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बुधवार, मार्च 21, 2012

ज्ञान जी को कविता का बहुत गहरा ज्ञान है : मनोहर बिल्लौरे


                        बात उन दिनों की है जब  ज्ञानरंजन  जी नव-भास्कर का संपादकीय पेज देखने जाते थे। सन याद नहीं। तब वे अग्रवाल कालोनी (गढ़ा) में रहा करते थे. सभी मित्र और चाहने वाले अक्सर शाम के समय, जब उन के निकलने का समय होता, पहुँच जाते. चंद्रकांत जी दानी जी मलय जी, सबसे वहाँ मुलाकात हो जाती। आज इंद्रमणि जी याद आ रहे हैं। वे भी अपनी आवारा जिन्दगी में ज्ञान जी के और हमारे निकट रहे और अपनी आत्मीय उपसिथति से सराबोर किया।
उस समय जब ज्ञान जी ने संजीवनीनगर वाला घर बदला और रामनगर वाले निजी नये घर में आये तब काकू (सुरेन्द्र राजन) ने ज्ञान जी का घर व्यवसिथत किया था. जिस यायावर का खुद अपना घर व्यवसिथत नहीं वह किसी मित्र के घर को कितनी अच्छी तरह सजा सकता है, यह तब हम ने जाना, समझा। ज्ञानरंजन की बदौलत हमें काकू (सुरेन्द्र राजन) मिले. मुन्ना भाइ एक और दो में उनका छोटा सा रोल है। बंदिनी सीरियल में वे नाना बने हैं। उन्हें तीन कलाओं में अंतर्राष्ट्रीय अवार्ड मिले है। वे कहते हैं कि फिल्म में काम हम इसलिये करते हैं ताकि महानगर में रोटी, कपड़ा और मकान मिलता रहे।
ज्ञानरंजन जी,
प्रमुख और जरूरी सामान घर आ चुका था। केवल कुछ पुस्तकों और पत्रिकाओं के पुराने बंडल भर आना बाकी थे। उस समय गर्मी की छुट्टियां चल रही थीं। मैंने काम की मस्ती में यह काम तुरत-फुरत निपटा दिया। उन बंडलों में कुछ पुरानी जर्जर पुस्तकें तथा पुरानी पत्रिकाओं के महत्वपूर्ण और सामान्य अंक  थे। मेरा उनके प्रति सम्मान-भाव तब और उत्साहपूर्ण हो गया, जब उन्होंने मुझे पुरानी पत्रिकाओं के वे बंडल रखने और उपयोग करने के लिये दे दिये। उस समय मेरी श्रम के प्रति आस्था देखकर उन्होंने एक वाक्य बहुत विश्वास  के साथ कहा था - ''यह उत्साह यदि बनाये रख सके तो बहुत आगे जाओगे। बाद में कितना विपरीत समय आया. संघर्ष की कितनी परिसिथतियों से गुजरना पड़ा, ऐसे समय में हमेषा उनका संबल साथ रहा और किसी तरह उनसे उबरता रहा. समय के गर्भाशय में क्या कुछ पल रहा है कैसे बताया जा सकता है?
और सच में तब से मैंने आर्थिक प्रगति भले न की हो परंतु मानसिक प्रगति निषिचत रूप से थोड़ी ही सही करता रहा हूँ। बाद में संयोगवष उन्होंने मेरी एक कविता सुनकर 'पहल के 46 वें अंक में तीन-चार और कविताओं के साथ प्रकाषित की थीं। उस समय तक मेरी कविताएं किसी साहि्त्यिक पत्रिका में प्रकाशित  नहीं हुइ थी। अखबारों में ज़रूर यहाँ वहाँ छप जाती थीं।

रामनगर से मेरा और चंद्रकांत जी का घर मुश्किल से एक किलोमीटर पड़ता है। उनके घर तक अब पैदल जाया-आया जा सकता है। शाम या सुबह की सैर उनके साथ करना संभव है, बल्कि की जाती है। कितनी-कितनी बातें वे बताते जाते हैं पैदल घूमते समय। 'दुनिया-भर की। विषय कोइ भी हो, वे उसका किसी ऐसी रासायनिक विधि से विष्लेषण-संष्लेषण कर निष्कर्ष पेश करते हैं कि संवुष्ट होना ही पड़ता है। तर्क बचते ही नहीं। नयी से नयी, पुरानी से पुरानी कोर्इ भी खास घटना हो उन्हें मालूम रहती है। खबरें अखबारों से नहीं आयेंगी तो फोन से आ जायेंगी। देष से नहीं आयेंगी तो विदेष से आ जायेंगी। उन्हें समाचारों तक जाने की आवश्यकता नहीं। संजीवन अस्पताल के पास, रामनगर अधारताल, जबलपुर के 101, नम्बर घर में बिना खास उपकरणों के खास-खबरें दौड़ती चली आती हैं। यहाँ तक कि लोग खबरें देने सदेह पहुँचते रहते हैं। इस दौरान कितने-कितने भाव उनके चेहरे और देह-भाषा द्वारा प्रकट होते हैं यह बस महसूस करने भर की बात है, बयान करने की नही । कितना प्यार भरा है उनकी डांट और फटकार में यह उनके गहरे साथी ही जान और महसूस कर सकते हैं अन्य कोइ और नहीं। उनके अंदर कितना 'ज्ञान है - इसके अंक और मापक हमारे छोटे पड़ जाते हैं।

