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सोमवार, जून 16, 2014

गृहणी श्रीमति विधी जैन के कोशिश से आयकर विभाग में हरक़त

        भारतीय भाषाओं के सरकारी एवम लोक कल्याणकारी , व्यावसायिक संस्थानों द्वारा अपनाने में जो  समस्याएं आ रही थीं वो कम्प्यूटर अनुप्रयोग से संबंधित थीं.  यूनिकोड की मदद से अब कोई भी हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं को प्रयोग में लाने से इंकार करे तो जानिये कि संस्थान या तो तकनीकि के अनुप्रयोग को अपनाने से परहेज कर रहा है अथवा उसे भारतीय भाषाओं से सरोकार नहीं रखना है. 
           भारतीय भाषाओं की उपेक्षा अर्थात उनके व्यवसायिक अनुप्रयोग के अभाव में गूगल का व्यापक समर्थन न मिल पाना भी भाषाई सर्वव्यापीकरण के लिये बाधक हो रहा है. ये वही देश है जहां का युवा विश्व को सर्वाधिक तकनीकी मदद दे रहा है. किंतु स्वदेशी भाव नहीं हैं.. न ही नियंताओं में न ही समाज में और न ही देश के ( निर्णायकों में ? ) बदलाव से उम्मीद  है कि इस दिशा में भी सोचा जावे. वैसे ये एक नीतिगत मसला है पर अगर हिंदी एवम अन्य भारतीय भाषाई महत्व को प्राथमिकता न दी गई तो बेतरतीब विकास ही होगा. आपको आने वाले समय में केवल अंग्रेज़ियत के और कुछ नज़र नहीं आने वाला है. हम विदेशी भाषाओं के विरुद्ध क़दापि नहीं हैं किंतु भारतीय भाषाओं को ताबूत में जाते देखने के भी पक्षधर नहीं. भारत का दुर्भाग्य ये ही है यहां रोटी के लिये अंग्रेज़ी, कानूनी मदद के लिये अंग्रेजी, चिकित्सा- अभियांत्रिकी , यानी सब के लिये अंग्रेज़ी सर्वोपरि है. 
    यानी स्वतंत्रता के बाद भारतीय भाषाओं के विकास तथा उनके प्रशासनिक क़ानूनी, चिकित्सकीय, व्यवसायिक अनुप्रयोग के लिये एक संपृक्त कोशिशें की हीं नहीं गईं. विश्वविद्यालयों विद्वतजनों से क्षमा याचना के साथ हम उनको उनकी भूलों की तरफ़ ले जाना चाहेंगे. कि उन्हौंने भारतीय भाषाई विकास को तरज़ीह नहीं दी यहां तक कि सर्वाधिक उपयोग में लाई जाने वाली हिंदी की उपेक्षा होते देखा वरना क़ानून चिकित्सा, प्रशासन, व्यवसाय, अर्थात सभी  भी विषयों की भाषा हिंदी होती.  
मुझे प्राप्त एक ई संदेश में हिंदी की प्रतिष्ठा के लिये संघर्षरत श्री मोतीलाल गुप्ता ने आज एक मेल किया  में एक सफ़ल कोशिश का विवरण दर्ज़ है. विवरण अनुसार मुम्बई निवासी एक गृहणी श्रीमति विधि जैन  ने एक आवेदन लिख कर आयकर विभाग को हिंदी के अनुप्रयोग को बढ़ावा देने की अपेक्षा विभाग से की गई. 
श्रीमति विधि जैन
मुम्बई निवासी श्रीमति विधि जैन की कोशिश को अब आकार मिल सकता है . उनके आवेदन पर  राजस्व विभाग, केन्द्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड के उपनिदेशक (राजभाषा) श्री आर.एन.त्रिपाठी, ने  समुचित कार्यवाही करने के निर्देश आयकर निदेशालय को दे दिए हैं।
                  अब द्विभाषी पैन कार्ड की सम्भावना प्रबल हो गई है. 


ऑनलाइन आयकर विवरणी भरने और जमा करने की सुविधा केवल अंग्रेजी में होने से आम जनता परेशान  होती रहती है और अब तक आयकर सम्बन्धी सारा काम सलाहकारों के भरोसे होता है, उसे पता ही नहीं चलता कि सलाहकार क्या कर रहा है? श्रीमती जैन ने बताया कि उन्होंने प्रधानमंत्री एवं वित्त मंत्री से मांग की है कि आयकर सम्बन्धी सभी ऑनलाइन सेवाएँ अविलम्ब राजभाषा हिन्दी में और आगे देश की सभी प्रमुख भाषाओं में उपलब्ध करवाने का अनुरोध किया है.
उन्होंने बताया कि उनका अगला लक्ष्य ऑनलाइन रेल टिकट बुक करने की सुविधा 10 प्रमुख  भारतीय भाषाओं में उपलब्ध करवाने के लिए अभियान चलाना है ताकि आम यात्रा बिना परेशानी के इस सेवा का लाभ उठा सके.


