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16.1.22

कहानी आचार्य चंद्रमोहन जैन लेखक पंडित सुरेंद्र दुबे

ओशो की आलोचना क्यों? इस प्रश्न का उत्तर स्वयं ओशो में छिपा है। वह यह कि ओशो अपने समय के सबसे बड़े आलोचक थे। कोई ऐसे-वैसे आलोचक नहीं बल्कि बड़े ही सुतार्किक समालोचक। जिन्होंने कुछ भी अनक्रिटिसाइज़्ड नहीं रहने दिया। उन्होंने अपनी सदी ही नहीं बल्कि पूर्व की सदियों तक में व्याप्त विद्रूपताओं पर जमकर कटाक्ष किया। उनके बेवाक वक्तव्यों में अतीत और वर्तमान ही नहीं भविष्य के सूत्र भी समाहित होते थे। यही उनकी दूरदर्शिता थी, जो उन्हें कालजयी बनाती है। उन्होंने निर्भीकतापूर्वक परम्परागत धर्मों की जड़ों पर वज्रप्रहार तक से गुरेज़ नहीं किया। इस वजह से कट्टरपंथियों-रूढिवादियों का भयंकर विरोध भी झेला। राजनीति व राजनीतिज्ञों का खुलकर माखौल उड़ाया।जिसके कारण उच्च पदासीनों की वक्रदृष्टि तक पड़ी। जिससे ओशो कभी विचलित नहीं हुए। वे किसी त्रिकाल-दृष्टा की भाँति अडिग भाव से अपने पथ पर बढते चले गए। कभी न तो विरोधियों की परवाह की, न ही समर्थकों को मनमानी करने दी। वस्तुत: उनका अपना आत्मानुशासन था, जिसके बावजूद स्वातंत्र्य उनका मूल स्वर था। जरा देखिए, उन्होंने कितनी अद्भुत देशना दी- "सम्पत्ति से नहीं,स्वतंत्रता से व्यक्ति सम्राट बनता है, मेरे पास मैं हूँ, इससे बड़ी कोई सम्पदा नहीं।" इतने महान ओशो की समालोचना का भार मैंने अपने कान्धों पे उठाया है। यह कोई आसान कार्य नहीं। आपको सिर्फ ओशो की समालोचना को पढते रहना है, यही मेरे श्रम का उपयुक्त मूल्य है।
जगत के ओशो, जबलपुर के आचार्य रजनीश, जो 19 जनवरी 1990 को शाम 5 बजे तक देह में थे। चूँकि आत्मा अजर-अमर-अविनाशी है, अत: देह से मुक्त हो जाने के बावजूद उनके अब भी अस्तित्व में बरकरार होने से इनकार नहीं किया जा सकता। कमोवेश यह ओशो का ही नहीं बल्कि प्रत्येक व्यक्ति का सत्य है। क्योंकि सभी मूलत: सिर्फ शरीर नहीं चिरन्तन शाश्वत आत्मतत्व हैं। आत्मा ठीक वैसे ही अनादि है, सदा से है और सदा रहेगी जैसे परमात्मा और ब्रह्मांड का भौतिक रहस्य अर्थात प्रकृति। इसलिए जाने वाले के प्रति जैसे शोक व्यर्थ है, वैसे ही मोह भी। ऐसा इसलिए क्योंकि मोहजनित 'राग' ही 'बन्धन' का कारण है, जबकि 'विराग' ही 'मुक्ति' का साधन। जो देहमुक्त होकर चले गए भावुक मनुष्य द्वारा प्रेम के वशीभूत उनका पुण्य-स्मरण करते रहना स्वाभाविक सी बात है, किन्तु मोह व राग का बना रहना घातक है। मेरे विचार से सच्चा प्रेम वही है, जो राग रहित हो, जिसका आधार मोह न हो। प्रेम तो बस प्रेम हो, सहज, सरल, निश्छल। ऐसा होने पर ही वह प्रेमी और प्रेमपात्र दोनों के लिए मुक्ति का कारक बनेगा अन्यथा बन्धन। आध्यात्मिक दृष्टि से मुक्ति के लिए इस अहम सूत्र को गहराई से समझना, स्मरण रखना और आचरण में उतारना अति आवश्यक है। फिर दोहराए देता हूँ कि प्रेम और राग में मूलभूत विभेद है, प्रेम मुक्ति का जबकि राग बन्धन का कारण बनता है। आज देखता हूँ कि ओशो जैसी विराट देशना के अध्येता और उनकी ध्यान विधियों के अनुरुप साधनारत देश-दुनिया में फैले करोडों संन्यासी 'ओशोवादी' होने जैसी संकीर्ण मनोवृत्ति के शिकार हो गए हैं। यह सब देख कर मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं है, क्योंकि जिन ओशो ने अपनी शरण में आने वाले आध्यात्मिक रुप से प्यासे व्यक्तियों से उनका जन्मजात पुराना धर्म-जाति आदि परिचय एक झटके में छीनकर 'नए मनुष्य' की संरचना के लिए अभूतपूर्व 'नव-संन्यास' दिया, वे भी उसी अतत: उसी मूढ़ता के शिकार हो गए हैं, जिसके विरोध में बीसवीं सदी के सम्बुद्ध रहस्यदर्शी ओशो सामने आए थे। ओशो ने 'साधक' और 'परमात्मा' के बीच से धर्म-अध्यात्म के ठेकेदारों को हटाने का क्रान्तिकारी कारनामा किया था। यह स्वच्छ-ताजी हवा का एक अतीव आनंददायक झौंका था। लेकिन उनके देहमुक्त होते ही ओशो के अधिकारी स्वयं वही करने लगे आजीवन ओशो जिसके मुखालिफ रहे। दुर्भाग्य ये कि ओशोवाद, ओशोधर्म, ओशोसम्प्रदाय जैसी संकीर्णता सिर उठा चुकी है। ओशो के दीवाने-परवाने-मस्ताने अपने दिल-दिमाग की खिड़कियां, गवाक्ष, वातायन सभी द्वार बन्द किए हुए हठधर्मी सा हास्यास्पद व्यवहार करने लगे हैं। वे पूरी तरह आश्वस्त से हो गए हैं कि अब ओशो से बेहतर 'बुद्ध-पुरुष' का उद्भव इस पृथ्वी पर असम्भव है। ओशो ही भूतो न भविष्यति थे, किस्सा खत्म। हम ओशो कृपाछत्र के तले आत्मज्ञान अर्जन की साधना में रत रहकर सम्बुद्ध होने में जुटे रहें, इस तरह ओशो की धारा के सम्बुद्ध बढ़ते रहें, कोई स्वतंत्र बुद्ध अब मुमकिन नहीं। ओशो के सील-ठप्पे के बिना बुद्धत्व का सर्टिफिकेट मान्य नहीं होगा। सर्वाधिकार सुरक्षित। कॉपीराइट हमारा। खबरदार! किसी ने एकला चलो रे गीत गुनगुनाने की हिमाकत की तो वह मिसफिट करार दे दिया जाएगा, उसकी आध्यात्मिक साधना प्रश्नवाचक हो जाएगी।
ओशो एक इंटरनेशनल ब्रांड हैं, जो जबलपुर से उछाल मारकर देश-दुनिया में छा गए। जबलपुर को अपनी जिन विशेषताओं पर नाज है, नि:संदेह उनमें वे प्रथम पंक्ति में आते हैं। तीस साल पहले देह मुक्त हो चुकने के बावजूद वे आज भी अपने विचारों के जरिए जीवन्त बने हुए हैं। वीडियो में उनको बोलते देखा जा सकता है। ऑडियो में उनकी आवाज़ सुनी जा सकती है। किताबों में उनकी बातें पढ़ी जा सकती हैं। तस्वीरों में उनके दर्शन किए जा सकते हैं। स्मार्ट मोबाइल में एक क्लिक पर उनके विचार जाने जा सकते हैं। इन सभी तरीकों से लोग उनसे जुड़ सकते हैं। उनके विचारों से प्रेरणा ग्रहण कर सकते हैं। यह बाहरी स्तर की बात है। आन्तरिक स्तर में ओशो कम्यून व विभिन्न ओशो आश्रम आते हैं। साधारण जिज्ञासुओं द्वारा भी इसमें ध्यान के लिए प्रवेश किया जा सकता है। कमलपत्रवत नृत्य उत्सव-महोत्सव का आनंद लिया जा सकता है। ओशो लायब्रेरी की सदस्यता लेकर किताबें पढ़ी जा सकती हैं। ओशो जगत के बाहरी व आन्तरिक स्तर के बाद एक तीसरा स्तर आता है, जहाँ लोग अनुयायी बन जाते हैं। आध्यात्मिक प्यास, ऊहापोह भरी मानसिक अवस्था, ओशो-प्रेम के ज्वर, स्व-प्रेरणा या फिर किसी ओशोवादी से प्रभावित या वशीभूत होकर संन्यास ले लेते हैं। हालांकि ज्यादातर ओशो वर्ल्ड का ग्लैमर भी उसका हिस्सा बन जाने की एक बड़ी वजह होता है। यहाँ वह सब आसानी से मुहैया हो सकता है, जो बाहर समाज में पा लेना अपेक्षाकृत कठिन है। इस तरह के लोग बिना गहरी प्यास के मरूंन चोला और ओशो की तस्वीर वाली माला धारण कर लेते हैं। यहीं से घर कर जाती है-संकुचन की बीमारी। जो त्रासदी की भूमिका बनती है। अब ओशो-रंग दिल-दिमाग में इस कदर छा जाता है कि परमात्मा विस्मृत सा हो जाता है। ओशो के प्रति घनीभूत प्रेम शीघ्र ही कट्टर ओशो-भक्त बना देता है। स्वयं की सोच-समझ और स्वविवेक गुजरे जमाने की चीज़ होकर रह जाते हैं। रही सही कसर ओशो-जगत में सहजता से उपलब्ध दैहिक-आकर्षण पूरी कर देता है। इस तरह अधिकतर संन्यासी 'गए थे हरि भजन को ओटन लगे कपास' की विडम्बना के शिकार हो जाते हैं। आत्मज्ञान या सम्बोधि की बात दूर छिटक जाती है, ध्यान-योग से पहले मन भटकाव के बियावान जंगल में दाखिल हो जाता है। जोरबा के चक्कर में बुद्धा हवा हो जाता है। नया मनुष्य दूर की बात है, पुराना मनुष्य और पुराना होकर आदमी की क्षुद्र हैसियत में जकड़ देता है। आखिर में न खुदा मिला न बिसाले सनम यानि न घर के रहे न घाट के वाली त्रिशंकु अवस्था हो जाती है। सिर्फ ओशो-ओशो की जुगाली करते रहना ही शेष रह जाता है। स्वयं के स्तर पर नई खोज का रास्ता बन्द सा हो जाता है। मौलिक सोच-समझ शून्य हो जाती है। विडम्बनाग्रस्त मरूंन चोला-मालाधारी व्यक्ति ओशो-साहित्य की चलती-फिरती प्रदर्शनी मात्र रह जाता है। वह बिजूका सरीखा नज़र आने लगता है। यह सब इसलिए होता है, क्योंकि ओशो की पारस-देशना के मर्म को सतह से नीचे उतर कर तलहटी तक छू पाने में असमर्थ अभागा अनुयायी कभी सोना नहीं बन सकता।

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