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मैं अन्ना के आंदोलन की वैचारिक पृष्ट भूमि से प्रभावित हूं पर किसी फ़ंतासी का शिकार नहीं हूं.

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साभार आई बी एन 7   भ्रष्टाचार से ऊबी तरसी जनमेदनी को भारत के एक कोने से उठी आवाज़ का सहारा मिला वो थी अन्ना की आवाज़ जो एक समूह के साथ उभरी इस आवाज़ को "लगातार-चैनल्स यानी निजी खबरिया  चैनल्स  " जन जन तक पहुंचाया . न्यू मीडिया भी पीछे न था इस मामले में. अब जब यह आंदोलन एक विस्मयकारी मोड़ पर आ चुका है तब कुछ सवाल सालने लगे हैं. उस सवाल के पहले   तुषार गांधी  की बात पर गौर करते हुए सोच रहें हैं कि अन्ना और बापू के अनशन में फ़र्क़ की पतासाज़ी की जाए. तुषार जी के कथन को न तो ग़लत कहा जा सकता और न ही पूरा सच . ग़लत इस वज़ह से नहीं कि.. अन्ना एक "भाववाचक-संज्ञा" से जूझने को कह रहें हैं. जबकि बापू ने समूह वाचक संज्ञा से जूझने को कहा था. हालांकि दौनों का एक लक्ष्य है "मुक्ति" मुक्ति जिसके लिये भारतीय आध्यात्मिक चिंतन एवम दर्शन  सदियों से प्रयासरत है . तुषार क्या कहना चाह रहें हैं इसे उनके इस कथन से समझना होगा :-" तुषार गांधी ने ये विचार अन्ना को दूसरा गांधी कहे जाने पर कही। उनसे पूछा गया कि क्या बापू आज होते तो क्या वो अन्ना का साथ देते। तब तुषार गांध