बहरहाल, हम शहीद स्मारक में मिलते, कुछ देर वहीं - साहित्यिक-असाहित्यिक गप्पें हांकते। घूमते... फिरते... काफी हाउस या किसी और सुथरे रेस्टारेन्ट में बैठते या चहलकदमी करते हुए कहीं कुछ खाते पीते और लौटते। जब कभी मैं और ज्ञान जी कमानिया गेट की तरफ से घर की ओर लौटते। उन्हें चीजों की अच्छी पहचान है। सर्वश्रेष्ठ, सर्वोत्तम और परफेक्ट उनके अंतरंग शब्द हैं। उनका अनुशासन बड़ा तगड़ा है। कर्इ लोग तो उनसे दूर इसी कारण हो जाते हैं, क्योंकि वे इस पाठषाला के अनुषासन का पालन नहीं कर पाते। स्वावाभिक है लापरवाह और स्वार्थी आदमी उनके पास अधिक देर टिक नहीं पाता। कुछ हैं जो उनके व्यक्तित्व और कृतित्व से घबराकर उनके निकट आने से घबराते हैं।

तो बात कमानिया की चल रही थी। वे खूब खिलाते पिलाते और बातें करते रहते। बस छेड़ भर दिया जाये। कमजोर और गलत, हल्की और थोथी बातें उनके बर्दाष्त के बाहर हैं। ऐसे समय पूरे विश्वास के साथ वह बरस पड़ते हैं. और बेरहमी से हमला करते हैं। पर सब पर नहीं अपनों पर, अपने दोस्तों पर। यह उनकी आदत में शुमार है।  लौटते समय साइकिल रिक्षे पर बैठने से पहले वे कभी चने, कभी मूंगफली, या कोइ इसी तरह का, कुछ और टाइम-पास जो अच्छा भर नहीं,  सर्वोत्तम , सर्वोत्कृष्ट हो, वे लाते और इस तरह हम कुछ खाते-पीते साइकिल रिक्शे पर बैठकर घर की ओर लौटते। रास्ते भर कुछ न कुछ बातें होती रहतीं। कभी रिक्षे वाले से वे बातें करने लगते या उससे कुछ पूछते। वे बताया करते - 'बिल्लौरे जी मेरे पास कुछ नहीं था। न घर न फर्नीचर, न किसी तरह का कोर्इ भी ग्रहस्थी का सामान... सब किराये का था। धीरे-धीरे सब कुछ नये सिरे से एक-एक कर जोड़ना पड़ा...।

ऐसा नहीं है कि वे, उनके मित्र साहित्य या संस्कृति, कला या समाज से जुड़े सकि्रयतावादी ही रहते हों और वे केवल ऐसे ही उत्कृष्ट लोगों से सबंध रखते हों। उनके घर का माली, पहल-पैकर, बाइन्डर, कामवाली, दूकान का नौकर या कोइ और अन्य नया पुराना सामान्य व्यकित हो, वह प्यार करते हैं, टूटकर; और आपको झुकना पड़ता है नीचे अपने आप, स्वयंमेव। सहायता के लिये उनकी दोनों बाहें, खुली रहती हैं। उनके अंदर ममत्व है। कोइ उनसे जुड़कर उनसे अलग हो पाये यह अपवाद ही हो, तो हो, नियम या सिद्धांत तो बिल्कुल नहीं है। हाँ एक बात ज़रूर है -  कोइ   स्वार्थी, लंपट, धोखेबाज, चालबाज, लेंड़ू किस्म का जीव क्या ऐसी कोर्इ चीज भी उनके पास क्षण भर टिक नहीं सकती। वे उसे भगायेंगे या दुत्कारेंगे नहीं, पर ऐसा कुछ ज़रूर करेंगे कि सामने वाले की हिम्मत आँख मिलाने की नहीं होगी। वे स्पष्ट वक्ता हैं। अपने सिद्धांतों में पूरी तरह ढले। जिसे उनके अनु्शासन में रहना है पूरे मान से रहे, वरना...!

ज्ञान जी को कविता का बहुत गहरा ज्ञान है। उन्होंने कहीं लिखा है - 'मैं कहानी लिखने के पहले कविताएं जोर-जोर से पढ़ता था। उनसे दनिया भर की कविता के बारे में बात कर लो, राय ले लो, उनकी टिप्पणी सुन लो। किसी भी भाषा के पुरातन और नव्यतम कवि के बारे में बात कर लो, वे विशिष्टताएं बताने लगेंगे। जो खास है, उनके पास है। नहीं है तो आ जायेगा।

