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शनिवार, अप्रैल 23, 2011

बवाल के स्वरों में सुनिये गीत " कुछ झन झन झन था"

लुकमान चाचा 


बवाल हिंदवी यानी एक सम्पूर्ण कलाकार यानी एकदम पूरा का पूरा बवाल जब मंच पर आये तो समझिये लोग एक पल भी ऐसे बवाल से दूर न होने की क़सम खा लेते हैं. विनोबा-भावे ने  जबलपुर को सैंत में न दिया ये नाम एक बानगी तो देखिये....


लाल और बवाल ब्लाग से साभार  



वाल एक ऐसे उस्ताद का शागिर्द है जिनने उर्दू -कव्वाली कव्वाली से उर्दू का एकाधिकार समाप्त किया.हिंदी कविताओं गीतों को प्रवेश दिलाया था कवाली-शैली की गायकी में. बवाल के गुरु स्वर्गीय लुकमा जो गंधर्व से कम न थे. हम लोगों में  गज़ब की दीवानगी थी चच्चा के लिये...देर रात तक उनको सुनना उनकी महफ़िल सजाना एक ज़ुनून था.. फ़िल्मी हल्के फ़ुल्के संगीत से निज़ात दिलाती चचा की महफ़िल की बात कैसे बयां करूं गूंगा हो गया हूं..गुड़ मुंह में लिये   
आप सोच रहें हैं न कौन लुकमान कैसा लुकमान कहाँ  का लुकमान जी हाँ इन सभी सवालों का ज़वाब उस दौर में लुकमान ने दे दिया था जब  उनने पहली बार भरत-चरित गाया. और हाँ तब भी तब भी जब गाया होगा ''माटी की गागरिया '' या मस्त चला इस मस्ती से थोड़ी-थोड़ी मस्ती ले लो   (आगे देखिये यहां चचा लुक़मान के बारे में)


