“भारत में शिक्षा : एक चिंतन "
विश्व के सापेक्ष हमारा अक्षर ज्ञान कमतर है ऐसा कथन हमारी सामाजिक व्यवस्था के माथे पर लगा सवाल है जिसका हल तलाशना न केवल अब ज़रूरी है वरन समग्र विकास के लिये आवश्यक है कि शिक्षा को अब अक्षर ग्यान से ऊपर उठाना ही होगा . “भारत में शिक्षा” को केंद्रीय विषय बना कर अगर आप विचार करें तो पाएंगे कि भारत में शिक्षा एक अज़ीबोगरीब स्थिति या कहूं कि आकार ले चुकी है. जहां लोग अपने बच्चों के लिये शिक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता वाले पायदान पर रख रहें हैं वहीं दूसरी ओर शिक्षा के लिये उन लोगों परिवारों की कमी नहीं जो आज़ भी इस तरह के मिथक से बाहर नहीं आ पाए हैं जिसमें कहा है-“पढ़ै लिखै कछु न होय : हल जोते कुटिया भर होय ” ऐसी कुठिया भर होय की कल्पना उन दिनों की है जब कि किसान के पास विकल्पों की कमी थी . हाथ में केवल हल-बैल थे, पारिवारिक विरासत वाली भूमियां थीं, आकाश से बरसात की उम्मीदें थीं. गांव था जहां शिक्षा का मंदिर न था, शिक्षा की गारंटी न देती थी सरकार, संचार संसाधन न थे, अब सब कुछ है तो क्यों स्कूल न भेजने वाली इस जनोक्ति जिसमें कहा है - ल जोते कुटिया भर होय को जन मानस बाहर का