कुछ बातें सुननयना जी के बारे में। भाभी जी के घर कोर्इ पीये भले न, खाये बिना जा नहीं सकता। ज्ञान जी जब कभी घर पर नहीं मिलते तो उनसे देर तक बातें की जा सकती हैं। यदि आप आते, जाते रहते हैं। पता नहीं खाने का शौक उन्हें कितना है, पर बनाने का - और उसे कई  लोगों को खिलाने-पिलाने का उन्हें बड़ा शौक है। आप कुछ न कुछ ऐसा जरूर खाकर आयेंगे जो संभवत: पहले कभी आपने कहीं और न खाया-पिया होगा। कुकिंग से उन्हें बड़ा प्रेम है। हमें उस घर में  बड़ा सुकून मिलता है। उनका व्यक्तित्व उनके घर में पूरी तरह रौशन है। ज्ञान की तरह।
आलेख - मनोहर बिल्लौरे,1225, जेपीनगर, अधारताल,जबलपुर 482004 (म.प्र.)मोबा. - 8982175385
प्रस्तुति गिरीश बिल्लोरे मुकुल जबलपुर म.प्र. 

सोमवार, दिसंबर 12, 2011

अपनों के प्रति 'क्रूर ज्ञानरंजन - मनोहर बिल्लौरे

  ज्ञान जी पचहत्तर  साल के हो गये। एक ऐसा कथाकार जिसने कहानी के अध्याय में एक नया पाठ जोड़ा। अपना गुस्सा ज्ञान जी ने किस तरह अपनी कहानियों में उकेरा है। पढ़ने-लिखने वाले सब जानते हैं। उसके समीक्षक उसमें खूबियाँ-खमियाँ तलाशेंगे। उत्साह की बात यह है कि आज भी वे पूरे जवान हैं और स्फूर्त भी. उनके साथ सुबह की सैर करने में कभी-हल्की सी दौड़ लगाने जैसा अनुभव होता है। वे अब भी मतवाले हैं जैसे कालेज दिनों में जैसे बुद्धि-भान विधार्थी रहते हैं। साहित्य, समाज, संस्कृति - यदि साहित्य को छोड़ दिया जाये तो अन्य सभी कलाओं के लिये उन्होंने क्या किया, यह बखान करने की बहुत आवश्यकता  मु्झे अभी इस समय नहीं लगती. यह काम कोर्इ लेख या कोइ   एक किताब कर पाये यह संभव भी नहीं। बीते 75 सालों में बचपन और किशोरावस्था को छोड़ दिया जाये (किशोर को कैसे छोड़ दें वह तो उनकी एक कहानी में जीवित मौजूद है - समीक्षकों-आलोचकों ने उसे 'अतियथार्थ कहा है...) तो - उन्होंने 'सच्चे संस्कृति-कर्मी और - धर्मी भी - के जरिये जो कुछ किया उसका बहुत सारा अभी भी छुपा हुआ है, ओट से झांक कर भी जाना नहीं जा सका है - क्योंकि वह इस तरह पैक्ड और सील किया हुआ है और उनकी और उनके चाहने वालों की निज़ी मज़बूत तहखाने की तिजोरियों में तालाबंद है जो उनके और षायद सुनयना जी के? अलावा कोर्इ नहीं जानता, पाशा और बुलबुल भी नहीं। उनके चाहने वाले अनेक साथियों के पाास उनके साथ बिताये गये समयों की ढेरों यादें, संस्मरण और किस्से हैं - जो धीरे-भीरे बाहर आयेगा। बहुत सीमित ही उन तहखानों से निकलकर बाहर आया है और उन्होंने ही उनकी निज़ी और सार्वजनिक जिन्दगी के बारे में बहुत सी बातें प्रकाशित की हैं। अभी 'श्रेष्ठतम और सर्वोत्तम और  पर्फ़ेक्शन  से भरा-पूरा अभी, आज तक बाकी है. कब रहस्य खुलेंगे? कहा नहीं जा सकता। वे लगातार सचेत, जागृत और सक्रिय और चेतन रहे थे, हैं, और रहेंगे ऐसा हमारा विश्वास कहता है। चेतना की जो तरंगमय लहरे उनकी वाणी और देह-भाषा से प्रकाशित होती हैं, वे प्रेरणा को उदग्र करती हैं, गहरा बनाती हैं और प्रगति का वितान रचती हैं। उनके साथ इस षहर में मैंने लगभग 25 से 30 साल का यह अर्सा गुजारा है। लेखन में बचपन से जवान हुआ हूँ। जब उनसे दूर होता हूँ या रहता हूँ एक दमकदार इन्द्रधनुषी हासिये में वे मुझे जब तब दिखार्इ देते रहते हंै। चूँकि, उन्होंने ताजिन्दगी ऐसे ही लागों की वकालत की है - जो वंचित किये गये हैं और हैं, और जबरन किये जा रहे हैं। मैं और मुझ जैसे अनगिनत लोग उनकी रचना और संरचना का पाठ पहली कक्षा से पढ़ रहे हैं और उस ज्ञान (जानकारियाँ नहीं) से लगातार ऊर्जा पाकर समृद्ध हुए और होते रहेंगे। यह सिलसिला मुसलसल जारी है और रहेगा, रुकने वाला नहीं। इसी विष्वास के साथ जबलपुर में उनका पचहत्तरवां  जन्म-दिन पाशा  और बुलबुल की तरफ से हो रहा है। हम सब ने इस दिन (21नवंबर) को मनाने के लिये उनकी स्वीकृति पाने के लिये बड़ी