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याद रखो न्याय की कश्ती रेत पे भी चल जाती है !! गिरीश बिल्लोरे "मुकुल"

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चित्र साभार : एक-प्रयास आज़ किसी ने शाम तुम्हारी घुप्प अंधेरों से नहला दी तुमने तो चेहरे पे अपने, रंजिश की दुक़ान सजा   ली ? मीत मेरे तुम नज़र बचाकर छिप के क्यों कर दूर खड़े हो संवादों की देहरी पर तुम समझ गया  मज़बूर बड़े हो  ..!! षड़यंत्रों का हिस्सा बनके तुमको क्या मिल जाएगा मेरे हिस्से मेरी सांसें.. किसका क्या लुट जायेगा …? चलो देखते हैं ये अनबन किधर किधर ले जाती है..? याद रखो न्याय की कश्ती रेत पे भी चल जाती है !!