Ad

सामाजिक लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
सामाजिक लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

रविवार, जून 19, 2011

भ्रष्टाचार कोई राजनैतिक मुद्दा नहीं वो सच में एक सामाजिक विषय है.


इस कुत्ते से ज़्यादा समझदार कौन होगा जो अपने मालिक के दक्षणावर्त्य को खींच रहा है ताकि आदमी सलीब पे लटकने का इरादा छोड़ दे. वरना आज़कल इंसान तो "हे भगवान किसी का वफ़ादार नहीं !"
इस चित्र में जो भी कुछ छिपा है उसे कई एंगल से देखा जा सकता है आप चित्र देख कर कह सकते हैं:-

  1. कुत्ते से बचने के लिये एक आदमी सूली पे लटकना पसंद करेगा..!
  2. दूसरी थ्योरी ये है कि कुत्ता नही चाहता कि यह आदमी सूली पे लटक के जान दे दे  
  3. तीसरा कुत्ता आदमी के गुनाहों की माफ़ी नहीं देना चाहता
  4. चौथी बात कुत्ता चाहता है कि इंसान को सलीब पर लटक के जान देने की ज़रूरत क्या है... जब ज़िंदगी खुद मौत का पिटारा है
                   तस्वीर को ध्यान से देखते ही आपको सबसे पहले हंसी आएगी फ़िर ज़रा सा गम्भीर होते ही आपका दिमाग  इन चार तथ्यों के इर्द गिर्द चक्कर लगाएगा मुझे मालूम है.
                     हो सकता है कि आप रिएक्ट न करें यदी आप रिएक्ट नहीं करते हैं तो यक़ीनन आप ऐसे दृश्यों के आदी हैं या आप को दिखाई नहीं देता. दौनों ही स्थितियों में आप अंधे हैं. यही दशा समूचे समाज की होती नज़र आ रही है. रोज़ सड़कों पर आपकी कार के शीशे पर ठक ठक करता बाल-भिक्षुक आपको नज़र नहीं आता. न ही आपकी नज़र पहुंच पाती है होटलों ढाबों में काम करते बाल-श्रमिकों पर. रामदेव,  चिंता यही है कि यथा संभव ज़ल्द ही देश का धन देश में वापस आ जाये ताक़ि भारतीय अर्थतंत्र में वो रौनक लौटे जो कभी हुआ करती थी. कितने बच्चे बिना पढ़े जवान हो जाते हैं, कितनी लड़कियां कच्ची उमर में ब्याह दी जातीं हैं. कितनी बहुएं दहेज़ की बलि चढ जातीं हैं... कितने कुंए, तालाब पटरियां नवजात बच्चों के खून से सिंचतीं हैं... कितनी बार कीमतें अचानक आग सी बढ़ जातीं हैं...? ये है मुद्दे क्रांति के जिनको हम अनदेखा करते जा रहे हैं . इन पर हो प्रभावी जनक्रांति पर होगी नहीं .
    भ्रष्टाचार कोई राजनैतिक मुद्दा नहीं वो सच में एक सामाजिक विषय है... क्योंकि कुछ बरसों पूर्व तक बेटी ब्याहने निकला पिता यही देखता था कि प्रत्याशी की ऊपरी कमाई भी हो. यानी भ्रष्टाचार हमारी घुट्टी में पिलाया गया है. यह एक सामाजिक मुद्दा है इसे हम आप ही हल कर सकतें हैं.तो आओ न हाथ बढ़ाओ न नई क्रांति के लिये एक हो जाओ न ... देर किस बात की है उठो भाई ज़ल्द उठो !                     

गुरुवार, मई 19, 2011

विधवाओं के सामाजिक धार्मिक सांस्कृतिक अधिकारों को मत छीनो


एडवोकेट दिनेश राय द्विवेदी जी के ब्लाग
तीसरा खम्बा से आभार सहित  
साभार "जो कह न सके ब्लाग से "