मशक्क़त की है। आयोजन में डिनर के अलावा और क्या-क्या होगा कहा नहीं जा सकता। इस बात की ख़बर सबको लग चुकी है. जिनको नहीं लगी है उनका रिष्ता ज्ञानरंजन से गहरा नहीं है. हम उनका सानिध्य पाते रहे हैं और लम्बे समय तक पाते रहेंगे यह विष्वास हमारा बहुत प्रबल और साथ ही दृढ़ भी है, सपने-में-भी। अभी पांच, छह, और सात नवंबर 11 को इन्दौर में एक विशेष जैविक-कला-प्रदर्शनी के दौरान भी यह तत्थ सबके सामने खुलकर उजागर हुआ. उस दौरान प्रदर्शनी में उन्होंने स्वयं बार-बार कुर्सियों सहित कर्इ चीजों को व्यवसिथत किया और करने के लिये हमें निर्देषित दिया; हम में से कुछ ने इस मौके पर भी उनकी प्यार से भरीपूरी डाँट और फटकार सुनी और उनकी पीठ पीछे मजा लिया. उनके बारे में देर तक गहरी और आत्मीय बातचीत की। उन्हें थोड़ा भी अवैज्ञानिक होने पर गुस्सा आ जाता है, अपनों के प्रति गुस्से में भी उनकी बाडी-लेंग्वेज आत्मीय होती है। आयोजनों की तैयारी या समापन के दौरान वे अचानक और एकाएक एक लय में अपने थैले को कंधे पर लटकाते हैं, उसे थोड़ा सा ऊपर की ओर झटका सा देकर और किन्हीं अपनों को अगल-बगल लगाकर चाय, काफी या नाष्ता कराने ले जाते हैं - जो भूखा है उसे तुरंत खाने-पीने भेज देते हैं या साथ लेकर जाते हैं, जो उन्हें थका सा दिखा उसे वापस ठिये पर लौटकर आराम के लिये मज़बूर कर देते हैं - चेताते हुए - 'कि अब यहाँ दिखना नहीं... यह कहते हुए उनके दाहिना हाथ की मुटठी बंधती है और तर्जनी सीधी होकर दो-तीन बार तेज़ी से आगे-पीछे होती है, फिर वे वहाँ रुकते नहीं हैं तेजी से अपनी मस्त चाल से में किसी कंधे पर हाथ टिका अपनी खास लय से चल देते हैं।उनके साथ सुबह की सैर करते समय मैंने इस लय को पकड़ा। क्या यह एक निरंतर विचार की लय नहीं जिस पर जिस पर शरीर ताल देता हैै?पहल-सम्मानों और दूसरे आयोजनों मैं उनके बायें हाथ में सिगरेट का पैकेट होता था, जब कार्यक्रम अपनी गर्मजोषी में रहता था तब वे बाहर कष लगाते हुए सामने और आजू-बाजू वाले को डिब्बी बढ़ा देते थे, पर कर्इ सालों से उन्हें सिगरेट पीते हुए नहीं देखा। यह है उनके 'विल-पावर का एक कमाल. कमालों की कमी नहीं उनके खज़ाने में।अपने आसपास पर उनकी दृष्टि  हमेशा गहरी बनी रहती है। उनके पढ़ने की स्पीड बहुत तेज है। यदि उनके कायदे से कोर्इ बाहर जाता है तो वह टीम से भी बाहर हो जाता है।इंदौर में प्रदर्शनी के दौरान चारेक लोगों के बीच बैठे अचानक तर्जनी साधी कर बोले - ''मैं अपनों के प्रति बहुत क्रूर हूँ।
यह बात तो हम सब बहुत पहले से ही जानते और अनुभव करते रहे हैं - प्रेम में भरी क्रूरता या इसके उलट, क्रूरता में भरा प्रेम - ज्ञान जी एक पूर्ण मनुष्य की परिभाषा रचते हैं. अपने किसी साथी की तकलीफ वे गहरार्इ से महसूस कर, संभवता से बढ़कर उसकी मदद करते हैं. यह बात उनसे जुड़े सभी लोगों को पता है। पिता, माँ, भार्इ, दोस्त, प्रेमिका, और स्वजन, तथा पड़ोस के प्रति कू्ररता से सराबोर उनकी कहानियाँ भी पढ़ने वाले सभी पाठक भी उनके इस गुस्से से परिचित हैं। यह सिलसिला केवल कहानियों भर में नहीं है उनके पूरे प्रकट जीवन में है, जो बहुत साफ, स्पष्ट और पारदर्शी है। कोर्इ उनकी डांट से बच नहीं सकता. इस डांट और तथाकथित कू्ररता में अपनत्व और स्नेह-प्रेम से सराबोर दिल और दिमाग है, जो अपने साथी की हर एक गतिविधि को माइक्रोस्कोपिक दृषिट से देखता-परखता है और तदनुसार व्यवहार करता है। यहाँ बस इतना ही, आगे फिर कभी और।
अंत में इतना और जोड़ना चाहूँगा कि -हम उनका सानिध्य पाते रहें हैं और आजीवन पाते रहेंगे यह विष्वास हमारा बहुत प्रबल, गहरा और साथ ही दृढ़ भी है, सपने-में-भी।


मनोहर बिल्लौरे,
1225, जेपीनगर, अधारताल,
जबलपुर 482004 (म.प्र.)
मोबा. - 89821 75385

शनिवार, नवंबर 19, 2011

ज्ञानरंजन, 101, रामनगर, अधारताल, जबलपुर.