शुक्रवार, जनवरी 15, 2010

शहर जबलपुर की शान लुकमान





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जी अब इस शहर में आइनों की कमीं को देख के मलाल होता है की क्यों लुकमान नहीं हैं साथ . बवाल हों या समीर लाल  चचा   लुकमान  थे  ही ऐसे . गोया अल्लाह ने लुकमान के लिबास में एक फ़रिश्ता भेजा था इस ज़मीं पर....जिसे मैंने छुआ था उनके चरण स्पर्श कर.  दादा लुकमान की याद किसे नहीं आती . सच मेरा तो रोयाँ-रोयाँ खड़ा हो गया था .....27 जुलाई 2002 का वो दिन जब लुकमान जी ने शहर जबलपुर से शरीरी रिश्ता तोडा ........ वे जेहन से दूर कभी हो भी नहीं सकते . जाने किस माटी के बने थे जिसने देखा-सुना लट्टू हो गया . इस अद्भुत गंगो-जमुनी गायन प्रतिभा को उजागर किया पंडित भवानी प्रसाद तिवारी ने , इस बिन्दु पर वरिष्ठ साहित्यकार मोहन शशि का कहना है:-"भवानी दादा के आशीर्वाद से लुकमान का बेलौस सुर-साधक होना सम्भव हो सका धर्म गुरुओं ने भी लुकमान की कव्वालियाँ सुनी"शशि जी ने आगे बताया -"लुकमान सिर्फ़ लुकमान थे (शशि जी ने उनमें नकलीपन कभी नहीं देखा) वे मानस पुत्र थे भवानी दादा के " १४ जनवरी १९२५ (मकर संक्राति) को जन्मा यह देवपुत्र जन्म से मोमिन,था किंतु साम्प्रदायिक सदभाव का मूर्त-स्वरुप था उनका व्यक्तित्व. सिया-चरित,भरत-चरित, मैं मस्त चला हूँ मस्ती में थोडी थोडी मस्ती लेलो , माटी की गागरिया , जैसे गीत बिना किसी लुकमानी महफ़िल का पूरा होना सम्भव ही नहीं होता था।लुकमान साहब को अगर साम्प्रदायिक सौहार्द का स्तम्भ कहें तो कम न होगा। भरत चरित सुन के कितनी पलकें भीगीं किसे मालूम ? मुझे याद है कविवर रामकिशोर अग्रवाल कृत भरत चरित्र, सिया चरित,सुनने वालों की पलकें अक्सर भीग जातीं मैंने देखीं हैं . साधना उपाध्याय,मोहन शशि,स्वयं रामकिशोर अग्रवाल "मनोज", ओंकार तिवारी,रासबिहारी पांडे , बाबू लाल ठाकुर मास्साब, डाक्टर सुधीर तिवारी,और यदि लिखने बैठूं तो एक लम्बी लिस्ट है जिसे लिखना लाजिमी नहीं है.लुकमान  का चचा के साथी एक बवाल दूजा डुलकिया कुबेर ,शेषाद्री एक बाजा यानी बैंजो ,और पेटी जिसे खुद चचा बजाते थे. चचा विश्व के लिए मिसाल थे हिन्दू मुसलमान ईसाई सभी चचा  की गायकी मुरीद कुल मिला ले कट्टर पंथियों के गाल पे करारा तमाचा थे लुकमान.
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श्रीमती जी के साथ एक बार साहित्यिक कार्यक्रम में चचा से मिला चरण स्पर्श किया श्रीमती जी ने अनमने भाव से नमस्कार किया किन्तु ज्यों हीं उनके मुख से सिया चरित सुना तो बस गोया मन उनका कंचन सा हो गया मानो कार्यक्रम की समाप्ति पर सुलभा ने सबसे पहले चरण स्पर्श किये. हम जो चचा के चरण-स्पर्श से इतने सफल हो गए तो वे कितने सफल न हुए होंगे जिनने चचा के अंतस को स्पर्श किया होगा.
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आप सोच रहें हैं न कौन लुकमान कैसा लुकमान कहाँ  का लुकमान जी हाँ इन सभी सवालों का ज़वाब उस दौर में लुकमान ने दे दिया था जब  उनने पहली बार भरत-चरित गाया. और हाँ तब भी तब भी जब गाया होगा ''माटी की गागरिया '' या मस्त चला इस मस्ती से थोड़ी-थोड़ी मस्ती ले लो 
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मैं इस कोशिश में हूँ कि चचा के गाये गीत आप तक शीघ्र लाऊं यदि बवाल ने मदद की तो ये संभव होगा
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पंडित लुकमान भाईजान हो विनत श्रद्धांजलियां
समाचार कतरन पत्रिका जबलपुर से साभार {यद्यपि आज सामग्री इस लिंक पर नहीं है }
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मेरा फोटो
प्रीती का आज का सबसे सामयिक आलेख  भी देखिये
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इनके आलेख को तो सब देख ही रहे हैं है न ब्लागवाणी पर टाप-ओ-टाप
चल रिया है
निवाले छीनने वाले सर्वत्र हैं यहाँ भी  फिर भी झारखंड का एक चटके में नज़ारा भी ज़रूरी है 