                   विधवा होना कोई औरत के द्वारा किया संगीन अपराध तो नहीं कि उसके सामाजिक और धार्मिक अधिकारों से वंचित किया जाए.अक्सर शादी विवाहों में देखा जाता है कि विधवा की स्थिति उस व्यक्ति  जैसी हो जाती है जिसने कोई गम्भीर अपराध किया हो. जैसे तैसे अपने हौसलों से अपने बच्चों को पाल पोस के सुयोग्य बनाती मां को शादी के मंडप में निभाई जाने वाली रस्मों से जब वंचित किया जाता है तब तो स्थिति और भी निर्दयी सी लगती है. किसी भी औरत का विधवा होना उसे उतना रिक्त नहीं करता जितना उसके अधिकारों के हनन से वो रिक्त हो जाती है. मेरी परिचय दीर्घा में कई ऐसी महिलाएं हैं जिनने अपने नन्हें बच्चों की देखभाल में खुद को अस्तित्व हीन कर दिया. उन महिलाओं का एक ही लक्ष्य था कि किसी भी तरह उसकी संतान सुयोग्य बने. आखिर एक भारतीय  मां को इससे अधिक खुशी मिलेगी भी किस बात से.  दिवंगत पति के सपनों को पूरा करती विधवाएं जब अपने ही बच्चों का विवाह करतीं हैं तब बेहूदी सामाजिक रूढि़यां उसे मंडप में जाने से रोक देतीं हैं. जब बच्चों को वो सदाचार का पाठ पढ़ाते हुए योग्य बना रही होतीं हैं ये विधवा माताएं तब कहां होते हैं सामाजिक क़ानून के निर्माता जो ये देख सकें कि एक नारी पिता और माता दौनों के ही रूप में कितना सराहनीय काम कर रही है. वे औरतें जो "सधवा" होने के नाम पर विधवा माताओं को मंडप से परे ढकेलतीं हैं क्या कभी उनकी सोच में आता है कि किसी "नारी" के प्रति अपराध कर रहीं हैं वो..? नहीं ऐसा शायद ही कोई सोचती होगी. 
                               पाखण्ड भीरू समाज के पुरुष विधवा नारी को जिस नज़रिये से देखतें हैं इस बात पर गौर कीजिये तो पाएंगे कि बस शोषण के लिये तत्पर कोई भयावह रूप नज़र आएगा आपको. कम ही लोग होंगे जो विधवा नारी के सम्मान को बनाए रखने सहयोगी हों, कम ही होंगे जो उसके सामाजिक धार्मिक सांस्कृतिक अधिकारों को बचाना चाहते हैं. हम में से कई तो ऐसे भी हैं जो आज़ के बदलते परिवेश में विधवा को सफ़ेद कपड़ों में  ही देखना चाहते हैं. मेरी दादी मेरी समझ विकसित होने से पहले चल बसी वरना उस दौर में उनके बाल मुंडवाने का विरोध अवश्य करता. शायद नाई को लताड़ता भी. मुझे कुछ कुछ याद है सत्तर पचहत्तर बरस की बूड़ी दादी मां के सर से बाल मुंडवाए जाते थे . दादी मां खुद भी ऐसा चाहतीं थीं. परंतु अब ऐसी  स्थिति कम ही देखने को मिलती है. सामाजिक परिस्थितियों में  बदलाव आ रहा है  पर सामाजिक-सोच में बदलाव नहीं आया है. आज़ भी विधवा के अधिकारों के मामले में सामाजिक स्थिति में कोई खास बदलाव नहीं आया है. खासकर मध्य वर्ग जिस अधकचरे चिंतन से गुंथा है उससे निकलना ही होगा. 
     मुझे नहीं लगता भारतीय सामाजिक व्यवस्था में तब तक विधवा महिला को उसके सामाजिक धार्मिक सांस्कृतिक अधिकार हासिल नहीं होंगे जब तक कि घर के बच्चे खुद पूरी ताक़त से इस अधिकारों की रक्षा के लिये आगे न आएंगें .     