खास सूचना: इस आलेख के किसी भी भाग को  अखबार  प्रकाशित 21.11.2011 को ब्लाग के लिंक के साथ प्रकाशित कर सकते हैं.
ज्ञानरंजन जी
                          अनूप शुक्ल की वज़ह से डा. किसलय के  साथ उनकी पिछली१७ फ़रवरी २०११ को हुई थी तब मैने अपनी पोस्ट में जो लिखा था उसमें ये था "  ज्ञानरंजन जी  के घर से लौट कर बेहद खुश हूंपरकुछ दर्द अवश्य अपने सीने में बटोर के लाया हूंनींद की गोलीखा चुका पर नींद  आयेगी मैं जानता हूंखुद को जान चुकाहूं.कि उस दर्द को लिखे बिना निगोड़ी नींद  आएगी.  एककहानी उचक उचक के मुझसे बार बार कह रही है :- सोने सेपहले जगा दो सबकोकोई गहरी नींद  सोये सबका गहरी नींदलेना ज़रूरी नहींसोयें भी तो जागे-जागेमुझे मालूम है कि कईऐसे भी हैं जो जागे तो होंगें पर सोये-सोयेजाने क्यों ऐसा होताहै
                   ज्ञानरंजन  जी ने मार्क्स को कोट किया था चर्चा में विचारधाराएं अलग अलग हों फ़िर भी साथ हो तो कोई बात बनेइस  तथ्य से अभिग्य मैं एक कविता लिख तो चुका था इसीबात को लेकर ये अलग बात है कि वो देखने में प्रेम कविता नज़रआती है :-  आगे पढ़ने "“ज्ञानरंजन जी से मिलकर…!!”" पर क्लिक कीजिये" कुछ ज़रूरी जो शेष रहा वो ये रहा .... 
              ज्ञानरंजन के मायने पहल अच्छा लिखने की सच्चा लिखने की एक  अच्छे लेखक जो अंतर्जाल को ज़रूरी मानते तो हैं किंतु उनकी च्वाइस है क़िताबें. किसी से बायस नहीं हैं ज्ञानरंजन तभी तो ज्ञानरंजन है.. एक बार मेरी अनूप शुक्ला जी डा०विजय तिवारी के साथ उनसे हुई  एक मुलाक़ात में उनका गुस्सा राडिया वाले मामले को लेकर लेकर फ़ूटा तो था बिखरा नहीं साफ़ तौर पर उन्हौने समझौतों की हद-हुदूद की ओर इशारा कर दिया था .. गुस्सा किस पर था आप समझ सकते हैं ..ज्ञानरंजन कभी टूटते नहीं बल्कि असहमति की स्थिति में  इरादा दृढ़ और अपनी  गति तेज़ कर देते हैं.पूरे ७५बरस के हो जाएंगे २१ नवम्बर २०११ को इस अवसर पर  नई-दुनियां अखबार का एक पूरा पन्ना सजाया है . 
                     मेरे  बाद मेरे नातेदार भाई मनोहर बिल्लोरे जी का संस्मरणालेख प्रस्तुत है....
      ज्ञानरंजन, 101, रामनगर, अधारताल, जबलपुर. घर के पास ही संजीवन अस्पताल. यह 'घर पूरे देश और विदेश का भी - सांस्कृतिक केन्द्र है. यहाँ ग्रह-उपग्रह से जुड़ा कोई भारी उपकरण नहीं, टीवी, मोबाइल के सिवाय. पर खबरें... खबरें यहाँ पैदल,साईकिल,रिक्शे से लेकर इन्टरनेट तक के माध्यम से हड़बड़ाती दौड़ती-भागती चली आती हैं और हवा में पंख लगाकर जबलपुर की फिज़ा में उड़ने लगती हैं. हम रोज मंदिर की सुबह-शाम या एक बार यहाँ भले न जायें, पर हफ़्ते में दो तीन बार जाये बिना चैन से रह नहीं सकते. और यदि कतिपय कारणों से न जा पायें तो ज्ञान जी का फोन आ जायेगा - 'क्यों क्या बात है - आ जाओ जरा. और हम दौड़ते-भागते 101 नम्बर रामनगर हबड़-दबड़ पहुँच जाते हैं. - 'क्यों कोई खास बात, कहाँ थे, क्या कहीं बाहर चले गये थे.मेरी पहली मुलाकात कथाकार, पत्रकार, पर्यावरण कर्मी, सक्रियतावादी और अब अनुवादक भी - राजेन्द चन्द्रकांत राय, के साथ उनके अग्रवाल कालोनी वाले दूसरे तल पर बने उस छोटे से आयताकार आश्रम में - जिसमें नीचे एक मोटा किंतु खूब मुलायम गद्दा बिछा रहता और दो ओर पुस्तकों से भरी पूरी सिर की ऊँचाई तक पुस्तकों से अटी खुली अलमारी एक ओर टिकने की दीवार और चौथी ओर घर में भीतर की ओर खुलने वाला दरवाजा था. पत्रिकाओं-पुस्तकों के यहाँ-वहाँ लगे ढेर अलग. यहाँ-वहाँ बिखरे रहते. मैं जाता और चुपचाप बैठा लुभाता, पुस्तकों के नाम पढ़ता रहता. जब कभी कोई पत्रिका या पुस्तक ले आता और पढ़कर लौटा देता. सिलसिला चल निकला. वहीं पर दानी जी और इंद्रमणि जी से पहली मुलाकात हुई और बाद में मुलाकातों का सिलसिला चल निकला, जो आज तक मुसलसल जारी है.
