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बुधवार, जुलाई 17, 2013

...और अब वह सम्पादक हो : डॉ. भूपेन्द्र सिंह गर्गवंशी

                             
डॉ. भूपेन्द्र सिंह गर्गवंशी
आखिर वह सम्पादक बन ही गए। मुझसे एक शाम उनकी मुलाकात हो गई। वह बोले सर मैं आप को अपना आदर्श मानता हूँ। एक साप्ताहिक निकालना शुरू कर दिया है। मैं चौंका भला यह मुझे अपना आदर्श क्यों कर मानता है, यदि ऐसा होता तो सम्पादक बनकर अखबार नहीं निकालता। जी हाँ यह सच है, दो चार बार की भेंट मुलाकात ही है उन महाशय से, फिर मुझे वह अपना आइडियल क्यों मानने की गलती कर रहे हैं। मैं किसी अखबार का संपादक नहीं और न ही उनसे मेरी कोई प्रगाढ़ता। बहरहाल वह मिल ही गए तब उनकी बात तो सुननी ही पड़ी। 

उनकी मुलाकात के उपरान्त मैंने किसी अन्य से उनके बारे में पूँछा तो पता चला कि वह किसी सेवानिवृत्त सरकारी मुलाजिम के लड़के हैं। कुछ दिनों तक झोलाछाप डाक्टर बनकर जनसेवा कर चुके हैं। जब इससे उनको कोई लाभ नहीं मिला तब कुछ वर्ष तक इधर-उधर मटर गश्ती करने लगे। इसी दौरान उन्होंने शटर, रेलिंग आदि बनाने का काम शुरू किया कुछ ही समय में वह भी बन्द कर दिए और अब सम्पादक बनकर धन, शोहरत कमाने की जुगत में हैं। पढ़े-लिखे कितना है यह तो किसी को नहीं मालूम लेकिन घर-गृहस्थी, खेती बाड़ी का कार्य उन्हें बखूबी आता है। घर का आँटा, सरसों पिसाने-पेराने से लेकर मण्डी से सब्जी, आरामशीन से लकड़ी लाना आदि काम वह बखूबी करते हैं और घर के मुखिया द्वारा दिए गए पैसों में से अपने गुटखा आदि का कमीशन निकाल लेते हैं।
अब वह सम्पादक बन गए हैं। वह कर्मकाण्ड भी कर लेते हैं, मसलन हिन्दू पर्वों पर यजमानों के यहाँ जाकर पूजा-पाठ करवाते हैं। लोगों के अनुसार वह एक सर्वगुण सम्पन्न 40 वर्षीय युवक हैं। वह विजातियों के प्रति नकारात्मक रवैय्या अपनाते हैं और स्वजातियों को थोड़ा बहुत सम्मान देते हैं। वही अब सम्पादक बन गए हैं। वह वाचाल हैं न जानते हुए भी अगले के सामने इस तरह बोलेंगे जैसे वह हर क्षेत्र और विषय में पारंगत हों। वह बाल-बच्चेदार व्यक्ति हैं। पत्नी की डाँट भी खाते हैं। येनकेन-प्रकारेण पत्नी और बच्चों की जरूरतें पूरी करते हैं। इन सबके बावजूद वह कभी भी मेरे सानिध्य में नहीं रहे फिर भी मैं उनका आदर्श हूँ, यह मेरे लिए सर्वथा शोचनीय विषय है। 