बुधवार, दिसंबर 01, 2010

सबसे लचीली है भारत की धर्मोन्मुख सनातन सामाजिक व्यवस्था

साभार: योग ब्लाग से


बेटियों को अंतिम संस्कार का अधिकार क्यों नहीं..? के इस सवाल को गम्भीरता से लिये जाने की ज़रूरत है. यही चिंतन सामाजिक तौर पर महिलाऒं के सशक्तिकरण का सूत्र पात हो सकता है. क़ानून कितनी भी समानता की बातें करे किंतु सच तो यही है कि "महिला की कार्य पर उपस्थिति ही " पुरुष प्रधान समाज के लिये एक नकारात्मक सोच पैदा कर देती है. मेरे अब तक के अध्ययन में भारत में वेदों के माध्यम से स्थापित की गई  की व्यवस्थाएं लचीली हैं. प्रावधानों में सर्वाधिक विकल्प मौज़ूद हैं. फ़िर भी श्रुति आधारित परम्पराओं की उपस्थिति से कुछ  जड़ता आ गई जो दिखाई भी देती है. सामान्यत: हम इस जड़त्व का विरोध नही कर पाते
  1. रीति-रिवाज़ों के संचालन कर्ता घर की वयोवृद्ध पीढी़, स्थानीय-पंडित, जिनमें से सामन्यत: किसी को भी वैदिक तथा पौराणिक अथवा अन्य किसी ग्रंथ में उपलब्ध वैकल्पिक प्रावधानों का ज्ञान नहीं होता. 
  2. नई पीढ़ी तो पूर्णत: बेखबर होती है. 
  3. शास्त्रोक्त प्रावधानों/विकल्पों की जानकारीयों से सतत अपडेट रहने के लिये  सूचना संवाहकों का आभाव होता है. 
  4. वेदों-शास्त्रों व अन्य पुस्तकों का विश्लेषण नई एवम बदली हुई परिस्थियों में उन पर सतत अनुसंधानों की कमीं. 
  5. विद्वत जनों में लोकेषणाग्रस्त होने का अवगुण का प्रभाव यानी अधिक समय जनता के बीच नेताओं की तरह भाषण देने की प्रवृत्तियां.स्वाध्याय का अभाव 
                       उपरोक्त कारणों से कर्मकाण्ड में नियत व्यवस्थाओं के एक मात्र ज्ञाता होने के कारण पंडितों/कुटुम्ब के बुजुर्गों की आदतें  परम्पराओं को जड़ता देतीं हैं. उदाहरण के तौर पर स्वास्थ्य सम्बंधी विज्ञान जन्म के तुरंत बाद बच्चे को स्तन-पान की सलाह देता है, घर की बूढ़ी महिला उसकी घोर विरोधी है. उस महिला ने न तो वेद पढ़ा है न ही उसे चिकित्सा विज्ञान की सलाह का अर्थ समझने की शक्ति है बल्कि अपनी बात मनवाने की ज़िद और झूठा आत्म-सम्मान पुत्र-वधू को ऐसा कराने को बाध्य करता है. आप बताएं कि किस धर्मोपदेशक ने कहां कहा है कि :- ”जन्म-के तुरन्त बाद  स्तन पान न कराएं. और यदि किसी में भी ऐसा लिखा हो तो प्रमाण सादर आमंत्रित हैं. कोई भी धर्म-शास्त्र /वेद/पुराण (यहां केवल हिंदू सामाजिक व्यवस्था के लिये तय नियमों की चर्चा की जा रही है अन्य किसी से प्रमाण विषयांतरित होगा ) किसी को जीवन की मूल ज़रूरतों से विमुख नहीं करता.
       परिवार में मेरे चचेरे भाई के जन्म के समय जेठानियों की मर्यादा का पालन करते हुए मां ने नवज़ात शिशु को स्तन पान विरोध कर रही जेठानियों को बातों में उलझा कर करवाया घटना का ज़िक्र ज़रूरी इस लिये है कि सकारात्मक-परिवर्तनों के लिये सधी सोच की ज़रूरत होती है. काम तो सहज सम्भव हैं. 
    मृत्यु के संदर्भ में मां ने अवसान के एक माह पूर्व परिवार को सूचित किया कि मेरी मृत्यु के बाद घर में चावत का प्रतिषेध नहीं होगा. मेरी पोतियां चावल बिना परेशान रहेंगी. उनके अवसान के बाद प्रथम दिन जब हमारी बेटियों के लिये चावल पकाये गए तो कुछ विरोध हुआ तब इस बात का खुलासा हम सभी ने सव्यसाची  मांअंतिम इच्छा के रूप में किया. 
The Blind SideDecision Points    यहां आपको एक उदाहरण देना ज़रूरी है कि भारतीय धर्म- आधारित सामाजिक व्यवस्था में आस्था हेतु प्रगट  की जाने वाली ईश्वर-भक्ति के  तरीकों में जहां एक ओर कठोर तप,जप,अनुष्ठान आदि को स्थान दिया है वहीं नवदा-भक्ति को भी स्थान प्राप्त है. यहां तक कि "मानस-पूजा" भी प्रमुखता से स्वीकार्य कर ली गई है.   आप में से अधिकांश लोग इस से परिचित हैं 
"रत्नै कल्पित मासनम 
हिम-जलयै स्नान....च दिव्याम्बरम ना रत्न विभूषितम ."
              अर्थात भाव पूर्ण आराधना जिसे पूरे मनोयोग से पूर्ण किया जा सकता है क्योंकि इस आराधना में भक्त ईश्वर से अथवा किसी प्रकोप भयभीत होकर शरण में नहीं होता बल्कि नि:स्वार्थ भाव से भोले बच्चे की तरह आस्था व्य्क्त कर रहा होता है. 
                         जीवन के सोलहों संस्कारों में वेदों पुराणों का हस्तक्षेप न्यूनतम है. जिसका लाभ उठाते हुए समकालीन परिस्थितियों के आधार पर अंतर्नियम बनाए जाने की छूट को भारतीय धर्मशास्त्र बाधित नहीं करते . मेरे मतानुसार  सबसे लचीली है भारत की धर्मोन्मुख सनातन सामाजिक व्यवस्था
वेद और पुराण /अभिव्यक्ति पर एक महत्वपूर्ण-जानकारी :- विरासत बना ऋग्वेद
 

Ad

यह ब्लॉग खोजें

मिसफिट : हिंदी के श्रेष्ठ ब्लॉगस में