 उन दिनों रचनात्मकता का भूत सा मुझ पर सवार था. जो लिखता वह मुझे सर्वश्रेष्ठ लगता. एक गलतफहमी अंदर भर गई थी कि जो मैं लिख रहा हूँ वह मुझे नामवर बना देगा. पर उसमें भावुकता बहुत भरी थी - इसका मुझे बहुत धीमे-धीमे कई सालों में अहसास हुआ. उसी समय मैंने गीता का अपने ही भावुक छंद में हिंदी में काव्यानुवाद सा किया था. मैंने उसके दूसरे अध्याय की एक-एक फोटोकापी ज्ञानजी और इन्द्रमणि जी को दी थी - उसी आयताकार छोटे कमरे में - जिसे देखकर उन्होंने चुपचाप रख लिया था. इंद्रमणि जी ने ज़रूर गीता पर अपनी कुछ टिप्पणियाँ दी थीं, अनुवाद पर नहीं. फिर मैंने भी     कभी उस बावत बात नहीं की. इससे पहले मैं किसी ठीक-ठाक ठिये की तलाश में भटक रहा था जो सामूहिक रचनात्मकता का केन्द्र हो. चंद्रकांत जी तो साथ थे ही, पर वे मजमा नहीं रचाते थे. हाँ निरंतर लिखने-पढ़ने रहते. उस समय उनका राजनीति के प्रति रुझान भी बड़ा गहरा था जो उनके लेखन की गति को अवरुद्ध किये रहता था. मैंने देखा कि शहर में हर साहित्यिक केन्द्र पर गंडा-ताबीज बांधन-बंधवाने, का रिवाज सा था. 'जब तक गंडा बंधवाकर पट और आज्ञाकारी शिष्य न बन जाओ और आज्ञाकारी की तरह दिया गया काम न करो आपकी किसी भी बात पर ध्यान नहीं दिया जायेगा और तब तक आपके लिखे-सुनाये पर वाह तो क्या आह भी नहीं निकलेगी, हाँ तुम्हारी कमियाँ और कमजोरियाँ खोद-खोद कर संकेतों-सूत्रों में आपके सामने पेश की जाती रहेंगी. 
           बहरहाल भटकाव जारी रहा. इनमें से कुछ अडडे तो ऐसे थे कि उन पर मौजूद चेहरे ही वितृश्णा पैदा करते थे. उनसे विद्वता तो बिल्कुल भी नहीं शातिरपन रिसता-टपकता रहता था और समर्पण  करने से रोकता-टोकता रहता था. इतनी महत्वाकांक्षा खुद में कभी नहीं रही और आत्मसम्मान इतना तो हमेशा बना रहा कि कुछ प्राप्ति के लिये मन के विपरीत साष्टांग लेट सकूं. हाँ, अग्रज होने और उसमें भी विद्वता की खातिर किसी के भी पैर छुए जा सकते हैं. पर वह भी तब जब निस्वार्थता और गहरी आत्मीयता महसूस हो तब.          
       बहरहाल, चंद्रकांत जी किशोरावस्था से ही स्तरीय पढ़ने और सक्रिय विधार्थी जीवन जी रहे थे अत: उनके अनुभव ज़मीनी थे और उन्होंने कम उम्र में ही मुख्य धारा को समझने और उस ओर रुख करने का सहूर और सलीका आ गया था जो मुझमें बहुत बाद में बहुत धीरे-धीरे आया पर अब भी पूरी तरह नहीं आया है. स्वभाव का भी    फर्क रहा. वे बहिर्मुखी अधिक रहे और मेरी अंतर्मुखता अभी तक मेरा पीछा नहीं छोड़ पा रही. धीरे-धीरे वे मेरे 'भैया बन गये. उनसे मुझे हमेशा आत्मीयता का भाव मिलता रहा है. मनमुटाव कभी नहीं हुआ, हाँ जब कभी हल्के-दुबले मतभेद किसी मुद्दे को लेकर ज़रूर रहे पर वे भी बहुत जल्दी उनकी या मेरी पहल पर कपूर की तरह काफूर हो गये. अब तक मैं तीस से अधिक वसंत पार कर चुका था और भावुकता से लबालब भरा था. चंद्रकांत जी को जब भी मैं कुछ लिखकर दिखाता या सुनाता तो कोर्इ विपरीत टिप्पणी नहीं करते, 'ठीक है, या इसे एकाध बार और लिखो. कहकर आगे बढ़ जाते.
                  यह सन 91-92 के आसपास की बात है. मैंने एक कविता लिखी, और जैसा कि अमूमन होता था, कुछ भी लिख लेने के बाद चंद्रकांत जी को लिखी गयी कविता सुनाने का मन हुआ अत:   उनके घर - जो पास ही था, चला गया. नीचे दरी पर बैठे अधलेटे वे कुछ पढ़ रहे थे. संबोधित हुए तो मैंने एक कविता पूरी करने की बात कही. उन्होंने सुनाने की बात कही और बैठ गये. मैंने कविता सुनाई तो उन्होंने कहा - 'यह तो बहुत अच्छी कविता है. इसे एकाध बार  और लिखोगे तो यह संवर जायेगी. हम बात कर ही रहे थे कि फोन की घंटी बजी. उस समय मोबाइल नहीं टिनटिनाते थे. चंद्रकांत जी ने बातचीत के दौरान ज्ञान जी के पूछने पर कि 'क्या कर रहे हो? -  बताया - 'बिल्लौरे जी