वह जब मुझसे एकाएक मिले थे, उस समय शाम का वक्त था। मैं एक परिचित की दुकान पर बैठा था और वह पत्नी-पुत्र सहित खरीददारी करने आए थे। मैंने औपचारिकता वश पूँछ लिया कि आज कल क्या कर रहे हो तभी वह बोले थे कि आप मेरे आदर्श हैं अखबार का प्रकाशन शुरू कर दिया है और सम्पादक बन गया हूँ। पहले तो मुझे घोर आश्चर्य हुआ फिर अन्दर की बात अन्दर ही रखकर उनको बेस्ट काम्पलीमेण्ट्स दिया। इसी बीच उनकी पत्नी और पुत्र ने सामान खरीद लिया था और वह भी औपचारिक रूप से बोले चलता हूँ सर। मैंने कहा ठीक है जावो ऊपर वाला तुम्हारा कल्याण करे। इतने से आपसी संवाद उपरान्त वह पत्नी-पुत्र समेत मोटर बाइक पर बैठकर चले गए। मैं भी कुछ देर तक अपने परिचित की दुकान पर बैठा जगमगाती रोशनी में हवा और रोशनी दोनों का लेता रहा, सोचा यदि शीघ्र वापसी करूँगा तो घर पर बिजली नहीं होगी अंधेरे में हैण्डफैन चलाना पड़ेगा। 
तभी दुकानदार ने कहा सर जी रात्रि के 9 बज गए हैं वह अपनी दुकान बढ़ाना चाहता है, साथ ही उसने यह भी बताया कि पावर सप्लाई आ गई है। मैंने कहा ठीक है डियर तुम अपनी दुकान बढ़ाओ, मैं भी चलता हूँ। फिर शब्बा खैर कहकर मैं वापस हो लिया। रात में भोजन करता नहीं, दो-एक गिलास द्रव पीकर रात बिताता हूँ, यदि मूड बना तो कुछ लिखता हूँ। सम्पादक जी की मुलाकात के उपरान्त लिखने का मूड हो आया सो यह आलेख आपके सामने है। सम्पादक जी मनुवादी व्यवस्था की उस जाति के जीव हैं, जो अपने को सर्वोच्च मानता है और अन्य सभी से सम्मान-आदर की अपेक्षा करता है जबकि अन्य जाति बिरादरी के लोग उनकी कौम से सम्मान पाना तो दूर नजदीक फटक पाने की हिम्मत नहीं कर पाते हैं। 
हालांकि यदि पालिटिकल सिनेरियो देखा जाए तो उनकी नस्ल के नेता निम्न स्तर तक गिर कर वोटबैंक वाली पार्टियों के प्रमुखों की जी-हुजूरी करते हैं। छोड़िए भी कहाँ सम्पादक जी की बात और कहाँ जातीय पॉलिटिक्स की बात? सम्पादक जी को किसी ने समझा दिया है कि 10 से 25 प्रतियाँ फाइल छपवाकर शासकीय विज्ञापनों की मान्यता प्राप्त कर लो साथ ही खुद भी मान्यता प्राप्त पत्रकार बन जावोगे। फिर ऐशो-आराम की हर वस्तु तुम्हारे कदमों पर लोगों द्वारा न्यौछावर होती रहेगी। इसी गलत फहमी का शिकार बने सम्पादक जी एक साप्ताहिक समाचार-पत्र छाप रहे हैं और शासकीय मान्यता हेतु सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग के कार्यालय का चक्कर लगा रहे हैं। 
इनके सलाहकार ने उन्हें बताया है कि सम्पादक बनने का कोई मापदण्ड नहीं है आप चोर, उचक्के, अपराधी न हों तो शासकीय मान्यता मिल जाएगी। बस आप का नाम थाने के रजिस्टर संख्या 8/10 में न अंकित हो। सम्पादक बनकर आपका रूतबा बुलन्द होगा, साथ ही पुलिस और प्रशासन में आपकी पैठ भी होगी और हर गलत-सही कार्य कराने में सक्षम हो जाओगे। अपने स्वजातीय सलाहकार की बातें मानकर उन जैसा कर्मठ व्यक्ति आखिरकार सम्पादक बन ही गया।

मंगलवार, दिसंबर 21, 2010

बोलने का अधिकार बनाम मेरा गधा, और मैं.......!!

