कार्टूनिस्ट इरफ़ान |
अराजक- व्यवस्थाओं के खिलाफ़ समुदाय के तेवर को कम आंकना किसी भी स्थिति में किसी भी देश के लिये आत्मघात से कम नहीं है. आज के दौर में विश्व का कोना कोना सूचना क्रांति की वज़ह से एक सूत्र में बंधा नज़र आता है तब तो शीर्षवालों को सतह की हर हलचल पर निगाह रखनी ज़रूरी है. सबकी बात समझ लेने वाली इंद्रियों को सक्रिय करना ही होगा. मेरे प्रिय प्रोफ़ेसर (डा.) प्रभात मिश्र कहते थे -"जो सतह में चल रहा है उसका अनुमान लगाओ तो सही रिज़ल्ट पर पहुंच जाओगे.." प्रभात सर ने कहा तो मुझसे था पर सम-सामयिक बन गया है यह वाक्यांश ... शीर्षवालों के लिये .
कृष्ण कालीन महाभारत आप को याद है न .. जो युद्ध न था . बस क्रांति थीं.. हां इनमे कृष्ण थे अवश्य पर वो कृष्ण जो लक्ष्य थे विचार थे चिंतन थे...जिसे आप गीता कहते हैं उनके पीछे चल पड़ा था समुदाय परंतु अब बिना कृष्ण यानी नेतृत्व के, केवल लक्ष्य को अपना अगुआ मानके चलेगा समुदाय. चल भी रहा है.
अब क्रांतियों का स्वरूप सहज ही बदल रहा है. सर्वमान्य नेतृत्व की अपेक्षा क्रांतियां लक्ष्य को ही अपने आगे रखने लगीं हैं. लक्ष्य ऐसा जो अंतरआत्मा में बेचैनी भरता है. यही बेचैनी क़दम उठाने मज़बूर करती है. कई सवाल लिखने को बाध्य कर देतीं हैं ये बेचैनियां.. ! मेरे विचारक मित्र लिमिटि खरे बेचैन हैं कई तरह के सीधे सवाल करतें हैं सियासत से .और व्यवस्था से किंतु जवाब गुम हैं.
कृष्ण कालीन महाभारत आप को याद है न .. जो युद्ध न था . बस क्रांति थीं.. हां इनमे कृष्ण थे अवश्य पर वो कृष्ण जो लक्ष्य थे विचार थे चिंतन थे...जिसे आप गीता कहते हैं उनके पीछे चल पड़ा था समुदाय परंतु अब बिना कृष्ण यानी नेतृत्व के, केवल लक्ष्य को अपना अगुआ मानके चलेगा समुदाय. चल भी रहा है.
अब क्रांतियों का स्वरूप सहज ही बदल रहा है. सर्वमान्य नेतृत्व की अपेक्षा क्रांतियां लक्ष्य को ही अपने आगे रखने लगीं हैं. लक्ष्य ऐसा जो अंतरआत्मा में बेचैनी भरता है. यही बेचैनी क़दम उठाने मज़बूर करती है. कई सवाल लिखने को बाध्य कर देतीं हैं ये बेचैनियां.. ! मेरे विचारक मित्र लिमिटि खरे बेचैन हैं कई तरह के सीधे सवाल करतें हैं सियासत से .और व्यवस्था से किंतु जवाब गुम हैं.
पता नहीं क्या हो गया है रहनुमाओं को ..आम आदमी के दर्द की समझ कब आएगी ...? कुछ खास नहीं मांगता भारतीय उसकी अपनी छोटी आशाएं हैं उसकी अपनी छोटी छोटी ज़रूरतें हैं जैसे कीमतें स्थिर रखो. अनाधिकृत दबाओ मत, गुमराह मत करो, चैन से जीने दो .. पर पता नहीं क्या हुआ है व्यवस्था को जो अपना कार्य-दायित्व भूल के अन्य बातों के प्रबंधन में जुटी है.
शीर्ष पर आसीनों को यह लगता है कि समुदाय शून्य हो चुका है.. वास्तव में ऐसा है नहीं शून्य नहीं होता समुदाय .. शांत अवश्य होता है पर नदी के उस भाग की कल्पना कीजिये जिसके नीचे भयानक भंवर होती है परंतु उसी भंवरीले स्थान का बहाव सबसे शांत होता है जिसका आंकलन आप सहजता से नहीं कर पाते.
आप माने या न मानें दिल्ली वाली बेटी को लेकर पूरा देश बेचैन है. सब के मन में आक्रोष है इस आक्रोश को उकसाना अब अनुचित है.. सरकार तुरंत स्वीकारे मांग . हीला हवाली तर्क वितर्क अब अस्वीकार्य ही होंगे. लोग हर हालत में त्वरित परिणाम चाह रहे हैं.
शीर्ष पर आसीनों को यह लगता है कि समुदाय शून्य हो चुका है.. वास्तव में ऐसा है नहीं शून्य नहीं होता समुदाय .. शांत अवश्य होता है पर नदी के उस भाग की कल्पना कीजिये जिसके नीचे भयानक भंवर होती है परंतु उसी भंवरीले स्थान का बहाव सबसे शांत होता है जिसका आंकलन आप सहजता से नहीं कर पाते.
आप माने या न मानें दिल्ली वाली बेटी को लेकर पूरा देश बेचैन है. सब के मन में आक्रोष है इस आक्रोश को उकसाना अब अनुचित है.. सरकार तुरंत स्वीकारे मांग . हीला हवाली तर्क वितर्क अब अस्वीकार्य ही होंगे. लोग हर हालत में त्वरित परिणाम चाह रहे हैं.