ने एक बहुत बढि़या कविता लिखी है, वही सुन रहा था. तो ज्ञान जी का उत्तर था - 'यहीं चले आओ हम भी सुनेंगे. कहकर फोन रख दिया. हम दोनों आनन-फानन में जेपीनगर से ज्ञान जी के घर 101 रामनगर पहुँच गये. उन्होंने वह कविता सुनी नहीं, लिखी हुई कविता ली और उलट-पलट कर देखी. पहले अंतिम भाग पढ़ा, फिर ऊपर, फिर बीच में देखकर एक बार फिर षुरू से आखीर तक पुन: नज़र दौड़ार्इ और बोले - 'यह तो पहल में छपेगी. कहकर उन्होंने पन्ना लौटा दिया और कहा - 'तीन चार कविताएं और इसके साथ दे देना अगले अंक के लिये. और वह कविता तीन और कविताओं के साथ पहल के 46 वें अंक में सन 92 में प्रकाशित हुर्इ. यह मेरा किसी भी साहित्यिक-पत्रिका में छपने का पहला अवसर था. और षायद मेरे साहित्यिक जीवन की षुरूआत भी यहीं से मुझे मानना चाहिये. इसक पहले तो बस लपड़-धों-धों थी. मेरी रचनात्मक प्यास ने तब फिर कभी नहीं सताया. बस एक और दूसरी प्यास और भूख भी जागने लगी - अच्छा पढ़ने और उसे पाने की, जो अब तक मुसलसल जारी है और मिटती नहीं, बढ़ती ही जाती है, जितना खाओ-पीओ या कहें पीओ-खाओ. एक और बात थी ज्ञान जी के यहाँ निर्द्वंद्व जाने की. भाभीजी की स्वागत मुस्कान और आगत चाय-पकवान तथा पाशा-बुलबुल का स्नेह. उनकी सहज सरलता, अपनत्व और वहाँ आने जाने वाले स्तरीय लोगों से मेल मुलाकात तब मिलता रहा. यह सिलसिला अब तक जारी है और ताजिंदगी रहेगा ऐसा मेरा प्लेटिनिक-विश्वास कहता है.
       पाशा अब नागपुर में हैं और बुलबुल विदेश में. पाशा तो आते जाते रहते हैं और उनसे मेल-मुलाकात और फोन से बातचीत होती रहती है. कुछ काम-धाम की बातें भी. पर बुलबुल, बुलबुल का दरस-परस दुर्लभ हो गया है. अब तो एक और छोटी बुलबुल उनके पास आ गयी है. पिछली बार जब बुलबुल अमरीका से अल्पकाल के लिये आयी थी तो मेरे और मेरे घर के लिये भी चाकलेटों के दो बडे़ से पैकेट और पल्ल्व (बेटे) के लिये एक बहुत सुन्दर किताब भेंट में दी थी. जिसे अब तक सहेजकर मैंने अपने पास रखा है.
        ज्ञान जी की एक खास आदत ने भी मुझे उनकी ओर गहरे आकर्षित किया. वे न तो फालतू बातें कभी करते हैं और न ही उनमें उन्हें सुनने रुचि या क्षमता. वे काम और उसमें भी मुद्दे की बात वे करते सुनते हैं. बकवाद में उनकी रुचि बिल्कुल नहीं. हमेशा सजग, सतर्क और तत्पर ज्ञानेनिद्रयाँ. अतार्किक और अवैज्ञानिक तथ्य पर धारदार हमला, और अपने मिलने-जुलने वालों के भीतरी संसार की नियमित स्केनिंग उनके द्वारा होती रहती और नकारात्मक सोच देख सुन कर बराबर सचेत करते रहने का उनका उपक्रम कभी नहीं रुका, और अब तक जारी है. मुसलसल...
एक खास बात और - मैं उनके साथ पहल-सम्मानों के दौरान देष के छोरों तक के कर्इ षहरों में गया हूँ. हर जगह उन्हें खूब प्यार और दुलार देने वाले लोगों का समूह है. उनके हमउम्र, उनसे वरिष्ट तो उनसे प्रभावित रहते ही हैं, पर खास बात यह कि युवा लोंगों का स्नेह और प्यार उन्हें बेइंतहा मिलता है. कार्यक्रम की जिम्मेदारी स्थानीय टीम इतनी तत्परता और जिम्मेदारी से करती कि हम जबलपुर से पहुंचे कार्यकर्ताओं को अधिक दौड़धूप और मशक्कत नहीं करना पड़ती, बलिक मेहमान की तरह हमारा स्वागत और देखभाल की जाती. देष के हर शहर, कस्बे और गाँवों में तक ज्ञान जी का आंतरिक सम्मान और आदर करने और उनके इषारों को समझने और उन पर तत्परता से अमल करने वाले मिल जायेंगे. यह मैंने उनके साथ अपनी यात्राओं के दौरान महसूस किया.
और इस संस्मरण के अंत में इतना और कहने की गहरी इच्द्दा है कि मेरे साहित्यिक जीवन को दिषा देने वालों में राजेन्द्र चंद्रकांत राय के बाद यदि प्रमुखता से किसी और का नाम जुड़ता है तो वह है - ज्ञानरंजन. उनके दिशा-निर्देशों के बिना शायद में आज यह सब लिखने के काबिल न हो पाता और यह साहस भी न कर पाता.
 
