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बुधवार, अगस्त 28, 2013

यमुनाघाट चित्रकला : अभिव्यक्ति पर

अभिव्यक्ति : सुरुचि की - भारतीय साहित्य, संस्कृति, कला और दर्शन पर आधारित।

बंदऊं गुरु पद कंज
पूर्णिमा वर्मन जी 
अंतरजाल पर    पूर्णिमा वर्मन अपने  साहित्यिक  दायित्व का निर्वहन करते जो भी कुछ दे रहीं हैं उससे उनकी कर्मशील प्रतिबद्धता  उज़ागर होती है. अगर मैं नेट पर हूं तो पूर्णिमा वर्मन, बहन श्रृद्धा जैन और भाई समीरलाल की वज़ह से इनका कर्ज़ उतार पाना मेरे लिये इस जन्म में असम्भव है...
हिंदी विकी पर उनका परिचय कुछ इस तरह है
"पूर्णिमा वर्मन (जन्म २७ जून, १९५५, पीलीभीत , उत्तर प्रदेश)[1], जाल-पत्रिका अभिव्यक्ति और अनुभूति की संपादक है। पत्रकार के रूप में अपना कार्यजीवन प्रारंभ करने वाली पूर्णिमा का नाम वेब पर हिंदी की स्थापना करने वालों में अग्रगण्य है। उन्होंने प्रवासी तथा विदेशी हिंदी लेखकों को प्रकाशित करने तथा अभिव्यक्ति में उन्हें एक साझा मंच प्रदान करने का महत्वपूर्ण काम किया है। माइक्रोसॉफ़्ट का यूनिकोडित हिंदी फॉण्ट आने से बहुत पहले हर्ष कुमार द्वारा निर्मित सुशा फॉण्ट द्वारा उनकी जाल पत्रिकाएँ अभिव्यक्ति तथा अनुभूति अंतर्जाल पर प्रतिष्ठित होकर लोकप्रियता प्राप्त कर चुकी थीं।
वेब पर हिंदी को लोकप्रिय बनाने के अपने प्रयत्नों के लिए उन्हें २००६ में भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद,साहित्य अकादमी तथा अक्षरम के संयुक्त अलंकरण अक्षरम प्रवासी मीडिया सम्मान, २००८ में रायपुर छत्तीसगढ़की संस्था सृजन सम्मान द्वारा हिंदी गौरव सम्मान[2], दिल्ली की संस्था जयजयवंती द्वारा जयजयवंती सम्मानतथा केन्द्रीय हिन्दी संस्थान के पद्मभूषण डॉ॰ मोटूरि सत्यनारायण पुरस्कार [3]से विभूषित किया जा चुका है।[4]उनका एक कविता संग्रह "वक्त के साथ" नाम से प्रकाशित हुआ है।[5] संप्रति शारजाह, संयुक्त अरब इमारात में निवास करने वाली पूर्णिमा वर्मन हिंदी के अंतर्राष्ट्रीय विकास के अनेक कार्यों से जुड़ी हुई हैं।[6]"
साभार :- विकी पीडिया
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भारत की समृद्ध कला परंपरा में लोक कलाओं का गहरा रंग है। काश्मीर से कन्या कुमारी तक इस कला की अमरबेल फैली हुई है। कला दीर्घा के इस स्तंभ में हम आपको लोककला के विभिन्न रूपों की जानकारी देते हैं। अभिव्यक्ति के ताज़ा   अंक में प्रस्तुत है यमुनाघाट चित्रकला  के विषय में -
यमुना नदी के दोनों किनारों पर बसा वृंदावन, मथुरा जिले में एक छोटा सा रमणीक नगर है। महाभारत महाकाव्य के नायक श्रीकृष्ण की लीला स्थली यह नगर तीर्थों में प्रमुख है। चम्पक वनों में विहार करते, माखन चुराते और बृजबालाओं से रास रचाते श्रीकृष्ण की अनेक कथाओं और वर्णनों में आने वाला यह नगर कृष्ण के अनेक भक्त कवियों और कलाकारों की कार्यस्थली है। साथ ही यह नगर अपनी कला परंपरा के लिये भी विश्व विख्यात है।

मंदिरों की दीवारों पर बनाई गयी चित्रकला और पत्थरों पर उत्कीर्ण कलाकारी हजारों वर्षों पुरानी है। अनेक राजा आए और गये लेकिन यह लोक कला आज भी कलाकारों के बीच परंपरागत रूप में यमुनाघाट चित्रकला के रूप में जीवित है। समय के साथ मुगल काल में कुछ चित्रकारों ने इसे लघुचित्र शैली में विकसित किया और १९ वीं शती में अमूर्त के युग में इसने भी आधुनिकता का जामा पहना लेकिन लोक कला के प्रेमियों और कलाकारों के बीच इसका मूल स्वरूप सदा जीवित रहा।

