगी हुई है और यूट्यूब चैनल रेगुलर न्यूज़ चैनल आपको बाकायदा जिंदा रखे हुए हैं। ऐसा क्या कह दिया मलाला ने कि इतना बवाल मच गया?
दरअसल मलाला ने वोग पत्रिका को इंटरव्यू में बताया कि-" पता नहीं लोग निकाह क्यों करते हैं एक बेहतर पार्टनरशिप के लिए निकाह नामें पर सिग्नेचर का मीनिंग क्या होता है..?
दरअसल भारत में लिव इन रिलेशन में जाने वाली महिलाओं को बकायदा अधिकार से सुरक्षित किया गया है। बहुत सारे काम मिलार्ड लोग सरल कर देते हैं या यह कहें कि भारत में न्याय व्यवस्था बहुत हम्बल है। लिहाजा हमारे देश में सैद्धांतिक रूप से तो समाज ने इसे अस्वीकृत किया है परंतु आपको स्मरण होगा कि सनातन से बड़ा लिबरल मान्यताओं वाला धर्म और कोई नहीं है। गंधर्व विवाह को यहां मान्यता है भले ही उसका श्रेणी करण सामान्य विवाह संस्था से कमतर क्यों ना माना गया हो।
  23 साल की मलाला यूसुफजई नोबेल अवॉर्ड् से सम्मानित है और इस वक्त ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में पीएचडी कर रही है। हालिया दौर में वे पाकिस्तान के कट्टरपंथियों के निशाने पर हैं जबसे उन्होंने इजराइल फिलिस्तीन संघर्ष में फिलिस्तीन के संदर्भ में विशेष रूप से कुछ नहीं कहा था इतना ही नहीं कुछ वर्ष पहले उन्होंने तालिबान की कठोर निंदा भी की थी। स्वात घाटी की रहने वाली पाकिस्तानी नागरिक पाकिस्तान में हमेशा विवाद में लपेटा जाता है ।
मलाला ने किस कांटेक्ट में निकाहनामे को गैरजरूरी बताया इस पर चर्चा नहीं करते  हुए अभिव्यक्ति की आजादी पर मैं यहां अपनी बात रख रहा हूं। विश्व में भारत और अमेरिका ही दो ऐसे देश है जहां बोलने पर किसी की कोई पाबंदी नहीं। जबकि विश्व के अधिकांश राष्ट्रों में अपनी बात कहने के लिए उनके अपनी कानून है। पाकिस्तान से भागकर कनाडा में रहने वाले बहुत सारे ऐसे लोग हैं जो कि पाकिस्तान में आसानी से जिंदगी बसर नहीं कर पा रहे थे। उनमें सबसे पहला नाम आता है तारिक फतेह का और फिर ताहिर गोरा , आरिफ अजकारिया
 इतना ही नहीं हामिद मीर भी इन दिनों  फौज के खिलाफ टिप्पणियों की वजह से कट्टरपंथियों के निशाने पर हैं । इसी तरह गलवान में चाइना की सेना की जवानों की सही संख्या लिखने पर वहां के एक माइक्रो ब्लॉगर को 8 महीने से गायब कर रखा है। जैक मा की कहानी आप से छिपी नहीं है। अब रवीश कुमार ब्रांड उन उन सभी लोगों को भारतीयों को समझ लेना चाहिए कि  हिंदुस्तान बोलने की आजादी है लिखने की आजादी है और इसका बेजा फायदा भी उठाया जा रहा है। मैं यहां एक बात स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि-"भारत के अलावा आप और किसी देश में बोलने लिखने की आजादी के हक से मरहूम ही रहेंगे" उम्मीद है कि मेरा संकेत सही जगह पर पहुंच रहा होगा ।

2.6.21

नेपाली राजमहल हत्याकांड की बरसी पर विशेष

नेपाल में प्रजातंत्र और राजशाही की उठापटक बरसों से जारी है। इतिहासिक परिपेक्ष में जो जानकारियां पब्लिक डोमेन में मौजूद है उससे स्पष्ट होता है कि नेपाल अप्रत्यक्ष रूप से प्रजातांत्रिक स्वरूप से एक तंत्र वाली शासन प्रणाली की ओर बढ़ रहा है। आज हम उस घटना को याद करेंगे जो 1 जून 2001 में नेपाल में घटित हुई थी। कहानी प्रेम के दुर्दांत अंत की है।
नेपाल की राजशाही का सांकेतिक रूप से अंत 20 जून 2001 एक को ही वास्तविक रूप में हो गया था जब महारानी ऐश्वर्या के प्रिंस द्वारा प्रस्तावित विवाह से असहमत राज परिवार के विरोध के चलते हुआ। जन्म दात्री मां महारानी ऐश्वर्या के विरोध ने जब विरोध किया तब  क्रॉउन प्रिंस आपे से बाहर हो गए। और फिर क्राउन प्रिंस दीपेंद्र ने एक के बाद एक नौ रक्त संबंधियों की हत्या कर दी । यह हत्याकांड अपने पीछे 9 से अधिक चिंतन को जन्म देता है। 
    राजशाही के दौरान नेपाल एकमात्र हिंदू राष्ट्र नेपाल की राजकीय परंपरा अनुसार प्रिंस दीपेंद्र को राष्ट्र का राजा घोषित किया गया।  परंतु दीपेंद्र उस समय ट्रॉमा सेंटर में बेहोशी की हालत में 56 घंटों तक अपनी मौत का इंतजार कर रहा था। इसके बाद उनके छोटे भाई को राजा घोषित किया गया।
 नेपाल का इतिहास प्रजातांत्रिक नहीं रहा किंतु विकिपीडिया में दर्ज विवरण के अनुसार बीसवीं शताब्दी में नेपाल ने अपने राजनीतिक अस्तित्व में परिवर्तन किया विकिपीडिया में दर्ज विवरण कुछ इस तरह है
1940 दशक के उत्तरार्ध में लोकतन्त्र- समर्थित आन्दोलनों का उदय होने लगा व राजनैतिक पार्टियां राणा शासन के विरुद्ध हो गईं। उसी समय चीन ने 1950 में तिब्बत पर कब्ज़ा कर लिया जिसकी वजह से बढ़ती हुई सैनिक गतिविधियों को टालने के लिए भारत नेपाल की स्थायित्व पर चाख बनाने लगा। फलस्वरुप राजा त्रिभुवन को भारत ने समर्थन किया 1951 में सत्ता लेने में सहयोग किया, नई सरकार का निर्माण हो गया, जिसमें ज्यादा आन्दोलनकारी नेपाली कांग्रेस पार्टी के लोगों की सहभागिता थी। राजा व सरकार के बीच वर्षों की शक्ति खींचातानी के पश्चात्, 1959 में राजा महेन्द्र ने लोकतान्त्रिक अभ्यास अन्त किया व "निर्दलीय" पंचायत व्यवस्था लागू करके राज किया। सन् 1989 के "जन आन्दोलन" ने राजतन्त्र को संवैधानिक सुधार करने व बहुदलीय संसद बनाने का वातावरण बन गया सन 1990 में कृष्णप्रसाद भट्टराई अन्तरिम सरकार के प्रधानमन्त्री बन गए, नये संविधान का निर्माण हुआ राजा बीरेन्द्र ने 1990 में नेपाल के इतिहास में दूसरा प्रजातन्त्रिक बहुदलीय संविधान जारी किया  व अन्तरिम सरकार ने संसद के लिए प्रजातान्त्रिक चुनाव करवाए। नेपाली कांग्रेस ने राष्ट्र के दूसरे प्रजातन्त्रिक चुनाव में बहुमत प्राप्त किया व गिरिजा प्रसाद कोइराला प्रधानमन्त्री बने।
इक्कीसवीं सदी के आरम्भ से नेपाल में माओवादियों का आन्दोलन तेज होता गया। मधेशियों के मुद्दे पर भी आन्दोलन हुए। अन्त में सन् 2008 में राजा ज्ञानेन्द्र ने प्रजातान्त्रिक निर्वाचन करवाए जिसमें माओवादियों को बहुमत मिला और प्रचण्ड नेपाल के प्रधानमन्त्री बने और नेपाली कांग्रेस नेता रामबरन यादव ने राष्ट्रपति का कार्यभार संभाला। वर्तमान में एकीकृत कम्युनिस्ट पार्टियों के प्रमुखों के बीच संघर्ष चल रहा है और ज्ञात हुआ है कि केपी ओली फिर से प्रधानमंत्री के रूप में नेपाली सत्ता पर काबिज है।
नेपाल की प्रजातांत्रिक व्यवस्था पर लेखक की टिप्पणी :- 
     वर्तमान परिस्थितियों में नेपाल की स्थिति प्रो चाइना होने के कारण बहुत अधिक मजबूत नहीं कही जा सकती। परंतु ऐसा नहीं है कि वर्तमान में नेपाल की जनता वापिस राजशाही की मांग ना कर रही हो। राजनीति का एक चक्र होता है इस चक्र में अक्सर प्रजातंत्र राजशाही की ओर जाता है और राजशाही वापस प्रजातंत्र की ओर । लेकिन  भारतीय व्यवस्था में राजतंत्र या राजशाही केवल एक प्रशासनिक व्यवस्था का मुख्य केंद्र है। अगर भारत में राजशाही का दौर वापस आता है तो भी प्रजातांत्रिक मूल्यों का भविष्य के परिवर्तन में ध्यान रखा जाना स्वभाविक है। यह सुविधा माओवाद में उपलब्ध नहीं है। भारतीय इतिहास को देखें तो प्राचीन इतिहास महाभारत कालीन इतिहास से ही शुरु करते हैं प्रजातांत्रिक मूल्यों का संरक्षण राजशाही में भी हमेशा रहा है। आयातित विचारधारा मेरी सुविचार से सहमत नहीं होगी क्योंकि उनका अध्ययन कम है। वे भारतीय socio-political- philosophy से अनभिज्ञ हैं। नेपाल को हम भारत से सोशियोकल्चरल तौर पर अलग नहीं मानते। यह सामाजिक चिंतन है हमारा संस्कृति एवं रक्त संबंध इस राष्ट्र से अपेक्षाकृत अधिक सुदृढ़ और ऐतिहासिक है। परंतु पिछले दशक में नेपाल में जिस तरह से आयातित विचारधारा ने सत्ता में प्रवेश पाया है वह नेपाल को लोकतंत्र से एक तंत्र की व्यवस्था की ओर ले जाने का संकेत दे रहा है। अधिकांश कम्युनिस्ट देशों में राष्ट्राधक्ष एक लंबी पारी खेलने के आदी हैं। जबकि भारत में ऐसा नहीं है भारतीय प्राचीन इतिहास प्रजातांत्रिक मूल्यों का संरक्षण करता रहा बावजूद इसके कि- राजतंत्र द्वारा प्रशासनिक व्यवस्थाएं संचालित होती रही। जबकि वामपंथी व्यवस्था एक लंबे समय तक किसी को भी प्रधानमंत्री या राष्ट्र अध्यक्ष बने रहने की अनुमति प्रदान करती है। जैसा कि पिछले एक दशक में नेपाल में नजर आ रहा है। वह दिन दूर नहीं यदि नेपाल में वास्तविक प्रजातंत्र जिसे भारतीय प्रजातंत्र कहा जाता है के मॉडल को एडिट नहीं किया गया तो चीनी नैरेटिव इस बात को सिद्ध भी कर सकता है। यह मेरा अपना ओपिनियन है भविष्य में क्या होगा इस संबंध में मुझे बहुत अधिक नहीं कहना। परंतु इस सिद्धांत को आप अवश्य मानेंगे की दीर्घ काल में प्रजातंत्र का विकल्प एक तंत्र या राजशाही होता है और राजशाही का विकल्प प्रजातंत्र होता है यह एक चक्र है धीरे धीरे बदलने वाला चक्र है।
     भारतीय लोकतंत्र अपने आप में बेहद प्रभावशाली एवं परिपक्व उत्तम माना जा सकता है जबकि यहां का एक-एक मतदाता किसी भी लुभावने वातावरण से आकर्षित ना हो। क्योंकि वातावरण  लूभावना हो सकता है लेकिन सत्य तो वही होता है जो कि नजर आता है पुण्य