मेरा गधा, और मैं हम दौनों की स्थिति एक सी ही है अब करें तो क्या न करें तो क्या. सोचा जो भी सब मालिक के हवाले कर देतें हैं उसकी जो मरजी आवे कराए न हो मर्जी तो  न कराए. ज़्यादा दिमाग लगा के भी कौन सा  पुरस्कार मिलना है. मिलना उनको है जो उसके लायक होते हैं आज भतीजी आस्था को उसकी सहेली का एस एम एस मिला "अगर दुनियां में ईमानदार एवं मेहनतियों की इज्ज़त होती तो सबसे इज्ज़तदार प्राणी होता." सच यही है . आज के दौर में   इंसान और गधे की ज़िंदगी एक साथ प्रविष्ट हो रहे  साम्यवाद की आहट  से महसूस की जा सकती है. यकीन हो या न हो.यकीन न हो तो गधे से पूछ लीजिये. रात भर कलम घसीटी करने के बाद भी कोई फ़ायदा नहीं  एक गधे को भी क्या मिलता है कुम्हार की गालियाँ, या बैसाख नन्दन होने की तोहमत,.जिस दिन से  अपने राम के बुरे दिन शुरू हुए उसी दिन से मोहल्ले के हर आम और ख़ास के बीच हमको लेके सवाल उठते-उठाते रहे हैं . सुना था कि कुत्ता एक ऐसा जीव होता है कि स्वर्गारोहण में साथ रहा है किन्तु आजकल के मेरे पालित कुत्ते  पता नहीं किधर गम हो गए !  ! इन पे भरोसा कैसे और कित्ता करें ? बुरे दिन में हमारे पालतू ही सबसे पहले हमारे लिए मरहम की ज़गह बदनामी दिया घर-घर रख-रखा आते हैं. पर अपने राम का गधा...? वो तो गधा ही ठहरा अपने जगजाहिर अतीत और स्वप्नहीन भविष्य के गणित से दूर अपने साथ है. अपने कुकर्म इतने हैं कि मैं और मेरा गधा जीवन को वैराग्य भाव से ही जीतें हैं न तो उसे धरती  का मोह है और न ही मुझे ही स्वर्ग से कोई आसक्ति . अब आप ही बताएं आज की ज़िंदगी से बढकर भी कोई नरक है कहीं.  हम दौनो की स्थित एक सी है जावेंगे तो बेहतर स्थिति में ही जावेंगे न ?  
 अब बताइये, अपन कोई युधिष्ठिर महाराज़ थोड़े न हैं जो सदा सच बोलें, धरमराज का ओहदा पाएं ! पाएं भी कैसे सच बोलेंगे तो गधे ही कहलाए न..?
और  ही कहोगे:-"का ज़रुरत थी  इत्ता बोलने की  फंस गए न फ़िज़ूल में ?
अगर हम सही  बोले  तो कोई भी झट से बोल देगा:-"क्या फ़िज़ूल में चिल्लाता गधा कहीं का ,चुपकर"       
Donkey Cons: Sex, Crime, and Corruption in the Democratic Party

इस बात को लिख ही रहा था कि एक आकाश वाणी हुई :-"सच..! बोलने का  अधिकार न तो तुझे है न तेरे गदहे को. सो भैया हम खामोशी से  बैठे नज़ारा कर रहे हैं. देख रहे रहें है उनको ही सुन रहें हैं जिनको कुछ भी कहीं भी कभी भी बोलने  का अधिकार है. हमारे मौन में छिपी क्रान्ति को सामझा सकते हो तो समझो.  
 