              

शुक्रवार, सितंबर 07, 2012

स्वतंत्रता और हिंदी : आयुषि असंगे

                      स्वतंत्रता और हिंदी विषय स्वयमेव एक सवाल सा बन गया है.  15 अगस्त 1947 के बाद हिंदी का विकास तो हुआ है किंतु हिंदी उच्च स्तरीय रोजगारीय भाषा की श्रेणी में आज तक स्थापित नहीं हो सकी. जबकि तेज गति से अन्य अंतर्राष्ट्रीय भाषाओं का विकास हुआ है उतनी ही तेजी से  स्वतंत्रता के पश्चात  हिंदी भाषा की उपेक्षा की स्थिति सामने आई है. जिसका मूल कारण है हिंदी को रोजगार की भाषा के रूप में आम स्वीकृति न मिलना. विकाशशील राष्ट्रों में उनके सर्वागीण विकास के लिये  भाषा के विकास को प्राथमिकता न देना एक समस्या है. हिन्दी ने आज जितनी भी तरक्की की है उसमें सरकारी प्रयासों विशेष रूप से आज़ादी के बाद की सभी भारत की केन्द्रीय सरकारों का योगदान नगण्य है. आज जहाँ विश्व की सभी बड़ी भाषायें अपनी सरकारों और लोगों के प्यार के चलते तरक्की कर रहीं है वहीं विश्व की दूसरी सबसे बड़ी भाषा हिन्दी अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है. 26 जनवरी 1950 को जब भारतीय संविधान लागू हुआ तब हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिया गया. पहले 15 साल तक हिन्दी के साथ साथ अंग्रेजी को भी राजभाषा का दर्जा दिया गया, यह तय किया गया कि 26 जनवरी 1965 से सिर्फ हिन्दी ही भारतीय संघ की एकमात्र राजभाषा होगी. 15 साल बीत जाने के बाद जब इसे लागू करने का समय आया तो तमिलों के विरोध के चलते प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने उन्हे यह आश्वासन दिया कि जब तक सभी राज्य हिन्दी को राष्ट्र भाषा के रूप मे स्वीकार नहीं करेंगे अंग्रेजी भी हिन्दी के साथ साथ राजभाषा बनी रहेगी. इसका अर्थ यह था कि अब अनंतकाल तक अंग्रेजी ही इस संघ की असली राजभाषा बनी रहेगी जबकि इसकी अनुवाद की भाषा हिन्दी उसी पिछली कुर्सी पर बैठी रहेगी.
आज आज़ादी के 62 वर्ष बीत जाने के बाद भी वही स्थिति बनी हुई है और हिन्दी को सच्चे अर्थों मे राजभाषा बनाने का कोई ठोस प्रयास सरकार की ओर से नहीं किया गया है. भारत सरकार ने हिन्दी के अनुसार भारत को तीन क्षेत्रों मे बाँटा है क क्षेत्र,ख क्षेत्र और ग क्षेत्र.
क क्षेत्र में - उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, दिल्ली, बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़, हरियाणा और अंडमान और निकोबार द्वीपसमूह आते है, संविधान के अनुसार केन्द्र सरकार को इन प्रदेशों से संबंधित सारा काम सिर्फ हिन्दी में ही करना होगा पर 1% मूल काम (अनुवाद नहीं) भी हिन्दी मे नहीं किया जाता.
हिमाचल प्रदेश, दिल्ली, हरियाणा और अंडमान और निकोबार द्वीपसमूह जैसे राज्य तो अपना सारा काम ही अंग्रेजी मे करते हैं, जबकि यहाँ हिन्दी का ना तो कोई विरोध है न ही हिन्दी जानने वाले लोगों की कमी. सबसे अजीब स्थिति तो हिमाचल प्रदेश और हरियाणा की है जो राज्य सिर्फ भाषाई आधार पर पंजाब से अलग हुये थे, आज जहाँ पंजाब का सारा काम पंजाबी मे किया जा रहा है वहीं उस से अलग हुये यह प्रदेश अंग्रेजी का इस्तेमाल करते हैं.
ख क्षेत्र में - महाराष्ट्र, गुजरात, अरुणाचल प्रदेश, पंजाब, जैसे क्षेत्र हैं, जहाँ हिन्दी का कोई विरोध नहीं है, संविधान के अनुसार इन प्रदेशों से संबंधित सारा काम केन्द्र सरकार को हिन्दी में ही करना होगा पर मूल पत्रों के साथ अंग्रेजी अनुवाद भी राज्य विशेष के माँगने पर उपलब्ध करवाया जायेगा पर स्थिति कमोबेश क क्षेत्र जैसी ही है.ग क्षेत्र मे बाकी सारे राज्य आते हैं और इनके संबंध मे तो केन्द्र सरकार हिन्दी के बारे में सोचती तक नहीं