यमुनाघाट कलाकृतियों का प्रमुख विषय श्रीकृष्ण की लीलाएँ हैं। बाल लीलाएँ, माखन चोरी, राधाकृष्ण की प्रेम लीलाएँ, गोपियों के साथ महारास, राक्षस वध, गीता का उपदेश आदि महाकाव्य की अनेक प्रमुख घटनाओं को इस लोक कला में स्थान मिला है फिर भी अधिकता नदी और उसके आसपास के दृष्यों तथा बाललीलाओं की ही है। इसका कारण यह है कि कृष्ण का बचपन यहाँ व्यतीत हुआ था।

इन चित्रों की मुद्राएँ अत्यंत लुभावनी और आकर्षक होती हैं। बड़ी बड़ी बोलती हुई आँखें और मोहन की मनोहर मुस्कान बरबस आपको अपनी ओर आकर्षित करती है। पुरुष और स्त्री दोनों के ही शारीरिक गठन और अनुपात का सुन्दर ध्यान रखा जाता है। साथ ही वस्त्रों और आभूषणों को बारीकी से चित्रित करने पर विशेष ध्यान दिया जाता है।

कागज के कपड़े और दीवार पर बनाई जाने वाली इस कला ने मुगल काल में जब मिनियेचर शैली को अपनाया तो कलाकृतियों में रंग के साथ सोने का काम भी होने लगा। वृंदावन के कन्हाई चित्रकार ने इस शैली को और अधिक विकसित किया और इसमे सच्चे रत्न आभूषणों को टाँकने का काम प्रारंभ कर के इस लोक कला को अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक पहुँचा दिया। उन्हें इस प्राचीन लोक कला में नवीन प्रयोग के लिये पद्मश्री पुरस्कार से भी सम्मानित किया जा चुका है।

वृंदावन लोक कला के चित्र और नमूने वृंदावन और मथुरा में किसी भी पर्यटन केन्द्र से हर आकार और मूल्य में खरीदे जा सकते हैं। लेकिन जो लोग चालीस या पचास हज़ार यू एस डालर खर्च करना चाहते हैं उनको निश्चय ही वृंदावन के कन्हाई चित्रकार की वातानुकूलित कलादीर्घा तक जाना होगा जो अपने आप में एक दर्शनीय स्थल हैं।

रविवार, फ़रवरी 20, 2011

प्रवासी हिंदी साहित्य : कुछ प्रश्नों के उत्तर (अभिव्यक्ति की संपादक पूर्णिमा वर्मन का वक्तव्य)


                       मिसफ़िट पर  पिछली पोस्ट में एक ब्लागर (शायद-साहित्यकार नहीं) के द्वारा  घोषित वाक्य से मुझे बेहद हैरानी थी  हैरानी इस लिये कि कुछ लोग बेवज़ह ही लाइम लाईट में बने रहने के लिये उलजलूल बातें किया करते हैं. हालिया दौर में ऐसे लोगों की ओर से कोशिश रही  है कि किसी न किसी रूप में सनसनीखेज बयान/आलेख पेश कर हलचल पैदा की जाए. कुछ इसी तरह के सवाल  प्रवासी साहित्य के विषय में हमेशा से बहुत से प्रश्न उठाए जाते रहे हैं। हाल ही में यमुना नगर में आयोजित एक सेमीनार में अभिव्यक्ति की संपादक पूर्णिमा वर्मन ने इनके उत्तर देने की कोशिश की है  उनका वक्तव्य यहाँ जस का तस  प्रकाशित किया जा रहा है.
 प्रवासी हिंदी साहित्य : कुछ प्रश्नों के उत्तर
यमुना नगर में आयोजित सेमीनार में अभिव्यक्ति की संपादक पूर्णिमा वर्मन का वक्तव्य

नमस्कार-
आज के इस सत्र में अनेक प्रवासी लेखकों की अनेक कहानियों पर चर्चा सुनकर कल उपजा बहुत सी निराशा का बादल तो छँट गया। जानकर अच्छा लगा कि इतने सारे लोग प्रवासी कहानियाँ पढ़ते हैं और अधिकार से उनके संबंध में कुछ कहने की सामर्थ्य रखते हैं।
कल के अनेक सत्रों में विदेशी हिंदी लेखन के संबंध में कुछ प्रश्न उठाए गए थे। जिनके उत्तर मैंने इस लेख में देने की कोशिश की है।

