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30.12.20

भारतीय सामाजिक व्यवस्था में सार्वकालिक समरसता के तत्व..!

     छायाकार : मुकुल यादव
"भारतीय सामाजिक व्यवस्था में सार्वकालिक समरसता के तत्व..!"
    सुप्रभात श्री राम कृष्ण हरि
भारतीय सामाजिक व्यवस्था को इस बात से घबराने की जरूरत नहीं है कि भविष्य में कोई भी संस्कृति उस पर हावी हो जावेगी। इस कथन पढ़ने जा सुनने के बाद आप चकित हो जाएंगे आपको विश्वास नहीं होगा आप कहेंगे
इससे बड़ा मिथ्या कथन और कुछ नहीं की हमने अपनी जीवनशैली को बदल दिया है इसके बावजूद यह दावा किया जा रहा है कि -" कोई अन्य संस्कृति हमारे जीवन पर प्रभाव कारी नहीं होगी ..?"
   अगर आप यह समझते हैं कि कपड़े पहनने बोलचाल अथवा जीवन शैली में परिवर्तन किसी अन्य संस्कृति का प्रभाव है तो आप गलत समझते हैं क्योंकि यह सांस्कृतिक बदलाव का आधार नहीं है ना ही यह मानक हैं और न ही संस्कृति के प्रतीक है ।
   अब अंदाज कीजिए कि अगर शिकागो में वहां के जाने से बचने के लिए विवेकानंद कोट नहीं पहनते और वही ठंडे सूती वस्त्र पहनते तो क्या विवेकानंद सनातन संस्कृति के विभिन्न बिंदुओं को सबके सामने रख सकने में समर्थ थे ?
  कदापि नहीं ,  वे बीमार हो जाया करते थे जाड़े के प्रभाव से । वे भारतीय गर्म मसालों का प्रयोग अपने आहार में किया करते थे। यह उदाहरण पर्याप्त है कि आपके शरीर पर वस्त्र कैसे होंगे आप कैसे घरों में रहेंगे, आपका जीवन क्रम क्या होगा, कुल मिलाकर देश काल परिस्थिति के आधार पर हमारे वाह आचरण बदल जाते हैं बदलने भी पढ़ते हैं अगर हम किसी शरीर में रहते हैं तो ।
परिस्थिति गत बदलाव से ना तो अवधारणाएं बदलती है ना ही मानसिकता।
हमारे चिंतन में सामाजिक संरचना समरसता की संरचना है । हम उत्तेजित नहीं हैं ना ही हमें अपनी धार्मिक आस्थाओं के अंत होने का कोई भय है क्योंकि हमारी अध्यात्मिक चिंतन शैली ही एक खासतौर के ढांचे पर  जन्म से ही निर्मित की जाती है।
    एक मित्र पूछा करते थे तुम अंडे क्यों नहीं खाते अंडा तो साथ में आता है और तुम्हें सर्दियों से परहेज रखना चाहिए शरीर में आंतरिक उष्मा के लिए अंडे खाने से आंतरिक ऊष्मा और ऊर्जा में अनायास वृद्धि होती है ।
  मेरा उत्तर था-" हमारी पारिवारिक संस्कारों के अनुसार हमें किसी के जीवन को रोकने का कोई अधिकार नहीं है..! "
   अंडे का पृथ्वी पर आना एक मुर्गी या मुर्गी का आना सुनिश्चित करता है। और मुझे किसी के जीवन को रोकने का कोई अधिकार नहीं है ।
   यानी अंडा खाने की कल्पना के साथ भविष्य में आने वाले चूजे के जीवन को देख रहा हूं ..!
    अपनी सुविधा के लिए मैं तुझे को प्राण हीन क्यों मानूं..?
   फिर  हमारे पास शाकाहार तो है  विकल्प के तौर पर..!
    मित्र ने पूछा - और अगर यह विकल्प ना होता तो..?
    मेरा उत्तर था और यदि यह विकल्प है तो क्या मुझे किसी जीवन को आने से रोकना चाहिए या जीवित को जीने से रोकना चाहिए... ?
   संस्कार आहार पर जाकर स्पष्ट हो जाते हैं। मानसिक क्रूरता से हटकर प्राणी मात्र के अस्तित्व के बारे में चिंतन बचपन से ही सिखाया गया। और वही मज़बूत होता चला गया । मेरी एक पीढ़ी की पीढ़ी मांसाहार नहीं करती। यही है सनातन चिंतन इसे आप पागलपन कहना चाहें तो कह लें..!
    छोटी सी बात है जो यह साबित करती है कि जो रास्ते हमें हमारे माता-पिता या परिस्थितियां सिखाती है वह कम से कम भारत में तो सनातनी हैं ।
  जीवन क्रम वैसा ही रहेगा जैसा कि हमारे आध्यात्मिक और धार्मिक संस्कारों के हवाले से हमारे परिवार पिता या माता ने दिया है ।
   कुछ मित्र यह समझेंगे कि- आहार मात्र अपरिवर्तनीय होने से संस्कृति की रक्षा हो सकती है..?
    प्रश्न स्वाभाविक है कई प्रकार के आहार कई प्रकार के वर्णो द्वारा ग्रहण के जाते हैं । सनातन कहता है कि देश काल परिस्थिति के अनुसार आज्ञाओं के बाहरी स्वरूप में परिवर्तन संभव है। किंतु जीवन के मूल स्वरूप में परिवर्तन नहीं होता ।
   मैं मूर्तिपूजक हूं मैं मूर्ति पूजा इस लिए है क्योंकि मेरे डीएनए में मेरी पूर्वजों की वह यादें स्थाई रूप से बस चुकी है जो हजारों हजार साल पहले से मूर्ति पूजा में विश्वास रखते ।
  तुम मूर्तिपूजक नहीं हो यह तुम्हारी धार्मिक मान्यताएं हैं ।  मैं तुम्हें मुझसे ना मुझे तुमसे कोई द्वेष इस आधार पर होना चाहिए।
   हमारी वैमनस्यता के आधार अगर हमारे जीवन के बाहर आचरण हैं तो भी मैत्री का एक आधार है जिसे सनातन में विश्व बंधुत्व कहा गया है।
    अब आपके मस्तिष्क में यह सवाल कौंध रहा होगा कि फिर हम.. अलग अलग क्यों है ?
हम अलग-अलग बिल्कुल नहीं हैं हमें जो करना है वह मानवता के लिए करना है यही सनातन संस्कृति का मूल आधार है।

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