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बाबूजी

चित्र
(इस आलेख का प्रकाशन मेरे एक ब्लाग पर हो चुका है किंतु उस ब्लाग पर आवाज़ाही कम होने तथा पोस्ट में लयात्मकता के अभाव को दूर करते हुए यह पोस्ट पुन: सादर प्रेषित है  की )  बाबूजी उन प्रतीकों में से एक हैं जो अपनी उर्जा को ज़िंदगी के उस मोड़ पर भी तरोताजा रखते है जहां जाकर सामान्य लोग क्षुब्ध दिखाई देते हैं . हाल ही बात है   अरविन्द भाई को बेवज़ह फोटोग्राफी के लिए बुलवाया बेवज़ह . बेवज़ह इस लिए क्योंकि न तो कोई जन्म दिन न कोई विशेष आयोजन न ब्लागर्स मीट यानी शुद्ध रूप से   मेरी इच्छा   की पूर्ती ! इच्छा   थी   कि बाबूजी   सुबह सबेरे की अपने गार्डन वाले बच्चों को कैसे दुलारते हैं इसे चित्रों में दर्ज करुँ कुछ शब्द जड़ दूं एक सन्देश दे दूं कि :- '' पितृत्व कितना स्निग्ध होता है " हुआ भी यही दूसरे माले पर   मैं और अरविन्द भाई उनका इंतज़ार करने लगे . जहां उनके दूसरे बच्चे यानी नन्हे-मुन्ने पौधे   इंतज़ार कर रहे थे दादा नियत समय पर तो नहीं कुछ देर से ही आ सके आते ही सबसे दयनीय पौधे के पास गए उसे सहलाया फिर एक दूसरे बच्चे की आसपास की साल-सम्हाल ही बाबूजी ने. यानी सबसे जरूरत मं