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मंगलवार, मार्च 22, 2011

जबलपुरिया होली : ढोलक-मंजीरे की थाप तो गोया थम ही गईं

टिमकी वाली फ़ाग न सुन पाने का रंज गोलू भैया यानी
जितेंद्र चौबे को भी तो है  
                होली की हुल्लड़ का पहला सिरा दूसरे यानी आखिरी सिरे से बिलकुल करीब हो गया है यानी बस दो-चार घण्टे की होली. वो मेरा ड्रायवर इसे अब हादसा मानने लगा है. कह रहा था :-"बताईये, त्यौहार ही मिट गये शहरों का ये हाल है तो गांव का न जाने क्या होगा. " उसका कथन सही है. पर उसके मन में तनाव इस बात को लेकर था कि शुक्रवार  को मैने उसे समय पर नहीं छोड़ा. होलिका दहन के दिन वो चाह रहा था कि उसे मैं इतना समय दूं कि वो दारू-शारू खरीद सके समय रहते. मुन्नी की बदनामी पे नाचना या शीला की ज़वानी पर मटकना होगा... उसे. 
             यूं तो मुझे भी याद है रंग पंचमी तक किसी पर विश्वास करना मुहाल था दसेक बरस पहले. अगले दिन के अखबार बताते थे कि फ़ंला मुहल्ले में तेज़ाब डाला ढिकां मुहल्ले में चाकू चला.अपराधों का बंद होना जहां शुभ शगुन है जबलपुरिया होली के लिये तो दूसरी तरफ़ ढोलक-मंजीरे की थाप तो गोया थम ही गईं जिसके लिये पहचाना जाता था मेरा शहर अब बरसों से फ़ाग नहीं सुनी....इन कानों ने. अब केवल शीला मुन्नी का शोर सुनाई दिया. कुछेक पुराने मुहल्लों में फ़ागों का जंगी मुक़ाबला हुआ भी हो तो उनकी कवरेज किसी अखबार के लिये कोई खबर कैसे हो सकती है अब जब की बड़ी-बड़ी बेशकीमतीं खबरें होतीं हैं उनके लिये.  
             खैर जब भी मौका मिलेगा फ़ाग सुन लेंगे किसी गांव में जाकर पर ये सच है कि उधर भी पहले से बताना होगा. तब कहीं जुड़ाव होगा फगुआरों का अगरचे उनके बीच  हालिया चुनावों की कोई रंजिश शेष न रही हो तो. वरना गांवों में न तो अलगू चौधरी रह गये न जुम्मन शेख, जिनके मुंह से परमेश्वर बोलता था. अब तो बस एलाटमेंट और निर्माण कार्य बोलते हैं गांव ... मनरेगा भी चीख पुकार करने लगा है. मुझे क्या लेना देना इन बातों से खोज ही लूंगा टिमकी बजाने वाले, फ़ाग गाने वाले झल्ले बर्मन, खेलावन दाहिया के गांव को जो  पूरी तल्लीनता से फ़ाग गाते हैं.
          हां पंद्रह  बरस पुरानी बात याद आ रही  आर आई   रामलाल चढ़ार से सुनी थी फ़ागें .. है किसान मेले में  ...तब से आज़ तक हज़ूर एक भी आवाज़ नहीं पड़ी इन कानों में फ़ाग की. इसुरी तुम्हारी सौं झूठ नहीं बोल रा हूं....अब तो भूल ही गया फ़ाग की धुनें .  
      चित्र-परिचय :- ऊदय शर्मा टिमकी वादक S/O मूंछ वाले ललित शर्मा, उदास चेहरा:-गोलू भैया          

मंगलवार, सितंबर 29, 2009

ब्लागवाणी "बवाल की मनुहार या धमाल"

प्रिय
बवाल जी
आपका आलेख देखा समीर भाई की आपके आलेख पर चिन्ता जायज है. आप स्पष्ट कीजिए अपने कथन को..........?
सूरज तो रोज़ निकलेगा दिनचर्या सामान्य सी रहेगी, किन्तु सूर्योदय पर "करवा-चौथ" की पारणा का संकल्प लेना कहां तक बुद्धिमानी होगी. ब्लागवाणी का बंद होना हिन्दी ब्लागिंग के नेगेटिव पहलू का रहस्योदघाट्न करता है.
हिन्दी चिट्ठों के संकलकों की सेवाएं पूर्णत: नि:शुल्क अव्यवसायिक है जिसकी वज़ह से आज़ सोलह हज़ार से ज़्यादा चिट्ठे सक्रिय हैं......न केवल ब्लागवाणी बल्कि चिट्ठाजगत का भी विशेष अविस्मरणीय अवदान है.जो साधारण ब्लागर के लिए उस मां के अवदान की तरह है जो सेवाएं तो देती है किंतु इस सेवा के पेटे कोई शुल्क कभी नहीं लेती..... यदि यह बुरा है तो संकलकों के विरोधी सही हैं....उनकी बात मान के सब कुछ तहस नहस कर दिया जाए
मुझे लगता है कि संकलकों के पीछे जो लोग काम करतें हैं वे समय-धन-उर्ज़ा का विनियोग इस अनुत्पादक कार्य के लिए क्यों कर रहें हैं........... शायद उनकी भावना "हिन्दी-ब्लागिंग" को उंचाईयां देना ही है......... मेरी तुच्छ बुद्धि तो यही कह रही है आपकी पोस्ट में आपने जो सवाल खडे किए हैं उससे आपकी तकनीकि मालूमात तो उज़ागर हो रही है...? किंतु छोटे भाई रचनात्मकता-सतत सृजन की आदतें भी एक पहलू है जिसका अनदेखा आपसे होगा शायद पोष्ट लिखते वक्त आप थके हुए होंगें.... कोई बात नहीं.......... सुधार कर लीजिए ..............
जहां तक मेरी पोष्ट पर प्रकाशित एक अनाम टिप्पणीकर्ता{जिसे मैं जबलपुरिया बोली में "......"मानता हूं} की टिप्पणी का सवाल है उनकी हीनता का परिचय है.
आपका आलेख आपके आपके स्पष्ट विचारों का होना ज़रूरी है .
साफ़ साफ़ कहो न "ब्लागवाणी हमारी पसंद है उसे हमें वापस लाने मैथिली जी सिरिल जी के पास दिल्ली चलना है टिकट बुक करा रहा हूं चलोगे बवाल "
ताज़ा खबर :- ब्लागवाणी वापस आई : सभी मित्रों को बधाई 

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