28.5.21

मासिक धर्म स्वच्छता दिवस 2021 अब मासिक धर्म स्वास्थ्य और स्वच्छता में अधिक कार्रवाई और निवेश का आह्वान कर रहा है : स्नेहा चौहान

!        हर साल 28 मई को, गैर-सरकारी संगठन, सरकारी एजेंसियां, निजी क्षेत्र, मीडिया और व्यक्ति मासिक धर्म स्वच्छता दिवस (एमएच दिवस) मनाने के लिए एक साथ आते हैं और अच्छे मासिक धर्म स्वच्छता प्रबंधन (एमएचएम) के महत्व को उजागर करते हैं।28-मई  -2020 इस दिन को मनाने के पीछे मुख्य विचार मासिक धर्म से जुड़े सामाजिक कलंक को बदलना है।  28 मई की तारीख को इस दिन को मनाने के लिए चुना गया था क्योंकि औसतन ज्यादातर महिलाओं के लिए मासिक धर्म चक्र 28 दिनों का होता है और ज्यादातर महिलाओं के लिए मासिक धर्म की अवधि पांच दिनों की होती है।  इसलिए, तारीख 28/5 रखी गई थी।


मासिक धर्म एक प्राकृतिक शारीरिक प्रक्रिया है, न कि कोई बीमारी। जैसा कि अब भी बहुत से लोग सोचते हैं। हर महीने होने वाली यह एक ऐसी प्रक्रिया है जो हर महिला के शरीर को गर्भधारण के लिए तैयार करती है। मासिक धर्म के दौरान, एक महिला के गर्भाशय से रक्त और अन्य सामग्री वेजाइना के माध्यम से बाहर स्रावित होती है। हर महीने 3-5 दिन तक जारी रहने वाली यह प्रक्रिया प्‍यूबर्टी (10-15 वर्ष) से ​​शुरू होकर रजोनिवृत्ति (40-50 वर्ष) तक चलती है। अब भी हमारे समाज में इस प्राकृतिक शारीरिक प्रक्रिया को कलंक और वर्जनाओं की दृष्टि से देखा जाता है।


 इस विषय पर महिलाओं में भी शर्म और संकोच मौजूद है। अपने स्‍त्री होने पर ही शर्म महसूस करना जैसे इस प्रक्रिया का दूसरा प्रतीक बन गया है। इसके अलावा अन्‍य शारीकिर परेशानियां भी महिलाओं के लिए इस दौरान होने वाली दिक्‍कतों में शामिल हैं। पेट में ऐंठन, दर्द और मूड स्विंग ऐसी परेशानियां हैं जिनसे ज्‍यादातर महिलाएं मासिक धर्म के दौरान परेशान रहती हैं। जबकि आज भी मासिक धर्म पर स्‍वच्‍छता का अभाव देखने को मिलता है। जिसकी वजह से कई तरह के संक्रमणों का खतरा बना रहता है। इन सभी मुद्दों पर ज्‍यादा से ज्‍यादा जागरुकता पैदा करने के लिए जर्मनी के गैर सरकारी संगठन WASH यूनाइटेड द्वारा 28 मई को मासिक धर्म स्वच्छता दिवस (MHD) मनाने का संकल्‍प किया है।


फील्‍ड में और ऑनलाइन माध्‍यमों में इस संदर्भ में अभी बहुत कुछ किए जाने की जरूरत है। दुनिया भर में मासिक धर्म के संदर्भ में फैली रूढि़यों और वर्जनाओं को दूर करने की जरूरत है।  मासिक धर्म स्वच्छता दिवस 2019 की थीम थी ‘It’s Time for Action’। अर्थात अब कुछ करने का समय है। इस थीम का उद्देश्‍य था मासिक धर्म के दौरान महिलाओं को अपनी निजी स्‍वच्‍छता के प्रति जागरुक करने, नई जान‍कारियां देने, इस दिशा में कार्यरत संस्‍थाओं जैसे संयुक्त राष्ट्र की संस्‍थाओं, सरकारों, फ़ंडों, गैर-सरकारी संगठनों और विश्व निकायों की भूमिका को और सक्रिय करने की जरूरत है। साथ ही उन्हें स्वच्छता सुनिश्चित करने संबंधी उत्‍पादों को सुलभ करवाने में भी मदद की जरूरत है।

मासिक के उन दिनों के प्रति जागरूकता हेतु 
 इसके अलावा आप अपने इलाके में एक छोटी रैली आयोजित कर सकते हैं। जिसमें मासिक धर्म स्वास्थ्य पर संदेश लिखे पोस्‍टर, बैनर और टी-शर्ट और कैप आदि भी शामिल कर सकते हैं। स्कूल के शिक्षक और अन्‍य अधिकारी 28 मई का दिन बच्‍चों को मासिक धर्म के बारे में जागरुक करने के लिए समर्पित कर सकते हैं। स्कूल परिसर में बच्चों के बीच एक क्विल, निबंध, पेंटिंग प्रतियोगिता आयोजित कर इस संदर्भ में फैले भ्रम को दूर कर जागरूकता बढ़ाने में मदद कर सकते हैं। यह छोटे-छोटे प्रयास अगली पीढ़ी को इन वर्जनाओं से मुक्ति दिलवाने में मदद करेगी।
इसके अलावा समाज में आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग की लड़कियों के लिए सैनिटरी पैड खरीदने के लिए धन जुटाना भी एक अच्छी पहल हो सकती है। यदि आप ऐसी किसी भी गतिविधि में शामिल हैं तो आप इसे मासिक धर्म स्वच्छता दिवस  की आधिकारिक वेबसाइट  (www.menstrualhygieneday.org/events) पर पंजीकृत कर सकते हैं। इस वेबसाइट पर एक मैप दिखाई देगा, जिसमें इस अवसर पर आयोजित होने वाले तमाम आयोजनों को मार्क किया जाएगा। इसमें मीडिया संगठनों को भी शामिल किए जाने की जरूरत है। जिससे आपका संदेश और प्रयास एक बड़े सर्कल तक संप्रेषित हो पाएगा।

 मासिक धर्म स्वच्छता दिवस कैसे मनाएं

मासिक धर्म स्वच्छता दिवस दुनिया भर में रैलियों, फिल्म स्क्रीनिंग, थिएटर, प्रदर्शनियों, कार्यशालाओं, सेमिनारों और भाषणों, सोशल मीडिया अभियानों के माध्यम से मनाया जाता है। ऐसे कई तरीके हैं जिनसे आप इन समारोहों का हिस्सा बन सकते हैं। आप मासिक धर्म के बारे में फोटो, वीडियो, जानकारी या अपने विचार पोस्ट करने के लिए अपने सोशल मीडिया हैंडल का उपयोग कर सकते हैं। इसके अलावा, आप लोगों को टैबू को तोड़ने और इस मुद्दे पर खुलकर बात करने के लिए प्रेरित करने संबंधी कहानियां भी शेयर कर सकते हैं।

