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रविवार, सितंबर 06, 2020

भीष्म पितामह के तर्पण के बिना श्राद्ध कर्म अधूरा क्यों ?

     
गंगा और शांतनु के पुत्र देवव्रत ने शपथ ली कि मुझे आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करना है तो यह पूछा कि उसे कोई आशीर्वाद मिले . हस्तिनापुर की राजवंश की रक्षा अर्थात संपूर्ण राष्ट्र की रक्षा का दायित्व लेकर ब्रह्मचारी भीष्म पितामह के नाम से प्रसिद्ध हुए इस पर बहुत अधिक विवरण देने की जरूरत नहीं है। आप सभी इस तथ्य से परिचित ही है .
 
      भीष्म पितामह को श्राद्ध पक्ष में याद क्यों किया जाता है यह महत्वपूर्ण सवाल है ?
     सुधि पाठक आप जानते हैं कि महाभारत धर्म युद्ध होने के एक कौटुंबिक युद्ध भी था ! क्योंकि इसमें पारिवारिक विरासत का राज्य एवं भूमि विवाद शामिल था। ध्यान से देखें तो हस्तिनापुर पर दावा तो पांडव कब का छोड़ चुके थे। महायोगी कृष्ण के संपर्क में आकर उन्होंने मात्र 5 गांव मांगे थे। परंतु कुटुंब में युद्ध सभी होते हैं जबकि अन्याय सर चढ़कर बोलता है। विधि व्यवसाय से जुड़े विद्वान जानते हैं कि सर्वाधिक सिविल मामले न्यायालयों में आज भी  रहते हैं। महाभारत का स्मरण दिला कर हमारे  पुराणों के रचनाकारों ने यह बताने की कोशिश की है कि कौटुंबिक अन्याय हमारे पूर्वजों पर ही भारी पड़ता है। हमें अन्याय नहीं करना चाहिए ना ही उस अन्याय में भागीदारी देनी चाहिए। पारिवारिक की सा प्रतिस्पर्धा निंदा अच्छा या बुरा होने की निरंतर समीक्षा भेद की दृष्टि अर्थात अपने और अन्यों के पुत्रों में पुत्रियों में अंतर स्थापित करने की प्रक्रिया और घर में बैठकर अपने बच्चों को यह सामने पूर्वजों या समकालीन रिश्तेदारों को पूछने की प्रक्रिया आज के दौर में महाभारत को जन्म देती है। विद्वान ऋषि मुनि जान  चुके थे कि द्वापर के बाद कलयुग में यह स्थिति चरम पर होगी। पिता अपनी संतानों को श्रेष्ठ साबित करेंगे और सदा केवल उन्हीं के पक्ष में बोलेंगे, कई बार तो असंतुष्ट पिता और माताएं संतानों में ही भेद की दृष्टि अपनाने लगेगी । चाचा बाबा दादा काका बुआ भतीजे केवल आत्ममुग्ध होकर सामुदायिक न्याय से विमुख होंगे, संपदा एवं अस्तित्व की लड़ाई होगी सब परिजन अदृश्य रूप से युद्ध रत होंगी और वह युद्ध महाभारत का होगा। ऐसे युद्ध की परिणीति का स्वरुप होगा कि घर का कोई ना कोई बुजुर्ग जीत या हार के  परिणाम के बावजूद  सर-शैया पर लेटा हुआ नजर आएगा है ।
     जहाँ तक भीष्म के पास  इच्छा मृत्यु का वरदान था ।  मिला या उन्होंने मांग लिया था ये अलग मुद्दा है । वे चाहते थे कि जब सूर्य दक्षिणायन हो तब उनकी आत्मा शरीर को छोड़ें। वे सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा करते हुए वह मृत्यु की प्रतीक्षा करते रहे। अगर मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से हम समझे तो पाते हैं कि भीष्म पितामह पीड़ा की उस शैया पर लेटे लेटे मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहे थे जो शैया उन्हें चुप रही थी ।
यह शैया कैसे बनी थी ?
  जी हां यह बनी थी उन परिजनों की मर जाने के दुखों से ....!
  हजारों हजार रिश्तेदार मारे गए थे और यह महा शोक पल-पल उन्हें चुभ रहा था !
    इतना बड़ा विशाल लेकर मरने वाली भीष्म पितामह की आत्मा को शांति मिले इसलिए पुराणों में कहानियों में पितृपक्ष के दौरान भीष्म पितामह के लिए भी अपना परिजन मानते हुए तर्पण किया जाता है ।
   बिना भीष्म पितामह को अंजुरी जल दिए श्राद्धकर्म अपूर्ण है । और यह तर्पण इसलिए किया जाता है कि हम याद रखें कि हम कौटुंबिक युद्ध में अपने कुटुंब को ना जो झोंके। हम सत्ता पद प्रतिष्ठा यश और  नाम की लालच में पक्षद्रोही ना होकर और सदा अपने कुटुंब के साथ ही रहें ।
भीष्म पितामह का तर्पण यही संदेश देता है।

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