शुक्रवार, जनवरी 16, 2009

ये मस्त चला इस मस्ती में थोडी थोडी मस्ती लेलो :लुकमान चाचा


यह सही नहीं कि समीर लाल जी मोदीवाडा सदर में लुकमान को सुनते थे , खासतौर पर होली ? ऐसा नहीं था जहाँ भी चचा का प्रोग्राम होता भाई समीर की उड़न-प्लेट सम्भवत:वेस्पा स्कूटर पर सवार हो कर चली आती थी .
दादा दिनेश जी विनय जी को आभार सहित अवगत करना चाहूंगा कि:- पंडित भवानी प्रसाद तिवारी जी ,के बाद वयोवृद्ध साहित्यकार श्रीयुत हरिकृष्ण त्रिपाठी जी का स्नेह लुकमान पर खूब बरसा . मित्र बसंत मिश्रा बतातें हैं:-'असली जबलपुर में चचा कि महफिलें खूब सजातीं थीं भइया गिरीश तुमको याद होगा मिलन का कोई भी कार्यक्रम बिना लुकमान जी के अधूरा होता था ''
मुझे अक्षरस:याद है कि मिलन के हर कार्यक्रम में लुकमान का होना ज़रूरी सा हो गया था ।
  • चाचा लुकमान को जन्म तिथि याद न थी ..!
14 जनवरी 1925 मैंने उनकी जन्म तारीख लिखी ज़रूर है किंतु उनके स्नेही और 1987 से अन्तिम समय तक साथ रहने वाले शागिर्द भाई शेषाद्री अयैर और दीवाना बना देने वाले ढोलक वादक "कुबेर"कहतें हैं जब मन-मस्त हो रब से मिलन का तारतम्य बने समझो वही दिन लुकमान के जन्म का दिन है
  • भवानीदादा की विदाई
भवानी दादा की पार्थिव देह को श्रद्धा सुमन अर्पित किए जा रहे थे किसी ने कहा चाचा दादा को उनका पसंदीदा गीत सुना दो जाते-जाते चाचा ने भारी मन से अपने पूज्य को सुना ही दिया :-ये मस्त चला इस मस्ती में थोडी थोडी मस्ती लेलो...!!
क्रमश:


गुरुवार, जनवरी 15, 2009

बबाल का शुक्रिया : लुकमान साहब को याद करने का

जी अब इस शहर में आइनों की कमीं को देख के मलाल होता है की क्यों लुकमान नहीं हैं साथ . बवाल हों या लाल दादा लुकमान की याद किसे नहीं आती . सच मेरा तो रोयाँ-रोयाँ खड़ा हो गया था .....27 जुलाई 2002 का वो दिन जब लुकमान जी ने शहर जबलपुर से शरीरी रिश्ता तोडा ........ वे जेहन से दूर कभी हो भी नहीं सकते . जाने किस माटी के बने थे जिसने देखा-सुना लट्टू हो गया . इस अद्भुत गंगो-जमुनी गायन प्रतिभा को उजागर किया पंडित भवानी प्रसाद तिवारी ने , इस बिन्दु पर वरिष्ठ साहित्यकार मोहन शशि का कहना है:-"भवानी दादा के आशीर्वाद से लुकमान का बेलौस सुर-साधक होना सम्भव हो सका धर्म गुरुओं ने भी लुकमान की कव्वालियाँ सुनी"शशि जी ने आगे बताया -"लुकमान सिर्फ़ लुकमान थे (शशि जी ने उनमें नकलीपन कभी नहीं देखा) वे मानस पुत्र थे भवानी दादा के " १४ जनवरी १९२५ (मकर संक्राति) को जन्मा यह देवपुत्र जन्म से मोमिन,था किंतु साम्प्रदायिक सदभाव का मूर्त-स्वरुप था उनका व्यक्तित्व. सिया-चरित,भरत-चरित, मैं मस्त चला हूँ मस्ती में थोडी थोडी मस्ती लेलो , माटी की गागरिया , जैसे गीत बिना किसी लुकमानी महफ़िल का पूरा होना सम्भव ही नहीं होता था।लुकमान साहब को अगर साम्प्रदायिक सौहार्द का स्तम्भ कहें तो कम न होगा। भरत चरित सुन के कितनी पलकें भीगीं किसे मालूम ? मुझे याद है कविवर रामकिशोर अग्रवाल कृत भरत चरित्र, सिया चरित,सुनने वालों की पलकें अक्सर भीग जातीं मैंने देखीं हैं . साधना उपाध्याय,मोहन शशि,स्वयं रामकिशोर अग्रवाल "मनोज", ओंकार तिवारी,रासबिहारी पांडे , बाबू लाल ठाकुर मास्साब, डाक्टर सुधीर तिवारी,डाक्टर हर्षे,और यदि लिखने बैठूं तो एक लम्बी लिस्ट है जिसे लिखना लाजिमी नहीं है.

क्रमश:

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