मासिक धर्म स्वच्छता बनाए रखने के टिप्स

मासिक धर्म स्वच्छता बनाए रखने के लिए, आपको यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि आप कम से कम हर 6 घंटे के बाद अपना पैड बदलें। यदि आप लंबे समय तक एक ही सैनिटरी नैपकिन लगाए रखती हैं तो आपको यूरिनरी ट्रेक्‍ट इंफेक्‍शन होने का खतरा रहता है। इसके अलावा, पैड की जगह सूती कपड़े का उपयोग भी स्वच्छता के लिहाज से ठीक नहीं है। हमेशा सैनिटरी नैपकिन, टैम्पोन या मेन्‍स्‍ट्रुअल कप्‍स का ही इस्‍तेमाल करें।
अपने पीरियड्स के दौरान अपने वेजाइना अर्थात योनि को नियमित अंतराल पर गुनगुने पानी से साफ करें। धोने के बाद वेजाइना को पोंछ कर सुखाना न भूलें। वरना यहां बदबू और संक्रमण होने का खतरा रहता है। मासिक धर्म के दौरान नियमित स्‍नान करें, हो सके तो रात में सोने से पहले भी। इससे पीरियड में होने वाले क्रेम्‍प्‍स और मूड स्विंग से भी छुटकारा मिलता है। इसके साथ ही  अपने इस्‍तेमाल किए हुए सैनिटरी पैड का उचित निस्‍तारण भी बहुत जरूरी है। अन्यथा, वे संक्रमण फैला सकते हैं। यूज किए गए सेनिटरी पैड को अच्‍छी तरह रैप करके फेंकना चाहिए। भूलकर भी उसे फ्लश में न डालें।
अब इन दिनों के लिए बाजार में कई तरह के  पैड उपलब्ध है।
इन दिनों महिलाएं मेन्‍स्‍ट्रुअल  कप का इस्तेमाल कर रही है। जो कि पैड से ज्यादा सुरक्षित और ह्यजेनिक है। बस जरूरत है इनके बारे में उचित जानकारी हो।

मासिक धर्म एक प्राकर्तिक क्रिया है इसके बारे में बात कीजिये,अपने बच्चो से फिर वो लड़का हो या लड़की। शरीर मे बदलाव दोनो के एक उम्र के बाद होते है। दोनो को एक दूसरे के इन बदलावों के बारे में जानकारी होनी जरूरी है। इन बदलावों की जानकारी घरों में सबके सामने बात कर करनी चाहिए।
अब वक्त के साथ उस सोच को बदलना ही होगा कि इन दिनों लड़की अशुद्ध होती है ,या पीरियड्स की बात खुलके नही करनी चाहिए। सिर्फ औरतों के बीच हो,मर्दों के सामने इन दिनों न आये ,उनसे दूरी बनाए और भी बहुत।

अब समय के साथ पीरियड्स शुरू होने की उम्र भी कम होती जा रही है, इसके कई कारण है । 
13 -14 के उम्र में होने वाले शारीरिक बदलाव 5 या 6 साल में देखने मिल रहे है। आपके घर के माहौल, बच्चो के प्रति व्यवहार,उनके लिए वक़्त, उनके खानपान सब इसके लिए जिम्मेदार है। एक बच्चा कब कितनी जल्दी प्रौढ़ हो जाता है ये माता पिता को बहुत देर से समझ आता है।खैर।

मुद्दा ये है कि इस विषय पे आज भी उतनी खुल के बात नही होती जितनी होनी चाहिए।

जिम्मेदार लोगों का ये फ़र्ज़ बनता है कि अपने समाज के बच्चो के लिए भी वक़्त निकाले उन से उनकी बात करे ,उनको जानकारी दे। जो जानकारी आपको नही है उनके पास है तो आप भी उनसे साझा करें।

इन दिनों मेरे संपर्क से मुझे ये देखने मिला कि  पीरियड्स में मेन्‍स्‍ट्रुअल  कप्स के इस्तमाल की जानकारी हमउम्र महिलाओं को भी नही है।
उनसे जब मैंने पूछा कि कौन यूज़ करता है,सब चुप थी।
 एक ने डरते हुए पूछा ये क्या है?
 जब हमने कप्स की जानकारी दी तो वो आश्चर्य चकित थी। 
फिर दूसरी महिला बोली मैंने नाम सुना था पर ज्यादा ध्यान नही दिया।
फिर जब हमने उनको इसके बारे में सब बताया तो बोली   ,देखते है । मित्र ने  यूज़ करने के बाद बोल ये तो बड़ा ही सरल है। डर पहली बार लगा ,अब आदत हो गयी है ।

संवाद करना जरूरी है ,फिर चाहे महिला हो या पुरुष। ये संवाद घरों से शुरू हो तो आने वाली पीढ़ियों के आधे मसले ठीक हो जाएंगे। 
 सारा खेल दुनिया का औरत और उसके शरीर पे निर्भर करता है।
28/5 कितना जरूरी है सोचिए।   
                                       लेखिका सुश्री स्नेहा चौहान स्वतंत्र पत्रकारिता करती हैैं


26.5.21

महात्मा गौतम बुद्ध 583 BCE में नहीं बल्कि1865 BCE में अवतरित हुए थे :वेदवीर आर्य


आज महात्मा गौतम बुद्ध की जयंती है वैशाख पूर्णिमा पर महात्मा बुध का जन्म नेपाल के लुंबिनी उपवन में  हुआ था।
महात्मा गौतम बुद्ध की जन्म स्थली  को लेकर किसी भी तरह का कोई भ्रम नहीं है । और यह भी भ्रम नहीं है कि उनका जन्म वैशाख पूर्णिमा को ना हुआ हो । परंतु नवीनतम समीक्षाओं से पता चलता है कि महात्मा बुध का जन्म  583  बीसीई में हुआ में इस बात को लेकर बड़ा असमंजस है।
   महात्मा बुद्ध महाभारत युद्ध के 1200 वर्ष उपरांत अट्ठारह सौ चौंसठ बीसीई  लुंबिनी में जन्मे थे और वे इक्ष्वाकु वंश राजा के राजा शुद्धोधन महारानी माया देवी पुत्र थे। इसमें भी कोई शक नहीं है।
आप आपने जुरुथरुष्ट का नाम सुना होगा । जुरुथरुष्ट जब अपनी मान्यताओं को प्रचारित प्रसारित करने के लिए मध्य एशिया तक आए तब बौद्ध धर्म लगभग 29 देशों में विस्तारित था। विश्व के समकालीन 29 देशों में जोराष्ट्रीयन आईडियोलॉजी का विस्तार करने वाले जोराष्ट्र दो ने बुद्ध मत को नकारात्मक रूप से प्रभावित किया और उसे अफगानिस्तान तक सीमित कर दिया तब अफगानिस्तान को बैक्ट्रिया के नाम से जाना जाता था। अर्थात बुद्ध जोराष्ट्र के पहले
मान्यताओं के हिसाब से जो राष्ट्र दो 647 से 570 bc-e में जन्मे थे तथा बुध का जन्म 563 से 483 बीसीई दर्शाया गया है। अबू रेहान की किताब  अतहर उल बाकी या नामक किताब में अबू रियान  कहते हैं कि बुद्ध का जन्म जोराष्ट्र सेकंड के पहले हुआ था। अब आप समझ सकते हैं कि अलबरूनी या अबू रियान एक कथन को ओवरलूक किया गया है।
[  ] नेपाल के लुंबिनी में उपवन महामाया देवी भ्रमण पर गई हुई थी तथा वहां महात्मा गौतम बुद्ध का जन्म हुआ था। सारे बुद्धिज्म मानने वाले जानते हैं लुंबिनी का उपवन केवल उपवन ही था वहां किसी तरह का कोई स्ट्रक्चर बुद्ध के जन्म के पूर्व उपलब्ध नहीं था परंतु बुद्ध के बाद था एक मंदिर का निर्माण  किया गया। जिसके कार्बन डेटिंग और ओएसएल परीक्षण के प्रमाण मौजूद है।
[  ] महाभारत की समाप्ति 3162 बी सी के 1210 डायनेस्टी 1000 वर्ष प्रद्योत डायनेस्टी 138 वर्ष हिस्ट्री 360 और नंद डायनेस्टी 100 वर्ष कुल 1600 वर्ष के उपरांत बुद्ध का जन्म हुआ।
[  ] 0 गया में उपलब्ध एक लिपि में 1813 संवत में प्रकाश नेपाली मान्यताओं में 1800 वर्ष शताब्दी यानी शक संवत में उनका जन्म होना पाया माना है
इससे साबित होता है कि महात्मा गौतम बुद्ध का जन्म एवं महानिर्वाण 1765 BCE में सुनिश्चित किया जाता है ।
    और इस से 80 वर्ष पूर्व महात्मा बुद्ध का लुंबिनी में जन्म हुआ था। 15 मार्च 1944 बीसीई वैशाख माह उनका जन्म स्थापित होता है। तथा इसके 80 वर्ष उपरांत 23 अप्रैल 1909 BCE में उन्हें बुद्धत्व की प्राप्ति हुई तथा उनका निर्वाण 5 अप्रैल 1864 ईसवी में वैशाख पूर्णिमा को हुआ था।
    इसके एस्ट्रोनॉमिकल एविडेंसेस भी उपलब्ध है। तदनुसार 8 मार्च अट्ठारह सौ चौंसठ बीसीई में चंद्र ग्रहण तथा सूर्य ग्रहण 23 मार्च 18 सो 64 ईस्वी में हुआ है तथा उसके 15 दिनों के बाद गौतम बुद्ध का निर्वाण हुआ है ।
उपरोक्त ऐतिहासिक बिंदु की पुष्टि के लिए आप the chronology of India from Manu To Mahabharat में विस्तार से देख सकते हैं अमेजॉन पर यह पुस्तक उपलब्ध है। कुछ दिन इंतजार कीजिए संस्कृति के प्रवेश द्वार नामक मेरी आगामी हिंदी कृति का जिसमें हिंदी रहस्यों पर से पर्दा हटाने की कोशिश की है।
बुद्ध जयंती पर सभी भारतीयों और विश्व के समस्त उन लोगों को हार्दिक शुभकामनाएं जो बुद्ध के प्रति आस्थावान है

