रास्ते खोजते भीगते भागते, जिसके दर पे थे उसने
बचाया नहीं
कागज़ों पे लिखे गीत सी ज़िंदगी- जाने क्या क्या हुआ उस रात
में ?
तेज़ धारा बहा ले गई ज़िंदगी रेत से बह रहे थे नगर के नगर –
क्रुद्ध बूंदों ने छोड़ा नहीं एक भी, शिव की आखें खुलीं थी
उस रात में !
हर तरफ़ चीखतीं भयातुर देहों को तिनका भी मिला न था इक हाथ
में-
बोलिये क्या लिखें क्या सुनें क्या कहें- जो बचा सोचता ! क्यूं
बचा बाद में ?
जो कुछ भी हुआ था वज़ह हम ही थे- पर सियासत को मुद्दों पे मुद्दे
मिले.
इधर चैनलों पे बेरहम लोग थे, उधर गिद्धों से आदमी थे जुटे-
अंगुलियां काटकर मुद्रिका ले गये हाथ काटे गये चूड़ियों के लिये
निर्दयी लोगों के इस नगर में कहो क्या लिखूं, शब्द छुपते
हैं आघात में .
मत कहो गीत गीले होते नहीं, अबके गीले हुये हैं वो बरसात
में...