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आज बसंत की रात गमन की बात न करना :गोपालदास नीरज़

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वसंत का श्रृंगारी स्वरूप कवि मन को प्रभावित न करे ..!-असंभव है.. हर कवि-मन  कई कई भावों बगीचे से गुज़रता प्रकृति से रस बटोरता आ कर अपने लिखने वाले टेबल पे रखी डायरी के खाली पन्ने पर अपनी तरंग में डूब कर लिख लेता है गीत..नज़्म...ग़ज़ल.. यानी.कविता  उकेरता है शब्द-चित्र . जो दिखाई भी देतें हैं सुना भी जाता है उनको .. अरे हां.. गाया भी तो जाता है.. गीत सुरों पे सवार हो कर व्योम के विस्तार पर विचरण करता है .. बरसों बरस.. दूर तक़ देर तलक... इसी क्रम में नीरज जी की एक रचना अपने सुर में पेश कर रही हूं..   आज बसंत की रात गमन की बात न करना धूल बिछाए फूल-बिछौना बगिया पहने चांदी-सोना बलिया फेंके जादू-टोना महक उठे सब पात हवन की बात न करना आज बसंत की रात……. बौराई अमवा की डाली गदराई गेंहू की बाली सरसों खड़ी बजाये ताली झूम रहे जलजात शमन की बात न करना आज बसंत की रात…….. खिड़की खोल चंद्रमा झांके चुनरी खींच सितारे टाँके मना करूँ शोर मचा के कोयलिया अनखात गहन की बात न करना आज बसंत की रात……. निंदिया बैरन सुधि बिसराई सेज निगोड़ी करे ढिठाई ताना मारे सौत जुन्हाई

जलाओ दिए - गोपालदास नीरज जी की एक रचना.

जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना       जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना   अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए । नई ज्योति के धर नए पंख झिलमि ल , उड़े मर्त्य मिट्टी गगन स्वर्ग छू ल े , लगे रोशनी की झड़ी झूम ऐस ी , निशा की गली में तिमिर राह भूल े , खुले मुक्ति का वह किरण द्वार जगम ग ,  ऊषा जा न पा ए ,  निशा आ ना पाए जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना   अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।   सृजन है अधूरा अगर विश्‍व भर मे ं , कहीं भी किसी द्वार पर है उदास ी , मनुजता नहीं पूर्ण तब तक बनेग ी , कि जब तक लहू के लिए भूमि प्यास ी , चलेगा सदा नाश का खेल यूँ ह ी , भले ही दिवाली यहाँ रोज आ ए जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना   अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।   मगर दीप की दीप्ति से सिर्फ जग मे ं , नहीं मिट सका है धरा का अँधेर ा , उतर क्यों न आयें नखत सब नयन क े , नहीं कर सकेंगे ह्रदय में उजेर ा , कटेंगे तभी यह अँधरे घिरे अ ब , स्वयं धर मनुज दीप का रूप आ ए जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना   अँधेरा धरा पर कहीं रह न जा ए।               नीरज जी की अन्य रचनाएं कविताकोष से साभार  ·          आसावरी / गोपालदास "नीरज"