आज तक किया बाबा रामदेव का मीडिया ट्रायल : आयुर्वेद और नेचुरोपैथी दुर्भाग्यपूर्ण दौर में

#आजतक चैनल पर आइएम के महासचिव डॉक्टर जयेश लेले एवं एवं पूर्व अध्यक्ष श्री राजन शर्मा ने एंकर अंजना ओम कश्यप की मौजूदगी में एक विवादास्पद बहस में हिस्सा लिया जिसमें टारगेट किया जा रहा था प्राकृतिक चिकित्सा के पुनर्प्रवर्तक बाबा रामदेव को। इस बहस में परिचर्चा का कोई भी गुण नजर नहीं आ रहा था बल्कि यह  अपराध परीक्षण जी हां मीडिया ट्रायल था यह एक सबसे बड़ी विवादास्पद बहस थी। एलोपैथिक वर्सेस आयुर्वेद एवं नेचरोपैथी को लेकर आजतक न्यूज़ ने जिस तरह का नेगेटिव अवधारणा को जन्म दिया है शर्मनाक है। भारत ने आयुर्वेद योग दर्शन और फिलासफी के लिए बहुत अधिक योगदान नहीं किया है और अगर किया भी है तो वह निजी तौर पर हुआ है उनमें से एक है रामदेव जिनकी अपनी अवधारणा है और  वे इस दिशा में काम कर रहे हैं। परंतु उनके इस आयुर्वेदिक एवं प्राकृतिक #innovation को इस कदर अपमानित किया गया जो आज तक न्यूज़ चैनल की टीआरपी के लिए भले अच्छा हो लेकिन भारत के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है। एलोपैथिक को बुरा नहीं कहा जा सकता तो आयुर्वेद और नेचुरोपैथी को भी अपमानित करने का अधिकार किसी को नहीं है। और खासकर तब जबकि कोविड-19 जैसी महामारी का दौर है। आप स्पष्ट रूप से जान लीजिए कि हमारा रसोईघर अपने आप में एक मेडिसिन सेंटर है। जो हम खाते हैं उसमें माइक्रोन्यूट्रिएंट्स पर्याप्त मात्रा में मौजूद होता है और इम्यूनिटी पावर बढ़ाने की क्षमता हमारे भोजन में मौजूद होती है। कुछ इन्हीं सिद्धांतों पर काम करती है बाबा रामदेव की दवाई यूनानी आयुर्वेद बायोकेमिक नेचुरोपैथी द्वारा किए गए कार्य एलोपैथी के तीव्र विस्तार के कारण बहुत अधिक नकारात्मक रूप से प्रभावित हुए हैं। ना तो इससे भारत का भला है और ना ही एलोपैथी का। एलोपैथिक चिकित्सा प्रणाली धन कमाने का बहुत बड़ा साधन है अमेरिकन मेडिकल सिस्टम एक माफिया की तरह काम करता है ऐसा लोगों का मानना है परंतु इस मान्यता की मेरे द्वारा आज तक पुष्टि नहीं की जा सकती है पर क्या नहीं किया जा सकता अमेरिका या यूरोप देशों द्वारा। भारत का प्राकृतिक अधिकार है परंतु अगर आप विश्व के किसी भी हिस्से में योग कक्षा खोलना चाहते हैं तो आपको यूरोप के किसी इंस्टिट्यूशन से हजारों डॉलर देखकर लाइसेंस हासिल करना पड़ता है। आप समझ सकते हैं कि हमारे चिकित्सक जो एलोपैथी को ही सर्वश्रेष्ठ मानते हैं उनको यह भी मानना होगा कि अगर आयुर्वेद यूनानी बायोकेमिक जर्मनी नेचुरोपैथी आदि चिकित्सा प्रणालियों पर कार्य होता तो निश्चित तौर पर देश काफी आगे होते और एकमात्र चिकित्सा प्रणाली के पीछे भटकाव नहीं हो पाता। यह सब हमारी मूर्खताओं का परिणाम है क्योंकि हम आयातित चीजों को अपना स्टेटस सिंबल मानते हैं। जैसा कर रहे हो तो भोगना ही होगा बहराल में अपना व्यक्तिगत अनुभव बता दो की 2010 से लेकर 2019 तक प्रतिवर्ष मुझे फेफड़ों की शिकायत होती थी और मुझे लगातार लगभग 50+ से अधिक रुपए खर्च करने होते थे लेकिन लेकिन कोविड-19 के कारण आयुर्वेदिक खास तौर पर पतंजलि की मेडिसिन का प्रयोग किया ताकि मुझे कफ की वजह से फेफड़ों की समस्या से मुक्ति मिले और उन दवाओं से मुझे लाभ हुआ है। जबकि यह सामर्थ्य एलोपैथी में नहीं है। निर्णय आपको करना है सभी चिकित्सा प्रणालियां अपने आप में प्रभावशाली हैं किसी को अपमानित करने की जरूरत नहीं है ना तो एलोपैथिक को और 9 अन्य को लेकिन यह वीडियो यह सिद्ध कर रहा है कि एलोपैथी के अलावा दुनिया में इसका का कोई विकल्प नहीं है। मैं एक ऐसे विद्वान को जानता हूं जो इसी शहर में रहते हैं और जिन्होंने एनाटॉमी का रेखा चित्र बनाकर ब्रिटेन में भेजा और ब्रिटेन ने  एनाटॉमी संरचना को अपने मेडिकल स्टूडेंट्स के लिए पाठ्यक्रम में शामिल किया । आप चाहेंगे तो आपसे मुलाकात किसी दिन जरूर कर आऊंगा। फिलहाल आप  दिए लिंक को क्लिक करके डॉ हेमराज जैन साहब के बारे में जानकारी हासिल कर सकते हैं

दुर्भाग्य यह है कि जनसत्ता जनसत्ता ने भी अपने समाचार में जो हेडिंग दी है वह कम भड़काऊ या अपमानकारी है

20.5.21

सच है दुनिया वालो कि हम हैं अनाड़ी...!

" सच है दुनिया वालो कि हम हैं #अनाड़ी"
😢😢😢😢😢😢
जो भी व्यक्ति आर्यों को बाहर से आया हुआ साबित करेगा उसे जयपुर डायलॉग के सीईओ संजय दीक्षित रिटायर्ड आईएएस दो करोड़ की राशि देंगे। तो आइए  जानते हैं क्या आर्य विदेशों से आए थे...?
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आज भारत आए थे इस मुद्दे पर एक लंबी बहस चल रही है किंतु अभी तक एनसीईआरटी की किताबों से यह सिद्ध हो जाने के बावजूद की आर्य भारत के ही मूल निवासी थे तथा उनका डीएनए पूर्व पश्चिम उत्तर दक्षिण समान रूप से मैच करता है ।
   ब्रिटिश कालखंड  में यह सिद्धांत प्रतिपादित किया कि 1500 वर्ष ईसा पूर्व आर्यों का आगमन हुआ और उन्होंने वेदों की रचना की और उन्होंने भारत के मूलनिवासी लोगों को अपमानित किया उन्हें स्लेवरी करने को मजबूर किया इस तरह से एक अशुद्ध सिद्धांत का प्रतिपादन कर फूट डालने का काम ब्रिटिश सरकार की सहमति के अनुसार हुआ है।
आर्यों के आगमन के संबंध में एक प्रश्न आपके समक्ष भी रखता हूं
[  ] अगर आर्य 3500 वर्ष पूर्व अर्थात ईसा के 1500 वर्ष पूर्व भारत आए थे और उन्होंने संस्कृत में वेदों,संहिताओं, उपनिषदों ब्राह्मण आरण्यकों का लेखन किया।  लेखन का काल हम ईशा के 1500 वर्ष पूर्व निर्धारित कर भी लेते हैं तो उस सरस्वती नदी के संबंध में क्या जवाब होगा जो बताए गए 1500 साल पूर्व के भी 2000 साल पहले विलुप्त हो गई। अर्थात यह एक अशुद्ध एवं तथ्यहीन भ्रामक थ्योरी है। जिसकी पुष्टि अब तक नहीं हुई है परंतु इस आधार पर किताब में लिखी जा चुकी है।
[  ] संविधान सभा के अध्यक्ष डॉक्टर भीमराव अंबेडकर भी इस तथ्य के समर्थक नहीं थे
[  ] उपलब्ध जानकारी के आधार पर यह कहा गया है कि वेदों का रचनाकाल 14500 से 10500 ईसा पूर्व किया गया था। सब सरस्वती नदी अस्तित्व में रही है
[  ] मैक्स मूलर द्वारा इस थ्योरी विकसित करने का उद्देश्य मात्र भाषा नस्ल के आधार पर विभाजन कर एक व्यवस्थित व्यवस्था को दूषित करना था इसके पीछे उनका संप्रदायिक उद्देश्य भी शामिल है ।
[  ] अनाड़ी ( नीरज अत्री जी से साभार Niraj Atri  ) शब्द का अर्थ आप समझेंगे तो आपको आर्यों के संबंध में समझ बढ़ सकती है। आर्य का अर्थ एक विशेषण है अर्थात हे आर्य अर्थात हे सुविज्ञ और यह शब्द एक संबोधन है जो ऋग्वेद में 33 बार प्रयोग किया गया है। हालांकि मैंने इसकी कोई गिनती नहीं की है परंतु स्रोत यही कहते हैं अब जो सुविज्ञ हैं वे आर्य हैं और जो अभी दिया उस ज्ञान से वंचित है वह अनार्य है अर्थात अनाड़ी है अनाड़ी शब्द का अर्थ अनार्य से ही संबंधित है देशज भाषा में अनार्य को अनाड़ी कहा गया है। हो सकता है कि विद्वान इतिहासकार इसे अस्वीकार कर दें परंतु  भाषाई धरातल पर यही सत्य है। आर्य का संबोधन कर देना मात्र एक जाति का उत्पन्न हो जाना नहीं है। और वह भी इस हद तक कि समाज में विघटन की स्थिति भी पैदा हो सके !
[  ]  मैक्स मूलर ने पूरी प्लानिंग के साथ सबसे पहले वेद का ट्रांसलेशन किया ट्रांसलेशन करने के उपरांत औसत भारतीय को कॉन्फिडेंस में लिया तत्सम कालीन व्यवस्था को कॉन्फिडेंस में लिया और महामहिम मोक्षमूलर की उपाधि से अलंकृत भी हुए। सुधि पाठक कृपया ध्यान दें कि यही वह मोक्ष मूलर साहब हैं जिन्होंने एक शांत निश्छल समाज का वर्गीकरण किया वर्गीकरण करके उनके बीच में एक अवधारणा डाली गई जिससे कि वे विक्टिम है और दूसरा पक्ष जो अधिक शक्तिशाली है वह उनका शोषण कर रहे हैं। अब आप बिन बुलाए मेहमान बन कर इस अवधारणा को विस्तारित करेंगे तो निश्चित रूप से वर्ग संघर्ष पैदा होगा। वाम मार्ग तथा धर्म का विस्तार करने वाली ताकतें इसी तरह के हथकंडे अपनाती हैं। यह एक ऐतिहासिक सत्य है और तथ्य भी।
[ फोटो आभार सहित Vishal Hans क्रिएटिव डायरेक्टर सिटी मुंबई ]