                                       आज़ादी के बाद हिंदी को व्यापार की भाषा का दर्ज़ा न देना भी उसके विकास के प्रयासों पर विराम लगाता है. पर इससे उलट लेखक एवम पत्रकार श्री प्रमोद भार्गव का मानना उत्साहित कर रहा है वे अपने एक लेख में ओबामा के हिंदी के विकास में सहयोग को उल्लेखित करते हुए लिखतें हैं कि-
                               “    आम और खास आदमी की बोलचाल से लेकर जरुरत की भाषा हिन्दी है। जरुरत की इसी ताकत के बूते हिन्दी हाट - मण्डी, बाजार और हाइवे की भाषा बनी हुई है। यही आधार उसे विश्व में बोलचाल के स्तर पर दूसरी श्रेणी की भाषा बनाता है। इसी वजह से पूरी दुनिया में फैले हर तीसरा आदमी हिन्दी बोल व समझ सकता है। इन्हीं खूबियों के चलते अमेरिकी राष्टपति बराक ओबामा ने हिन्दी की वास्तविक ताकत को समझा और अपने देश की शालाओं में हिन्दी के पठन-पाठन के लिए जरुरी धनराशि उपलब्ध कराई। बहुसंख्यक आबादी की भाषा की यह बाहरी ताकत है। हिन्दी की अंदरुनी ताकत में अमेरिका के अतंराष्टीय स्तर पर व्यापारिक हित और आतंकवादी खतरों के बीच आंतरिक सुरक्षा के हित भी अंतनिर्हित हैं। बावजूद इसके फिलहाल हिन्दी इस शक्ति के साथ नहीं उबर रही की उसमें ‘ज्ञान का माद्दा’ है ? जब तक हिन्दी इस माद्दे से परिभाषित नहीं होगी देश-दुनिया में वह बगलें ही झांकती रहेगी।
         ओबामा सरकार अमेरिकी स्कूलों में हिन्दी पढ़ाये जाने के लिए जरुरी धन मुहैया करा रही है। अमेरिका को लग रहा है कि हिन्दी देश को आर्थिक मंदी से उबारने और राष्टीय सुरक्षा के लिए कवच साबित हो सकती है। इसके पूर्व इस दृष्टि से केवल चीनी और अरबी भाषाओं का ही बोलबाला था। अमेरिका में आतंकवादी हमले के बाद भय पैदा करने वाले इंटरनेट संदेशों की आमद बड़ी है। बड़ी संख्या में ये संदेश हिन्दी और उर्दु में होते हैं। स्वाभाविक है दोनों ही भाषाएं आम अमेरिकी नागरिक नहीं जानता। इसीलिए अमेरिका की सेना में इस समय सबसे ज्यादा हिन्दी व उर्दु के अनुवादकों की मांग है। जिससे यह साफ हो सके की जो संदेश आ रहे हैं उनमें अमेरिका की आतंरिक सुरक्षा से जुड़ा खतरा तो नहीं हैं। इस भय से अमेरिका इतना भयभीत है कि भाषा के अनुवादकों  को उनने छह माह के भीतर अमेरिकी नागरिकता दे देने का भी प्रलोभन दिया हुआ है। इस कारण यह राय भी बनती है की हिन्दी की महत्ता जरुरत की भाषा के साथ भय की भाषा बनने के कारण भी बढ़ रही है।
     कुल मिलाकर जो भाषा अपने देश में न तो पूरी तरह व्यापार की भाषा बन सकी न ही कानून अथवा रोजगार की भाषा न बन सकी उसके विकास के लिये दुनियां के दादा अमेरिका की तत्परता एक महत्वपूर्ण एवम चिंतनीय संदेश है.
 ( हिंदी पखवाडे के अवसर पर स्नातक विद्यार्थी आयुषि असंगे का आलेख इस  आलेख में हिंदी विक्कीपीडिया सामग्री प्राप्त की गई है. )

रविवार, अक्टूबर 10, 2010

कौन है जो

साभार :गूगल बाबा के ज़रिये 
कौन है जो
आईने को आंखें तरेर रहा है
कौन है जो सब के सामने खुद को बिखेर रहा है
जो भी है एक आधा अधूरा आदमी ही तो
जिसने आज़ तक अपने सिवा किसी दो देखा नहीं
देखता भी कैसे ज्ञान के चक्षु अभी भी नहीं खुले उसके
बचपन में कुत्ते के बच्चों को देखा था उनकी ऑंखें तो खुल जातीं थी
एक-दो दिनों में
पर...................?