·         विदेशों में रहने वाले ऐसा क्या रच रहे हैं जिसे इतना विशेष समझा जाए
प्रवासी कहानी हिंदी के अंतर्राष्ट्रीयकरण का सबसे मजबूत रास्ता है। हिंदी साहित्य का एक रास्ता विश्वविद्यालयों से होकर गुजरता है जो अध्ययन और गंभीर किस्म का है, जिसे सब लोग नहीं अपनाते हैं। दूसरा रास्ता फिल्मों से होकर गुजरता है जो अक्सर सस्ता और हवा हवाई समझा जाता है, जिसके लिये यह भी समझा जाता है कि वह समाज की सही तस्वीर नहीं प्रस्तुत करता।  प्रवासी हिंदी कहानी का रास्ता इन दोनो के बीच का मज्झिम निकाय है जो समांतर फ़िल्मों और सुगम संगीत की तरह हिंदी के अंतर्राष्ट्रीय करण का रास्ता बना रहा है। इसमें विदेशों में बसे भारतीयों और हिंदी पढ़ने वाले विदेशियों को वह अपनापन मिलता है जो अन्यत्र दुर्लभ है।
·         उनका शिल्प इतना बिखरा हुआ क्यों है?
प्रवासी कहानी का शिल्प अपना अलग शिल्प है। वह हिंदी कहानियाँ पढ़ पढ़कर विकसित नहीं हुआ है। वह अपने अनुभवों अपनी अपनी अपनी भाषाओं और अपनी अपनी परिस्थितियों से पैदा हुआ है। इसलिये वह बहुत से लोगों को वह अजीब लगता है। वह अजीब इसलिये भी है कि वह नया है इसलिये वेब पर हिंदी पढ़नेवालों को खूब लुभाता भी है। बहुत सी चीजें जो शुरू में अजीब लगती हैं बाद में वही लोग उन्हें शौक से अपनाते हैं, जो प्रारंभ में उनकी आलोचना करते थे। प्रवासी कहनियों के संबंध में भी यह सच होने वाला है।
·         उनके कथानक इतने अजीब क्यों हैं
प्रवासी लेखकों की कहानियों के कथानक अजीब नहीं है, वे अलग है, उनकी सोचने का तरीका, उनका परिवेश, उनका रहन सहन, बहुत सी बातों में आम भारतीय से अलग है। उनका यह अलगपन उनकी कहानियों में भी उभरकर कर आता है। यह प्रवासी कथाकारों की कमजोरी नहीं शक्ति है। तभी तो सामान्य अंतर्राष्ट्रीय पाठक इनके देश, परिस्थितियों, संवेदनाओं और परिणामों से अपने को सहजता से जोड़ लेते हैं। इतनी सहजता से जितनी सहजता से वह भारत की हिंदी कहानी से भी खुद को नहीं जोड़ सकते।
·         वह भारतीय साहित्य की बराबरी नहीं कर सकता
प्रवासी कहानियों के संबंध में यह कहा जाता है कि वे भारतीय सहित्य की बराबरी नहीं कर सकती। यह बात बिलकुल सही है। न तो भारतीय कहानी प्रवासी कहानी की बराबरी कर सकती है न ही प्रवासी कहानी भारतीय कहानी की। दोनो के अपने अपने क्षेत्र हैं और दोनों अपने क्षेत्र में विशेष स्थान रखती हैं। काल स्थान और परिस्थिति के अनुसार साहित्य का अपना महत्तव होता है। जब प्रवासी कथाकार किसी विदेशी गली का वर्णन कर रहा होता है तो वह गली उसकी संवेदनाओं में बस कर कलम से गुजरती है। जब कि पर्यटक उस गली से बहुत कुछ देखे समझे बिना निकल जाता है। अनेक बार प्रवासी कहानी की समीक्षा करने वाले भारतीय आलोचक प्रवासी साहित्य को पर्यटक की दृष्टि से देखते हैं और एक दूसरे पर वार करने की मुद्रा में रहते हैं। जबकि जरूरत इस बात की है कि हम एक दूसरे के मार्ग दर्शक बनें और उन्हें अपनी अपनी गलियों की सैर कराएँ और हिंदी कहानी के विस्तार में नए आयाम जोड़ें।
·         उसकी घटनाएँ दिल को नहीं छूतीं
यह तो स्वाभाविक ही है। जिन परिस्थितियों से भारतीय लेखक या पाठक नहीं गुजरा उसको प्रवासी कहानी की घटनाएँ नहीं छुएँगी। ठीक उसी तरह जैसे भारतीय कहानियों की बहुत सी घटनाएँ प्रवासी या विदेशी पाठकों के मन को नहीं छूतीं या उन्हें अजीब लगती हैं। अंतर्राष्ट्रीयकरण के इस दौर में अपना सा न लगना बहुत जल्दी दूर हो जाने वाला है। व्यापार और मीडिया ने मोटी मोटी सब बातों का तो वैश्वीकरण कर दिया है। लेकिन संवेदनाओं रिश्तों और सोच का वैसा वैश्वीकरण नहीं हुआ है। इसमें समय लगेगा। पिछले दस सालों में जिस तरह पिजा सबको अपना लगने लगा है, प्रवासी कहानी भी भारतीय संवेदना के स्तर पर सबको छूने लगेगी।