19.5.21

आर्यों को विदेशी बताना नस्लभेदी विप्लव की साजिश है...!

 चित्र गूगल से साभार
ब्रिटिश उपनिवेशवाद के कालखंड में जिस तरह से कांसेप्ट भारतीय जन के मस्तिष्क में डालने की कोशिश की गई उससे सामाजिक विखंडन एवं विप्लव की स्थिति स्थिति निर्मित हुई है। आर्य भारत के ही थे इस बात की पुष्टि के हजारों तथ्य हैं किंतु आर्य भारत में आए थे इसके कोई तार्किक उत्तर नहीं है। भारतीय सभ्यता और संस्कृति में आर्य अनार्य अथवा दास जैसे शब्दों की व्याख्या भ्रामक एवं सामाजिक विघटन के लिए प्रविष्ट किया गया नैरेटिव है। इस सिद्धांत की स्थापना  के पीछे ब्रिटिश विद्वानों का उद्देश्य राजनीतिक विप्लव सामाजिक विघटन एवं भाषा तथा नस्ल भेद को बढ़ावा देना है।
     आर्यों की भारत आने का सिद्धांत सही साबित करने वाले को दो करोड़ का पुरस्कार
आज भारत आए थे इस मुद्दे पर एक लंबी बहस चल रही है किंतु अभी तक एनसीईआरटी की किताबों से यह सिद्ध हो जाने के बावजूद की आर्य भारत के ही मूल निवासी थे तथा उनका डीएनए पूर्व पश्चिम उत्तर दक्षिण समान रूप से मैच करता है ।
   ब्रिटिश कालखंड  में यह सिद्धांत प्रतिपादित किया कि 1500 वर्ष ईसा पूर्व आर्यों का आगमन हुआ और उन्होंने वेदों की रचना की और उन्होंने भारत के मूलनिवासी लोगों को अपमानित किया उन्हें स्लेवरी करने को मजबूर किया इस तरह से एक अशुद्ध सिद्धांत का प्रतिपादन कर फूट डालने का काम ब्रिटिश सरकार की सहमति के अनुसार हुआ है।
आर्यों के आगमन के संबंध में एक प्रश्न आपके समक्ष भी रखता हूं
[  ] अगर आर्य 3500 वर्ष पूर्व अर्थात ईसा के 1500 वर्ष पूर्व भारत आए थे और उन्होंने संस्कृत में वेदों,संहिताओं, उपनिषदों ब्राह्मण आरण्यकों का लेखन किया।  लेखन का काल हम ईशा के 1500 वर्ष पूर्व निर्धारित कर भी लेते हैं तो उस सरस्वती नदी के संबंध में क्या जवाब होगा जो बताए गए 1500 साल पूर्व के भी 2000 साल पहले विलुप्त हो गई। अर्थात यह एक अशुद्ध एवं तथ्यहीन भ्रामक थ्योरी है। जिसकी पुष्टि अब तक नहीं हुई है परंतु इस आधार पर किताब में लिखी जा चुकी है।
[  ] संविधान सभा के अध्यक्ष डॉक्टर भीमराव अंबेडकर भी इस तथ्य के समर्थक नहीं थे
[  ] आर्यों के भारत आने के सिद्धांत के पीछे जो अवधारणा है उसमें भाषा का समूह बनाकर उसे प्रस्तुत करना सबसे बड़ा षड्यंत्र है। जिसमें दक्षिण भारत की भाषाएं जो अधिक संस्कृतनिष्ठ को द्रविड़ भाषा समूह में रखा गया है जबकि दक्षिण भारतीय भाषाएं संस्कृत के सबसे नजदीकी भाषा है। और इनका विकास भी बड़े पैमाने पर भाषा विज्ञानियों ने संस्कृत के आधार पर ही किया है। उत्तर भारत की भाषा जिस समूह की प्रतिनिधित्व करती हैं अपेक्षाकृत कम संस्कृतनिष्ठ होने के बावजूद भी संस्कृत के बिल्कुल नजदीक रखी गई है।
[  ] उपलब्ध जानकारी के आधार पर यह कहा गया है कि वेदों का रचनाकाल 14500 से 10500 ईसा पूर्व किया गया था। सब सरस्वती नदी अस्तित्व में रही है
[  ] मैक्स मूलर द्वारा इस थ्योरी विकसित करने का उद्देश्य मात्र भाषा नस्ल के आधार पर विभाजन कर एक व्यवस्थित व्यवस्था को दूषित करना था इसके पीछे उनका संप्रदायिक उद्देश्य भी शामिल है
         

14.5.21

भारतीय साहित्यकारों ने भारतीय प्राचीन इतिहास के साथ न्याय नहीं किया : गिरीश बिल्लोरे मुकुल