मनोहर बिल्लोरे जी की कविता 
पिछले - 
कई सालों से
हम हैं विधार्थी
'पहल स्कूल के
पहली कक्षा के 
पहले पाठ में पढ़ा, हमने 
'वैज्ञानिक दृ्ष्टिकोण 
वह दृष्टि
अक्सर होती है जो - 
कम ही वैज्ञानिकों के पास 
वह कोण जो माप ही नहीं पाते 
अक्सर गणितज्ञ, और वह भाव
जिसका होता है अक्सर, अभाव
वहाँ, जहाँ उसे होना चाहिए
यहाँ मिलती है दृष्टि 
मापन... और होता है 
मूल्यांकन सतत...
फिजूल बातों को यहाँ 
एडमीशन नहीं मिलती जगह,
नहीं मिलता अवकाश, 
नाटकों को मिलती है यहाँ 
पर्याप्त जगह, नाटक-बाजी के लिये 
यहाँ कोई सीट खाली नहीं 
स्कूल में बने रहना है, तो
दूर और देर तक देखना सीखो
हर कोण पर ध्यान दो, 
जगह को अच्छी तरह परखो
अपने काम मगनता से करो
उत्साह और उमंग की बसाओ 
अपनी एक नई दुनिया 
 
आपके पास नहीं है 
गहराने की चाह तो उपजाओ,
अपनी जमीन को हलो-बखरो, 
दो खाद-पानी, बौनी करो
 कितने ही लोग डरकर 
भाग जाते हैं यहाँ से
कितने ही लोग भय से 
नहीं आ पाते यहाँ 
'पहल का 
पहला पाठ, हमने पढ़ा 
कई साल पहले, लगाकर 
खूब मन, बदला खुद को 
धीरे-धीरे, थोड़ा  ही सही,
बदला सुध-बुध को... 
एक  आकाश देखा, 
खुला... खुला, निगाहें
बंद कीं तो खुला अंत: आकाष
धुला-धुला, स्वच्छ, उजला
एक नदी बह रही है,
पास जाकर सुनो 
नदी कुछ कह रही है 
अगर... धीमे ही सही
सकारात्मक बदलाव की क्रमबद्ध 
निरंतरता और प्रमाणिकता को 
बनाये नहीं रख सकते, तो 
फेल हो जायेंगे आप परीक्षा में
बहुत कम नंबर मिलेंगे, और जो 
मिलेंगे वह भी मनुश्यता और
मानवीय-दृष्टि की बदौलत
आप का नाम स्कूल के 
दाखिल-खारिज़ रजिस्टर से
कट भी सकता है
जन-संस्कृति के बीज यदि
आप अपने अंदर नहीं उगा सके 
तो, कारण बताओ नोटिस 
मिल सकता है आपको
स्कूल के बाग में आपका 
जाना - आना,
हो सकता है प्रतिबंधित
हमेशा-हमेशा के लिये 
डूबकर बातें आपसे 
नहीं हो सकतीं उस तरह
जैसी हो सकती थी।
उस समय, उस जगह... 
हम पढ़ रहे हैं
और अच्छे नम्बरों से न सही
परीक्षाएं, कर रहे हैं पास
साल-दर-साल, हर साल
पिछले - 
कई  सालों से
        
मनोहर बिल्लौरे,1225, जेपीनगर, अधारताल,जबलपुर 482004 (म.प्र.)मोबा. - 89821 75385
मेल आई डी "मनोहर बिल्लोरे " या manoharbillorey@gmail.com 

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