·         उनकी भाषा बनावटी है
प्रवासी कहानी की भाषा बनावटी होने के बहुत से कारण है। प्रवासी लेखक भाषा के एक गंभीर संकट से गुजरता है। जिन घटनाओं और परिस्थितियों से वह गुजरता है उन्हें हिंदी में कैसे व्यक्त किया जाय वह विश्लेषण की एक गंभीर समस्या होती है। भारतीय लेखक के लिये यह अपेक्षाकृत आसान है। गाँव की परिस्थिति है तो वैसी भाषा का प्रयोग कर लिया, शहर की परिस्थिति है तो अंग्रेजी का तड़का मार दिया, बंगाली, पंजाबी, मराठी सब भाषाओं का प्रयोग हिंदी में किया जा सकता है और पाठक उसको सहजता से समझ भी लेते हैं।
लेकिन अगर सभी काम हिंदी से इतर भाषाओं में हो रहे हैं तब उसको कैसे व्यक्त किया जाय कि वातावरण बन जाए और जो कहा गया है उसका ठीक से रूपांतर हिंदी में हो जाए वह काफी मुश्किल है। यह काम और भी मुश्किल हो जाता है अगर लेखक अंग्रेजी भाषी देशों में नहीं रहता है। अनेक संवादों घटनाओं परिस्थितियों में प्रयुक्त भाषा को हिंदी में रूपांतरित करना आसान नहीं है। वह इस ऊहापोह के घने द्वंद्व से गुजरता है कि अपने देश की भाषा का प्रयोग कहाँ करे कितना करे, किस तरह करे।
हिंदी को अगर अंतर्राष्ट्रीय होना है तो उसे एक सामान्य हिंदी विकसित करने और उसमें लिखने की आवश्यकता है, जिसमें गाँव, प्रांत या अंग्रेजी जैसी भाषा का प्रयोग बहुत ही कम हो। अभिव्यक्ति के साथ पिछले 10-15 वर्षो से वेब पर रहते हुए मैंने जाना है कि अभिव्यक्ति के लगभग 30 प्रतिशत पाठक चीन, कोरिया, जापान और सुदूर पूर्व इंडोनेशिया तथा पूर्वी योरोप के देशों में बसते है जो अँग्रेजी नहीं जानते हैं। इसलिये जिस प्रकार भारत में हिंदी कहानी में अंग्रेजी स्वीकृत हो जाती है अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर नहीं होती है। विषय, कथानक, परिस्थितियाँ, भाषा, शैली के वे बहुत से घटक है जो भारत में आसानी से स्वीकृत हो सकते हैं लेकिन अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकार नहीं किये जाते।
इन सब कठिनाइयों से छनकर जो साहित्य आज विद्शी या प्रवासी कहानी के रूप में आ रहा है उसका सबसे बड़ा संग्रह अभिव्यक्ति पत्रिका में है जहाँ 50 कथाकारों के 130 कहानी संग्रहीत है। इसी प्रकार अनुभूति में 105 कवियों की 1000 से अधिक कविताओं का संग्रह है।
कहा जाता है कि भारत में इंगलैंड की कुल जनसंख्या से ज्यादा कंप्यूटर (नेट कनेक्शन) हैं। आशा है जब हम अगली बार मिलेंगे तब सेमीनार के भागीदार बार बार उन्हीं 10 लेखकों की 25 कहानियों के विषय में बात नहीं करेंगे। कम से कम 50 लेखकों की 100 कहानियों के विषय में बात करेंगे। ताकि सबको ठीक से पता चल जाए कि भारत में इंगलैंड की कुल जनसंख्या से ज्यादा कंप्यूटर (नेट कनेक्शन) हैं।
एक अंतिम प्रश्न
सारे हिंदी साहित्य में प्रवासी कहानी का स्थान कहाँ है
·         हिंदी कहानी के रास्ते हिंदी भाषा तथा भारतीय साहित्य और संस्कृति की अंतर्राष्ट्रीय लोकप्रियता बढ़ाने के लिये प्रवासी हिंदी कहानी का हिंदी साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान है।
·         अंतर्राष्ट्रीय पाठक की रुचि और समझ की हिंदी कहानी को समझदारी के साथ प्रस्तुत करना आज की बड़ी आवश्यकताओं में से एक है। अभिव्यक्ति द्वारा हम वेब पर यह काम सफलता पूर्वक कर रहे हैं।
·         हिंदी साहित्य को विश्व के कोने कोने में पहुँचाने और विश्व का कोना कोना हिंदी साहित्य में लाने का महत्वपूर्ण काम केवल प्रवासी साहित्य ही नेट के जरिये कर सकता है।
                                                                                  धन्यवाद!

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