पूज्यनीय राहुल सांकृत्यायन जी ने वोल्गा से गंगा तक कृति लिखी है । इस कृति का अध्ययन आपने किया होगा यदि नहीं किया तो अवश्य करने की कोशिश करें। इस कृति के अतिरिक्त एक अन्य कृति है परम पूज्य रामधारी सिंह दिनकर जी की जो संस्कृति के चार अध्याय के नाम से प्रकाशित है और यह दोनों कृतियां आयातित विचारक बेहद पसंद करते हैं और इनको पढ़ने के लिए प्रेरित भी करते हैं। इसी क्रम में मेरे हाथों में यह दोनों कृतियां युवावस्था में ही आ चुकी थी तब यह लाइब्रेरी में पढ़ी थी । इतिहास पर आधारित इन दोनों कृतियों के संबंध में स्पष्ट रूप से यह स्वीकारना होगा कि-"साहित्यकार अगर किसी इतिहास पर कोई फिक्सन या  विवरण कहानी के रूप में लिखना चाहते हैं तो उन्हें कथा समय का विशेष रूप से ध्यान रखना चाहिए।  कृति  वोल्गा से गंगा तक में 6000 हजार ईसा पूर्व से 3500 ईसा पूर्व  की अवधि में भारतीय वेदों की रचना सामाजिक विकास विस्तार सांस्कृतिक परिवर्तन सब कुछ कॉकटेल के रूप में रखने की कोशिश की है। उद्देश्य एकमात्र है मैक्स मूलर द्वारा भारत के संदर्भ में इतिहास की टाइमलाइन सेटिंग को  ईसा 6000 से 3500 साल पूर्व  सेट करना है
।" साहित्यकार को ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर लिखने के पूर्व टाइमलाइन के संदर्भ में सतर्क और सजग रहना चाहिए। पूजनीय राहुल सांकृत्यायन जी से असहमति के साथ कृति पर चिंतन का आग्रह है । ]
        राहुल संस्कृतम् वोल्गा से गंगा तक मैं अपनी पहली कहानी निशा शीर्षक से लिखते हैं। और वे अपनी इस कहानी के माध्यम से करना चाहते हैं की ईशा के 6000 साल पहले मानव छोटे-छोटे कबीले में रहता था। वोल्गा नदी के ऊपरी तट पर निशा नामक महिला के प्रभुत्व वाला परिवार रहता था जिसमें 16 सदस्य थे वह एक गुफा में रहते थे। महिला प्रधान कबीले में प्रजनन की प्रक्रिया को डिस्क्राइब भी करते हैं। वोल्गा से गंगा तक की संपूर्ण कहानियां 6000 ईसा पूर्व से शुरू होती है दूसरी कथा दिवा नाम से लिखते हुए उसका कालखंड ईसा के 3500 साल पहले   निर्धारण करते हुए फुटनोट में व्यक्त करते हैं -" आज से सवा दो सौ पीढ़ी पहले आर्य जन की कहानी होने का दावा करते हैं तथा यह कहते हैं कि उस वक्त भारत ईरान और रूस की श्वेत जातियां एक ही जाती थी जिसे हिंदी स्लाव या शत वंश कहा गया है। यह कहानी प्रथम कहानी निशा से एकदम ढाई हजार वर्ष के बाद की कहानी है। और इसे वे आर्य कहते हैं । इस कहानी का शीर्षक दिवा है। जो रोचना परिवार की वंशिका के रूप में समझ में आती है। इस कहानी में दिवा को जन नायिका के रूप में दर्शाया गया है। तथा आर्य जन का विकास प्रमाणित करने की चेष्टा की है। और वे अर्थात राहुल सांकृत्यायन इस कहानी में यह कहते हैं कि अग्नि पूजा आर्य जन अब समिति के माध्यम से प्रबंधन करना सीख गए थे। निशा जन और और उषा जन नामक दो व्यवस्थाओं के संबंध में चर्चा की गई है। दोनों व्यवस्थाएं अपने-अपने शिकार के लिए निर्धारित क्षेत्र के रक्षण व्यवस्थापन और प्रबंधन के जिम्मेदार होते। उषा जन से निशा जन की शक्ति दुगनी थी ऐसा इस कथा में वर्णित किया गया है। कहानी में एक और समूह का जिक्र होता है जिसे कुरु जन के रूप में संबोधित किया गया है। कुल मिलाकर राहुल सांकृत्यायन साहब अपनी कृति वोल्गा से गंगा में पर्शिया रूस और भारत को एक विशाल भूखंड के रूप में प्रदर्शित करते हैं तथा इसमें जनतंत्र की व्यवस्था को वर्णित करते हैं। अपनी एक करनी कहानी अमृताशव में  सेंट्रल एशिया पामीर (उत्तर कुरु), कथा जाति हिंदी एवं ईरानी के रूप में प्रस्तुत करते हुए इसे ईसा के 3000 साल पूर्व का कथानक मानते हैं और यही वे यह घोषित करते हैं कि आर्यजन इसी अवधि में भारत में आए थे। इस कालखंड को भी कृषि एवं तांबे के प्रयोग का युग कहते हैं। ईसा के 2000 वर्ष पूर्व के कथानक पुरुधान नामक कथानक में स्वाद के ऊपरी हिस्से की कहानी लिखते लिखते हुए यह सिद्ध करने का प्रयास कर रहे हैं थी भारतीय मूल के लोग आर्यों से युद्ध करते हैं और यही देवासुर संग्राम है। अगर इस कृतिका फुटनोट देखा जाए तो राहुल संस्कृतम् जी कहते हैं कि आज से 108 पीढ़ी आर्य (देव) असुर संघर्ष हुआ था उसी की यह कहानी है आर्यों के पहाड़ी समाज में दासता स्वीकृत नहीं हुई थी। तांबे पीतल के हथियारों और व्यापार का जोर बढ़ चला था।
    अपनी अगली कहानी अंगिरा का कालखंड अट्ठारह सौ ईसा पूर्व हिंदी आज मैं गांधार अर्थात तक्षशिला क्षेत्र का विवरण कथानक में प्रस्तुत किया जाता है। सातवीं कहानी सुदास में वे 15 100 ईसा पूर्व गुरु पंचाल वैदिक आर्य जाति का उल्लेख करते हैं। और इसी कालखंड को वेद रचना का कालखंड निरूपित करते हैं। प्रवासन नामक कथा में पंचाल प्रदेश के 700 ईसा पूर्व का विवरण अंकित करते हुए उपनिषदों की रचना का कालखंड निरूपित करते हैं।
   इस तरह से बड़ी चतुराई के साथ लेखक ने रामायण एवं महाभारत काल वेदों के सही काल निर्धारण वेदों के वर्गीकरण के काल निर्धारण तथा आर्यों के भारत आगमन को प्रमुखता से उल्लेखित करने की कोशिश की है।
     ऐसी कहानियां जो इस उद्देश्य के लिए लिखी गई हो जिससे एक ऐसे नैरेटिव का विकास हो जो सत्यता से परे है इसे सिरे से खारिज भी नहीं किया जा सकता अतः इसे प्रमाणित करके ही समाप्त किया जा सकता है। यहां राहुल सांकृत्यायन जी की भी अपनी मजबूरियां है। वे यह कहना चाह रहे थे कि जो मैक्स मूलर ने सीमा निर्धारण कर लिया है उससे हुए आगे नहीं जाएंगे। तथा आर्यों को भारत में प्रवेश दिला कर ही भारत का प्राचीन इतिहास पूर्ण होता है ऐसा उनका मानना है। परंतु इससे भारतीय ऐतिहासिक बिंदु एवं सामाजिक सांस्कृतिक विकास पर जो नकारात्मक प्रभाव पड़ा है वह चिंतन की दिशा को मोड़ कर रख देता है। केंद्रीय कारागार हजारीबाग 23 जून 1942 में प्रथम संस्करण प्राक्कथन में राहुल जी का कथन स्पष्ट रूप से यह दर्शाता है कि वे मैक्स मूलर के पद चिन्हों पर चल रहे हैं। साथ ही राहुल जी बंधुल मल्ल अर्थात बुध के काल पर सिंह सेनापति उपन्यास का उल्लेख करते हैं।
  मैं यह नहीं कहता कि आप संस्कृति के चार अध्याय और वोल्गा से गंगा तक के कथानक उनसे या विवरणों से परिचित ना हो। अध्ययन तो करना चाहिए परंतु अध्ययन कैसा करना चाहिए इसे समझने की जरूरत है। यह दोनों कृतियां मुझे शुरू से खटकती हैं। कृतियों की विषय वस्तु पर असहमति का आधार है काल खंड का निर्धारण । और फिर मैक्स मूलर सहित पश्चिमी विद्वानों से तत्कालीन साहित्यकारों की अंधाधुंध सहमति। वास्तव में देखा जाए तो इतिहास की विषय वस्तु को साहित्यकार को केवल तब स्पर्श करना चाहिए जबकि उसके कालखंड का उसे सटीक अथवा समयावधि का कुछ आगे पीछे का ज्ञान हो। अन्यथा कथा के रूप में कुछ भी लिखा जा सकता है उस पर किसी की भी कोई आपत्ति नहीं होती और ना भविष्य में होगी। यहां यह कहना बेहद जरूरी है कि -" ऐसी कृतियों से किसी भी राष्ट्र की ऐतिहासिक टाइमलाइन को पूरी तरह से नष्ट भ्रष्ट किया जा सकता है और यह हुआ भी है।"
भारत के प्राचीन इतिहास में भारतीय जन का निर्माण, सिंधु घाटी की सभ्यता तथा अन्य नदी घाटियों पर विकसित सामाजिक व्यवस्थाओं का विश्लेषण, आर्यों के द्वारा किए गए कार्य, भाषाएं जैसी प्राकृत ब्राह्मी संस्कृत का का निर्माण विकास सामाजिक एवं सांस्कृतिक विकास श्रुति परंपरा के अनुसार महान चरित्रों के अस्तित्व आदि पर विचार करना आवश्यक होता है।

गिरीश बिल्लोरे मुकुल

  

12.5.21

हमास का इजरायल पर हमला क्या एक बड़ा बदलाव ला सकता है ?


