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आसान नहीं है ज्ञानरंजन होना..!

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"आसान नहीं है ज्ञानरंजन होना...!"      2008-2009 का कोई  दिन या उस दिन की कोई शाम होगी । एक स्लिम ट्रिम पर्सनालिटी से सामना हुआ । ऐसा नहीं कि उनसे पहली बार मिला मिलना तो कई बार हुआ.... पर इस बार सोचा कि इतना चुम्बकीय आकर्षण कैसे हासिल होता है । बहुत धीरे से पर घनेरी तपिश की पीढा सहकर ये बने हैं गोया ।    जी सत्य यही है ज्ञानरंजन आसानी से हर कोई ऐरागैरा बन ही नहीं सकता ।     101 रामनगर जबलपुर के दरवाजे पर कोई 144 नहीं लगी थी जब उनके घर गया था । बहुत खुल के बात हुई थी तब । अब कोविड के बाद कभी गया तो फिर से होगी एक मुलाक़ात उनसे । उनसे असहमत/सहमत होना मेरा अपना अधिकार है, इसे लेकर बहुतेरे नकली साहित्यिक जीवगण खासे चिंतित रहते हैं । सो सुनिए-ज्ञान जी क्या कहते हैं बकौल यशोवर्धन पाठक-"गिरीश की अपनी मौलिक चिंतनधारा तो है ।" उनके इस वक्तव्य से अभिभूत हूँ वैसे भी उनके चरणों की रज माथे पर लगाना मेरे संस्कार का हिस्सा हैं ।  अक्सर लोग ज्ञानजी की सहजता को समझने में भूल कर देते हैं । निलोसे जी मेरी बेटियों के मामाजी हैं.. वे अक्सर ज्ञान जी के व्यक्तित्व से मुझे परिचि

ज्ञानरंजन जी के घर से लौट कर

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                  ज्ञानरंजन जी   के घर से लौट कर बेहद खुश हूं . पर कुछ दर्द अवश्य अपने सीने में बटोर के लाया हूं . नींद की गोली खा चुका पर नींद न आयेगी मैं जानता हूं . खुद को जान चुका हूं . कि उस दर्द को लिखे बिना निगोड़ी नींद न आएगी .   एक कहानी उचक उचक के मुझसे बार बार कह रही है :- सोने से पहले जगा दो सबको . कोई गहरी नींद न सोये सबका गहरी नींद लेना ज़रूरी नहीं . सोयें भी तो जागे - जागे . मुझे मालूम है कि कई ऐसे भी हैं जो जागे तो होंगें पर सोये - सोये . जाने क्यों ऐसा होता है            ज्ञानरंजन   जी ने मार्क्स को कोट किया था चर्चा में विचारधाराएं   अलग अलग हों फ़िर भी साथ हो तो कोई बात बने . इस   तथ्य से अभिग्य मैं एक कविता लिख तो चुका था इसी बात को लेकर ये अलग बात है कि वो देखने में प्रेम कविता नज़र आती है :-  प्रेम   की   पहली   उड़ान     तुम   तक   मुझे   बिना   पैरों   के   ले    आई ..! तुमने   भी   था   स्वीकारा   मेरा   न्योत