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कर्जे की भाषा के ज़रिये सफल क्रांतियाँ क्या संभव है..?

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कर्जे की भाषा के ज़रिये सफल क्रांतियाँ क्या संभव है..? तुमने जो कुछ  किया मीत  वो केवल   प्रयोग अभिनव है..!! अपनी अपनी भाषा में ही आज क्रांति की अलख जगालो.! सच कैसे बोला जाता है मीत ज़रा खुलकर समझा दो..!! एक पड़ाव को जीत मानकर रुके यही इक  भूल  थी साथी ! जिन दीपों से जगी मशालें- उन दीपों की बुझ गई बाती..!  रुको कृष्ण से जाओ पूछो-  शंखनाद कैसे करतें हैं....?              बैठ के पल भर साथ राम के               पूछो हिम्मत कैसे भरते हैं.?        

जनता खुद भ्रष्टाचार पनपाने के जतन में लगी हुई है

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                      दरअसल जब से दुनिया बनीं है तब से दुनियां भर की समस्याएं भी बन गईं. समस्या है तो उनका ठीकरा किसके सर फ़ोड़ा जाए यह “खोज” दुनियां को नित-नये काम सुझाती है. अब भ्रष्टाचार को ही लीजिये यह आचरण कहां से शुरु हुआ इस पर विद्वान एक राय हो ही नहीं सकते. कोई कहता है कि ईव ने चाकू न होने की वज़ह से उस फ़ल का बिना काटे स्वाद चखा जिसमें विशेष प्रकार के कीड़े थे जो वे देख न सकीं. कुछ का मानना है कि भगवान की भूल की वज़ह से यह भाववाचक संग्या तेज़ी से हार्ट-टू-हार्ट हैल गई. लेकिन वर्तमान समय में इसे अन्ना के पीछे खड़ी हम भारतीयों की जमात ने नेताओं एवम कर्मचारियों के माथे पे दे मारा. बावज़ूद इसके कि बिना दिये कुछ मिलता नहीं का अनुपालन करती जनता खुद भ्रष्टाचार पनपाने के जतन में लगी हुई है. शादी के लिये लड़के का सौदा करना, खम्बों से बिजली चुराना, अपने फ़ायदे के लिये येन केन प्रकारेण किसी की भी दीवार पोत देना. दूसरों के भ्रष्टाचार को बुरा खुद के  किये भ्रष्टाचरण को अच्छा बताने वाले लोग उस समय सब कुछ भूल जातें हैं जब अपनी “बकत” बनाने के लिये इन सभी आचरणों का सहारा लेते हैं. एक व्यक्ति

जयप्रकाश जी अन्ना हज़ारे और मध्यम वर्ग

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                         हमेशा की तरह एक बार फ़िर मध्यम वर्ग ने किसी हुंकार में हामी भरी और एक तस्वीर बदल देने की कवायद नज़र आने जगी. इस बात पर विचार करने के पूर्व दो बातों  पर विचार करना आवश्यक हो गया है कि जय प्रकाश जी के बाद पहली बार युवा जागरण में सफ़ल रहे. .अन्ना हजारे ? क्या अन्ना के पास कोई फ़लसफ़ा नहीं है..?                  पहला सवाल पर मेरी तो बिलकुल हां  ही मानिये. अधिक या कम की बात मत कीजिये दौनों के पास जितनी भी जन-सहभागिता है उसकी तुलना गैर ज़रूरी ही है. आपातकाल के पूर्व   जय प्रकाश जी   का आव्हान गांव गांव तक फ़ैला था. आज़ भी वही स्थिति है. तब तो संचार क्रांति भी न थी फ़िर.. फ़िर क्या क्या आज़ादी जैसी सफ़लता में किसी फ़ेसबुकिया पोस्ट की कोई भूमिका थी ? न नहीं थी तो क्या होता है कि एक आव्हान होता है और जनता खासकर  युवा उसके पीछे हो जाते हैं... ? यहां उस आव्हान  के  विजन की ताक़त की सराहना करनी चाहिये. जो  सबको आकर्षित कर लेने की जो लोकनायक में थी. अन्ना में भी है परंतु विशिष्ठ जन मानते हैं कि लोकनायक के पास विचारधारा थी..जिसे  सम्पूर्ण क्रांति  कहा   जिसमें युवा

अन्ना हज़ारे को समर्पित समर्थन-गीत : वो जो गा रहा है वह भी तो है राष्ट्र गीत..!

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"वंदे-मातरम" आज़ वक़्त है सही....... हज़ारों को तू पाठ दे . सोच मत कि क्या बुरा   क्या भला है मेरे मीत हिम्मतवर की ही   होती  है   सदा ही जीत.! सोच मत कि क्या                                                           करेगा  लोकपाल                                                             सोच मत कि इंतज़ाम झोल-झाल  , ऊपरी कमाई बिन कैसा होगा अपना हाल ! वक़्त शेष है अभी   सारे काम टाल दे ! जेब भर तिज़ोरी भर बोरे भर के नोट भर  , खैंच हैंच फ़ावड़े से या यंत्र का प्रयोग कर ! सवाल पे भी नोट ले जवाब के भी नोट ले ! ले सप्रेम भेंट मीत - परा ज़रा सी ओट से ! किसने धन से जीतीं है हज़ारों दिल की धड़कनें.! मुफ़लिसी के दौर में   पुख़्ता होती हैं जड़ें..!! मेरी बात मान ले ... मीत अब तू ठान ले क्यों अभी तलक तू चुप आगे आ उफ़ान ले.. क्यों तुझे देश के दुश्मनों से प्रीत मीत वो जो गा रहा है वह भी तो है राष्ट्र गीत..!! न ओट से तू नोट ले न बोरे भर के नोट ले न सवाल न ज़वाब किसी वज़ह से नोट ले न वोट के तू नोट ले न खोट के