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      हमास एक आतंकवादी संगठन है परंतु   इससे सुन्नी मुस्लिमों का सशस्त्र संगठन माना गया है। खाड़ी क्षेत्र में गाजा पट्टी में इसका बहुत अधिक प्रभाव है हमास का अरबी भाषा में अर्थ होता है हरकत अल मुकाबल इस्लामिया अर्थात इस्लामी प्रतिरोधक आंदोलन। हमास  का गठन सन 1987 में हुआ है और यह फिलिस्तीनी इस्लामिक राष्ट्रवाद से संबंधित है। विगत 10 मई 2021 को हम आज की रॉकेट लॉन्चरों से कुछ रॉकेट इजराइल में फेंके गए। तो आइए जानते हैं हम  क्या है हमास
  मुस्लिम उम्मा इस्लामिक ब्रदर हुड को बढ़ावा देने वाला एवं इस्लाम की रक्षा पंक्ति के रूप में स्वयं को प्रस्तुत करने वाला ऐसा संगठन है जिस की आधारशिला सन 1987 में रखी गई और यह संगठन एक 35 एकड़ की जमीन के लिए संघर्षरत है।  
      हमास को कनाडा यूरोपीय यूनियन इजराइल जापान और संयुक्त अमेरिका पूर्ण रूप से आतंकवादी संगठन मानते हैं जबकि ऑस्ट्रेलिया न्यूजीलैंड पैराग्वे यूनाइटेड किंगडम इसके सैन्य विंग को आतंकवादी संगठन करार देते हैं। इससे उलट ब्राजील चीन मिस्र ईरान  कतर रूस सीरिया और तुर्की इस संगठन को आतंकवादी संगठन नहीं मानते। वर्ष दिसंबर 2018 में मास्को आतंकवादी संगठन घोषित करने के प्रस्ताव को यूएनओ  द्वारा झटका लगा है।
इजराइल के दक्षिण पश्चिमी भाग में 6 से 10 किलोमीटर चौड़ी एवं 45 किलोमीटर लंबी क्षेत्र को गाजा पट्टी कहते हैं इस गाजा पट्टी पर इजराइल ने अपना अधिकार स्थापित कर लिया यह एक बड़ी लड़ाई के बाद निर्मित स्थिति है। जिसका प्रबंधन इसराइल ने सन 2005 में फिलिस्तीनी मुक्ति संगठन को सौंप दिया था। किंतु 2007 में हुए चुनाव में हमास संगठन द्वारा इस पर अपना हक साबित कर दिया। क्योंकि हमास की एक्टिविटी हमलावर प्रकृति की होने के कारण उसे एक आतंकवादी संगठन के रूप में देखा जाता है। 2008 से यहां संघर्षविराम लागू हुआ था हमास के द्वारा इससे पहले जो रॉकेट हमले किए गए उसके परिणाम स्वरूप लगभग 1300 लोगों के मारे जाने की सूचना है।  अब्राह्मिक धर्म के संस्थापक फादर इब्राहिम के संदेशों को 3 सेक्टर में बांटा गया है एक क्रिश्चियनिटी दूसरा यहूदी और तीसरा इस्लाम यह तीनों संप्रदाय आपस आज तक सामंजस्य स्थापित नहीं कर सकते हैं। इजराइल एक ऐसा राष्ट्र है जिसकी राजधानी यरूशलम है। इसकी भाषा हिब्रू और अरबी है इस देश में 46% यहूदी निवास करते हैं जबकि 19% अरबी और 5% अन्य अल्पसंख्यक समूह निवास करते हैं। बेंजामिन नेतनयाहू वर्तमान में यहां के प्रमुख है जबकि यहां राष्ट्रपति का पद भी है इजराइल का निर्माण विश्व भर में बस रहे यहूदी लोगों को बुलाकर 14 मई 1948 में किया गया वर्तमान में इस देश की जनसंख्या लगभग एक करोड़ है यहां मुद्रा शकील के नाम से जानी जाती है। यहूदी संप्रदाय को मानने वाले लोग इजराइल में पूरे विश्व से बुलवा कर बस आई गए हैं। इजराइल शब्द का अर्थ बाइबिल में प्राप्त होता है बाइबल के अनुसार फरिश्ते के साथ ही युद्ध लड़ने वाले जैकब को इसराइल कहा गया है और उसी के नाम पर इस राष्ट्र का नाम इजराइल पड़ा है। इजराइल एक बहुत छोटा सा राष्ट्र है लेकिन इसकी सामरिक शक्ति और इसकी रक्षात्मक क्षमता को कोई भी राष्ट्र नात नहीं पाया है।
यहूदियों तथा यहूदी राष्ट्र इजराइल को आज भी कई देश जैसे पाकिस्तान आदि ने मान्यता प्रदान नहीं की है। जबकि अरब देशों की बॉडी लैंग्वेज में कुछ परिवर्तन जरूर आया है। भारत के इजराइल से पहले भी सकारात्मक और बेहतर संबंधित है जो वर्तमान में भी जारी हैं लेकिन यासर अराफात के दौर में फिलिस्तीनी मुक्ति संगठन यानी पीएलओ के साथ भारत के आत्मीय संबंध होने की पुष्टि स्वर्गीय यासिर अराफात और स्वर्गीय इंदिरा जी के बीच सकारात्मक विचार विमर्श से होती रही है।
  भारतीय विदेश नीति की शुरू से विशेषता यह है कि भारत धर्म आधारित किसी भी अवधारणा को लेकर मित्रता या दुश्मनी का व्यवहार नहीं रखता बल्कि भारत के अंतरराष्ट्रीय संबंधों का आधार वैश्विक मानवतावादी दृष्टिकोण ही रहा है। भारत न केवल गुटनिरपेक्ष अवधारणा का प्रमुख केंद्र रहा है बल्कि भारत पंथनिरपेक्ष एवं धर्मनिरपेक्षता का प्रमुख केंद्र था है और रहेगा बावजूद इसके कि यह समझा जाता हो या समझाया जाता हो कि भारत एक ऐसी पार्टी के शासन में है जो राष्ट्रवादी है। भारत में राष्ट्रवाद की परिभाषा वह नहीं है जो कि अन्य देशों या शेष विश्व में परिलक्षित होती है।
इस वर्ष रमजान के मौके पर 7 मई शुक्रवार को अल अक्सा मस्जिद पर फिलिस्तीनीयों और पुलिस के बीच में झड़प हुई और धीरे-धीरे इस झड़प में एक बड़ा रूप ले लिया। दूसरी ओर एक मीडिया रिपोर्ट कहती है कि एक आतंकवादी अबू अल हता की मृत्यु हुई इसका एक कारण है ।
दिनांक 10 मई 2021 को हुए हमले के बाद इसराइल ने उग्र रूप धारण कर लिया है। इजराइल प्रशासन पर यह आरोप भी है कि इजरायल वेस्ट बैंक वाले उस क्षेत्र में जहां पर फिलिस्तीनी रहते हैं विशेष रूप से नकारात्मक दृष्टिकोण रखता है। बीबीसी की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि इजराइल जूविनाइल्स को भी बिना किसी कारण बताएं बंधक बना लेता और उन्हें टॉर्चर किया जाता है। इसके उलट इजराइल का प्रशासन यह कहता है कि आईएसआईएस आतंकी गतिविधियों में बच्चों एवं किशोरों का इस्तेमाल करने की वजह से ऐसे कदम उठाए जाते हैं। वैसे इस्लामिक उग्रवाद द्वारा ऐसा ही  हथकंडा आपने कश्मीर में भी देखा होगा । 
     कहने को तो यरूशलम एक पवित्र धरती है और इस पवित्र धरती पर फादर अब्राहिम इसराइल और मोहम्मद साहब के स्वर्गारोहण की मान्यता है  अर्थात अब्राहिमिक- धर्म के तीनों संप्रदाय यहूदी क्रिश्चियनिटी इस्लाम  के लिए यह शहर आस्था का सबसे बड़ा केंद्र है। वर्तमान में जेरूसलम के प्रशासन के लिए ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है जो इस शहर को सुरक्षित रख सके परंतु इजराइल का इस पर कब्ज़ा बढ़ता जा रहा है ।यही सबसे बड़ी विवाद की परिस्थिति है। 
     फिलिस्तीन तथा इजरायल के बीच किसी बड़े युद्ध की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता। इस संबंध में भारत का अगला कदम क्या होगा यह देखने वाली बात होगी। अंतरराष्ट्रीय बिरादरी मैं भारत की भूमिका को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक परिस्थितियां इस युद्ध को टालने का मन बना चुकी है। हमास संगठन के लोगों द्वारा यह आक्रमण किया है जिस के प्रत्युत्तर में हमास के कई महत्वपूर्ण ठिकानों पर इजराइल ने घातक प्रभाव शाली हमले किए हैं और उससे अंततः नुकसान फिलिस्तीन का ही हुआ है।
   अल अक्सा मस्जिद से शुरू हुए इस विवाद के संबंध में अरब देशों से अब तक कोई वर्जन नहीं आना भी उल्लेखनीय स्थिति है। जानकारों का और मेरा स्वयं यह विचार है कि संभवत ओआईसी इस पर विशेष ध्यान नहीं देंगे। यद्यपि इसके उलट भी कार्य हो सकता है परंतु यह सब अरब देशों की नीति पर निर्भर करेगा। फिलिस्तीनी राष्ट्रवादीयों के विरुद्ध इस वक्त यहूदियों की ताकत अर्थात इजराइल की ताकत और यूरोप का समर्थन आगे देखने को मिल सकता है। फल स्वरुप परिस्थिति में आमूलचूल परिवर्तन संभव है।  लगभग 2000 साल पहले यहूदियों के साथ यूरोप एवं 1400 बरस पूर्व इस्लाम की उत्पत्ति के उपरांत पहले परिस्थितियों को देखकर वर्तमान में स्थिति पहली बार कुछ इस तरह निर्मित हुई है कि यूरोप और इजराइल एक साथ है अर्थात यहूदी और क्रिश्चियनिटी के मध्य जुड़ाव की स्थिति देखी गई है। ऐसी स्थिति में गाजा पट्टी पर संपूर्ण प्रभाव एवं व्यवस्थापन की जिम्मेदारी इजराइल को मिल सकती है। साथ ही यरुशलम का प्रबंधन भी इसराइल के हाथों में मिलने की पूरी पूरी संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता । परंतु अंतरराष्ट्रीय संबंधों को बनते बिगड़ते देर नहीं होती इस सिद्धांत को देखा जाए तो अनिश्चितता फिर भी शेष रहेगी।
                     टर्की का सुर ओ आई सी को उकसाने के  बोल, बोल  रहा है.                            

2.5.21

बृहदत्त वध

बृहदत्त-वध 
   ईसा के 185 वर्ष पूर्व मगध में
बृहदत्त के शासनकाल में पुष्यमित्र को प्रियदर्शी अशोक के सिद्धांतों पर का गलत तरीके से बनाए गए नियमों एवं उनके क्रियान्वयन पर आपत्ति थी । सेना के लिए पर्याप्त धन कोषागार से ना मिलना उन्हें बहुत अखर जाता था, पुष्यमित्र का विधायक तब भी दिन हो जाता था  जब अनावश्यक रूप से सेना के व्यय से कटौती करके स्वर्ण मुद्राएं मठों को दी जाती थीं। अन्य मंत्रियों को भी अपने-अपने विभाग के कार्य संचालन के लिए यही समस्या बहुधा खड़ी हो जाती थी। परंतु बृहदत्त के समक्ष विरोध करने का किसी में साहस नहीं था। साहस तो मात्र एक व्यक्ति में था , वह था पुष्यमित्र ।
   ब्राम्हण वेद के साथ विधान के साथ सामान्यतः खड़ग नहीं उठाते खडग उठाएं लेकिन जब राष्ट्र के अस्तित्व का प्रश्न उठता है राष्ट्र के अस्तित्व को बचाने के लिए विप्रो को तलवार उठानी पड़ती है । राज निष्ठा और राष्ट्र निष्ठा दो अलग-अलग पहलू है।
   चाणक्य को यह नहीं मालूम था कि भविष्य का कोई ब्रहदत्त किसी विप्र के गुस्से का शिकार होगा ! राष्ट्र के धर्म को बचाने के लिए एक और ब्राम्हण को खडग उठाना होता है । 
     इसका प्रमाण जानने के लिए  आप सांची के स्तूपों पर ध्यान दीजिए ये स्तूप अभी के नहीं है यह बौद्ध स्तूप शुंग वंश के दौर मैं ही संरक्षित किए गए  हैं। मध्यप्रदेश में रहने वाले तथा इस लेख को पढ़ने वाले समझ गए होंगे कि पुष्यमित्र शुंग के बारे में जितना नकारात्मक कहा गया है वह एक तरफा नैरेटिव है। पुष्यमित्र शुंग बृहदत के खिलाफ था ना कि महात्मा बुद्ध की परंपरा के। कुछ ग्रंथों एवं इतिहास में जो भी लिखा हो उससे तनिक दूर हट के इस सवाल का उत्तर दीजिए क्या बौद्ध मठों में यूनान के जासूसों को शरण देना ठीक था..? 
    