गुरुवार, मार्च 06, 2008

"guest-corner" [अतिथि कोना]:[01]डाक्टर संध्या जैन "श्रुति"

इस पन्ने पे आपकी मुलाक़ात होगी महिला-साहित्यकारों से पहला क्रम जबलपुर की राष्ट्रपति पुरूस्कार प्राप्त शिक्षिका डाक्टर संध्या जैन "श्रुति" को समर्पित है समर्पित करने जैसी कोई बात है नही उनको आज मैंने बुलवाया सम्पूर्ण चर्चा के लिए ।
नेट से दूर रहने वाले जबलपुर के साहित्यकारों को वेब-डिजायनर,दस-बीस हजार का खर्चा बताते हैं कवि साहित्यकार कोई पूंजी-पति नही होता जो बेवजह वेब पर इतना भी खर्च करेगा क्यों....?
खैर छोडिए, आज इस कोने की अतिथि-लेखिका,को फिल्म-फेयर अवार्ड के दौरान प्रसिद्ध अभिनेताओं -के द्वारा हिंदी के प्रति अपमान जनक व्यवहार से क्षोभ है वही फिल्म-फेयर अवार्ड समारोह जिसमे हिंदी फिल्मों के गीतकार प्रसून जोषी ने अवार्ड पाने के बाद अंगरेजी में ही आभार व्यक्त किया।
डाक्टर जैन ने दो किताबें लिखी हैं "आकाश-से-आकाश तक" कथा संग्रह,मिलन,जबलपुर ने प्रकाशित की थी । चौबीस कहानियों में सभी कहानियाँ एक से बढकर एक हैं।
पूर्णिमा वर्मन जी ने मुझे दूर से.....[यानी शारजाह से ] दूर तक पहुँचने का रास्ता दिखाया "शायर-फेमिली" वाली श्रद्दा जैन , पारुल…चाँद पुखराज का वाली पारुल जी , सभी ने सहारा दिया अंतर जाल से जुडे रहने के लिए सव्य-साची का आशीषा जो हूं - जो कहानी कहते-कहते सो गयी माँ .....? मैं तो अपनी जिन्दगी में मातृ-शक्ति का ऋणी हूँ.... यदि महिला रचनाकारों के लिए जो भी कुछ कर रहा हूँ वो मेरा दायित्व है ...अस्तु अब आगे चलें Udan Tashtari जी की टिप्पणी से उत्साहित हूँ सो दीदी के बारे में आगे लिख रहा हूँ ..........
संध्या दीदी यदि वर्ष 1960 के अक्टूबर माह की पहली तारीख को जन्म न लेकर अगले दिन जन्मतीं तो दुनियाँ भर में गांधी जी के साथ उनका जन्म दिन भी मनाया जाता है....एम० ए० हिन्दी साहित्य,तथा परसाई पर डाक्टरेट पाने वाली संध्या जी की पहली कृति "आकाश से आकाश तक " में शुभ कामना में ज्ञानरंजन जी ने कहा कि -" इन कहानियों में एक ऐसी स्त्री हस्तक्षेप करती जिसके भीतर पुराना मर्म,भावनात्मकता,आदर्श और आवेग,संवेदनात्मक-विचलन कुछ बचा हुआ है,समाप्त नहीं हुआ...!
प्रथम कथा संग्रह में संध्या जी जो मध्यम दर्जे के शहर की,मध्यम-वर्गी , परिवार की पृष्ठ भूमि का गहरा प्रभाव ज्ञान जी ने देखा । साथ मध्य-वर्गीय केनवस् से मोह छोड़ने की सलाह देकर आश्वस्त करते हैं कि संध्या मोह छोड़ के प्रथम पंक्ति में आजाएंगी"
मेरी राय दादा ज्ञान जी से भिन्न है मैं न तो मध्यम वर्ग के प्रति पूर्वाग्रही हूँ और न ही पूर्वाग्रही होने की सलाह दूंगा ।
डाक्टर त्रिभुवन नाथ शुक्ल जी हिन्दी विभाग प्रमुख की पाठकों को सलाह "संक्रमण की स्थिति में श्रुति की कहानियों का स्वागत होगा "में दम लगती दिखाई देती है......!
प्रसिद्ध व्यंग्य कार श्रीराम ठाकुर "दादा" भी इनके लेखन को जिम्मेदारी भरा लेखन मानतें है.
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