पटना को जानते हैं वही जिसे बिहार की राजधानी और प्राचीन काल में पाटलिपुत्र कहते थे ।  मौर्य वंश के महान प्रतापी राजा चंद्रगुप्त मौर्य से लेकर बृहदत्त तक बहुत बड़ी कहानियां लिखी गईं ।  मौर्य वंश के प्रतापी राजाओं की सम्राट अशोक भी थे और बहुत सारे राजा जिन्होंने मगध पर शासन किया और उस वक्त मगध पर शासन अर्थात अखंड भारत का सम्राट हो जाना ही तो था। 16 महाजनपदों में सबसे बलवान समृद्ध और शक्तिमान मगध ही तो था। परंतु यह क्या अचानक नदियों के किनारे से आदित्य स्त्रोत की आवाजें आनी बंद हो गईं। मंदिरों से वेद मंत्रोच्चार ना सुनकर सेनापति पुष्यमित्र के मन में हलचल पैदा हो गई। फिर पुष्यमित्र भूल गए कुछ समय के लिए। तभी एक गुप्तचर ने आकर सूचना दी सेनापति जी आपने पूछा था ना कि आदित्य स्त्रोत भूल रहा हूं नदी के तटों से आवाज नहीं आ रही शिव महिम्न स्त्रोत भी नहीं सुनाई देती है अब इसकी वजह जानना चाहेंगे ?
पुष्यमित्र चकित होकर गुप्तचर को देखते रहे।
  और फिर बोल पड़े हां बताओ क्या वजह है ?
सेनापति जी मठों में यूनान से आए लोग जो आम जनता नहीं है बल्कि गुप्तचर है निवास कर रहे हैं
दीर्घ सांस छोड़ते हुए पुष्यमित्र ने कहा- ठीक तो है महात्मा बुद्ध के संदेश यवनों को कुछ आचरण सिखा देंगे सीखने दो रहने दो. और मठों में उनके निवास करने से शिव महिम्न स्त्रोत और आदित्य स्त्रोत का क्या लेना देना बच्चों जैसी बात कर रहे हैं गुप्तचर आप तो ?
गुप्तचर- नहीं सेनापति जी, आप विषय की गंभीरता से दूर है मैं यह नहीं कह रहा हूं की यूनानी यात्री कहां रुकें कहां ना रुकें ..? परंतु जो स्थिति है वह राष्ट्र की अस्मिता पर हमला होने जा रहा है। यूनानी लोग महाराज बृहदत्त के विरुद्ध वातावरण निर्माण कर रहे हैं।
आप विश्वास करें या ना करें हो सकता है कि मैंने गलत देखा हूं परंतु अगर एक बार आप इसका परीक्षण करा लेते तो बेहतर होता।
    पुष्यमित्र बहुत देर तक अपने महल में बेचैन से घूमते रहे और विश्वास नहीं कर पा रहे थे कि ये मठ सिहासन के पायदान कमजोर करने की तैयारी में लिप्त हो गए हैं। अचानक पुष्यमित्र कुछ विश्वसनीय लोगों को बुलाते हैं और कई मठों में उन्हें भिक्षुक बना कर भेजते हैं। एक टीम के साथ वे खुद भी जाते हैं। इस बात का खास ध्यान रखा गया कि जिन मठों में यूनानी लोग रुके हैं उनसे ज्यादा से ज्यादा संपर्क में रह जाए। बहुत जल्दी ही कहानी स्पष्ट हो गई और पता चला कि निकट भविष्य में कोई बड़ी सेना यूनान से भारत आएगी और अखंड भारत का यह महत्वपूर्ण महाजनपद उनके दासता में होगा...!
     पुष्यमित्र से रहा न गया वे तुरंत ही बृहदत्त से मिलना चाहते थे। परंतु वे जानते थे कि महाराज समय भोग विलासी शाम के बाहु पास में बंद होंगे। अगले दिन प्रातः काल की संपूर्ण जानकारी के साथ दरबार में पहुंचे तो पता चला कि महाराज आज भी दरबार में नहीं आए और ना ही आएंगे।
   सैनिकों के वेतन पर कटौती एवं सैन्य में कमी का वस्त्र पत्र देखकर सिर से पांव तक क्रोध की अग्नि के संचार का एहसास करते हुए पुष्यमित्र अब रुकने वाले कहां थे। हाथों में खड़ग लिखकर दरबार से सीधे राजमहल की ओर चल पड़े जहां से उन्हें वापस लौटना पड़ा। तीसरे दिवस में राजा सी भेंट हो सकी वह भी दरबार में बहुत इंतजार किया था दरबारियों ने उनके साथ और राजा से मिलते ही पुष्यमित्र ने अपनी समस्या बता दी। परंतु राजा ने ना तो सैनिकों की पगार में कटौती को वापस लिया नाही सैन्य बल में कमी के आदेश को बदलने की कोई पहल की थी। तब भरी सभा में इस बात का रहस्योद्घाटन करना पड़ा कि किसी भी वक्त यूनान की सेना भारत पर आक्रमण कर सकती है। और इस बात के सबूत भी प्रस्तुत किए गए।
बृहदत्त ने अट्टहास करते हुए कहा कि आप अनावश्यक भ्रमित है ऐसा कुछ नहीं हो सकता। हमें लगता है कि आपके मस्तिष्क पर किसी ने वैदिक मंत्रों और ऋचाओं से आक्रमण आप जाएं और बच्चों को जातक कथाओं की जानकारी दें अनावश्यक राष्ट्र की चिंता ना करें।
   खून का घूंट पीकर पुष्यमित्र वापस अपने महल में आए। और फिर अचानक उन्होंने सेना को टुकड़ियों में तैयार रहने को कहा और उन मठों में प्रवेश किया जहां पर यूनानी जासूस मौजूद थे।
लगभग 40 से 50 बंदी बनाए गए साक्ष्य सहित दरबार में जब बंदियों सहित पुष्यमित्र शुंग उपस्थित हुए तब बृहदत्त आक्रोश में आ गए।
  बृहदत्त : पुष्यमित्र आप अपनी सीमाओं को पार कर रहे हैं राजआज्ञा के विरुद्ध आपने राजा की सहमति के बिना यह कार्य किया है यह दंडनीय है।
पुष्यमित्र - मान्यवर हम इस देश के प्रति वफादार हैं
बृहदत्त : और राजा के लिए
पुष्यमित्र : राष्ट्र सर्वोपरि है शायद आप नहीं अगर आप राष्ट्र के विरोध में काम करेंगे तो। राष्ट्रीय जनता से बनता है आप तो बस सेवक हैं मेरी तरह। हे राजन यह किसी भी तरह आपके लिए अपमान कारक कार्य नहीं है जो मैंने किया अपमान तो तब होता जब यूनान की सेना आप को बंदी बना कर ले जाती।
बृहदत्त: सेनापति पुष्यमित्र तुम अपनी हदें पार कर रहे हो। मुझे लगता है राज्य के प्रति तुम्हारी निष्ठा समाप्त प्रतीत होती है। क्यों ना मैं तुम्हें कारागार में डलवा दूं अभी भी वक्त है यूनानी बौद्ध भिक्षुओं को छोड़ दीजिए। यह राजाज्ञा है 
पुष्यमित्र शुंग : महाराज मेरे पास पर्याप्त सबूत है और जनता के प्रति मेरा उत्तरदायित्व है आप भले ही प्रमाद में डूबे रहे परंतु मैंने यह भी जानकारी हासिल कर ली है कि आप केवल एक धर्म सापेक्ष और सेना का अपमान करने वाले राजा सिद्ध हो गए हैं। आपने मठों को अकारण ही बहुत सारा धन दिया है। जनता के श्रम पसीने से श्रेणिकों  के श्रम से अर्जित धन से प्राप्त कराधान राशि का दुरुपयोग किया है।
मान्यवर यह बताएं कि आपने कितने गुरुकुलों को धन दिया है कितने जैन मंदिरों को टूटने से बचाया है कितने वेदाश्रमों को आपने राजाश्रय दिया है। राजन आपका यह एकपक्षीय व्यवहार मगध की जनता को दुखी कर रहा है।
     इतना सुनना था कि बृहदत्त ने म्यान से तलवार निकाली और झपट पड़े पुष्यमित्र शुंग पर आक्रामक होकर। सेनापति पुष्यमित्र शरीर पर तलवार का प्रहार रक्त की एक लकीर दरबार में सबने देखी। और फिर क्या था पुष्यमित्र शुंग के अंतस बैठा परशुराम जाग उठे और आत्मरक्षा के लिए ही नहीं बल्कि मगध की रक्षा के लिए पुष्यमित्र ने गंभीर प्रहार करके विलासी एवं अल्पज्ञ प्रशासन संरक्षक बृहदत्त को समाप्त कर दिया।
     इसके साथ ही शुरू हुआ शुंग वंश का मगध राज। विशुद्ध रूप से ब्राह्मणों का राज परंतु अधिकार किसी के नहीं छीने गए
विदिशा का बौद्ध स्तूप के सुधार कार्य एवं उसके विस्तार के लिए  सबसे पहले राजकोष से राशि आवंटित की गई। और फिर सभी मतों संप्रदायों के साथ वैदिक धर्म के उत्थान के लिए कार्य प्रारंभ हुए।

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