मंगलवार, नवंबर 23, 2010

सर्किट हाउस भाग:-एक

(सर्किट हाउस में  )
             ब्रिटिश ग़ुलामी के प्रतीक की निशानी सर्किट हाउस को हमारे लाल-फ़ीतों ने  ठीक उसी उसी तरह ज़िंदा रखा जैसे हम भारतीय पुरुषों ने शरीरों  के लिये  कोट-टाई-पतलून,अदालतों ने अंग्रेजी, मैदानों ने किरकिट,वगैरा-वगैरा. एक आलीशान-भवन जहां अंग्रेज़ अफ़सरों को रुकने का इन्तज़ाम  हुआ करता था वही जगह “सर्किट हाउस” के नाम से मशहूर है. हर ज़रूरी जगहों पर  इसकी उपलब्धता है. कुल मिला कर शाहों और नौकर शाहों की आराम गाह .  मूल कहानी से भटकाव न हो सो चलिये सीधे चले चलतें हैं  उन किरदारों से मिलने जो बेचारे इस के इर्द-गिर्द बसे हुये हैं बाक़ायदा प्रज़ातांत्रिक देश में गुलाम के
सरीखे…..! तो चलें
                         आज़ सारे लोग दफ़्तर में हलाकान है , कल्लू चपरासी से लेकर मुख्तार बाबू तक सब को मालूम हुआ जनाब हिम्मत लाल जी का आगमन का फ़ेक्स पाकर सारे आफ़िस में हड़कम्प सा मच गया. कलेक्टर सा’ब के आफ़िस से आई डाक के ज़रिये पता लगा  अपर-संचालक जी पधार रहें किस काम से आ रहें हैं ये तो लिखा है पर एजेण्डे के साथ  कोई न कोई हिडन एजेण्डा  भी होता है  …?   जिसे  वे कल सुबह ही जाना जा सकेगा .
दीपक सक्सेना को ज्यों ही बंद लिफ़ाफ़ा प्रोटोकाल दफ़्तर से मिला फ़टाफ़ट कम्प्यूटर से कोष्टावली आरक्षण हेतु चिट्ठी और मातहतों के लिये आदेश टाईप कर ले आया बाबू. दीपक ने दस्तख़त कर आदेश तामीली के वास्ते चपरासी दौड़ा दिया गया.
चपरासी से बड़े बाबू को मिस काल मारा बड़े बाबू साहब के कमरे में बैठा ही था मिस काल देख बोला :-सा’ब राम परसाद का मिसकाल है..!
दीपक:- स्साला कामचोर, बोल रहा होगा सायकल पंक्चर हो गई..?
मुख्तार बाबू ने काल-बैक किया  सरकारी फ़ोन से . 
’हां,बोलो…!’
 ’हज़ूर, श्रीवास्तव तो घर पे नहीं है..?
लो  साहब से बात करो…मुख़्तार बाबू बोला,
 रिसीवर लेकर दीपक ने अधीनस्त फ़ील्ड स्टाफ़ रवीन्द्र श्रीवास्तव की बीवी को बुलवाया फ़ोन पर :- जी नमस्ते नमस्ते कैसीं हैं आप..?
“ठीक हूं सर ये तो सुबह से निकलें हैं देर रात आ पाएंगे बता रहे थे आप ने कहीं ज़रूरी काम से भेजा है..?”
“अर्रे हां…. भेजा तो है याद नहीं रहा… सारी ठीक है भाभी जी आईये कभी घर सुनिता बहुत तारीफ़ करती हैं आपकी “
“जी, ज़रूर ….
राम परसाद को दीजिये फ़ोन..?”
     कुर्सी पर  लगभग लेटते हुए दीपक का आदेश रामप्रसाद के लिये ये था कि वो दीपक की जगह अब्राहम का नाम भर के आदेश तामीली उसके घर पर करा दे. “
     “अब्राहम… फ़ील्ड से वापस आकर सोफ़े पे पसरा ही था कि     रामप्रसाद की आवाज़ ने उसके संडे के लिये तय किये  सारे कामों पर मानों काली स्याही पोत दी. उसने आदेश देखते ही ना नुकुर शुरु कर दी “अरे रामपरसाद श्रीवास्तव का नाम तुमने काटा मेरा भी काट के शर्मा का लिख दो ”
“सा’ब,रखना हो तो रखो, वरना लो साहब को मिस काल किये देता हूं… कहो तो…?
“अर्र न बाबा, वो तो मज़ाक कर रा था लाओ किधर देना है पावती..?”
   लोकल-पावती-क़िताब आगे बढ़ाते हुए अब्राहम से पूछता है:-सा’ब,वो एम-वे वाता धंधा कैसा चल रा है”
 मतलब समझते ही बीवी को आवाज़ लगाई:-भई, सुनती हो ले आओ एक टूथ-पेस्ट , अपने परसाद के लिये..! पचास का नोट देते हुए –’हां और ये ये लो रामपरसाद, आज़ बच्चों के लिये कुछ ले जाना. दारू मत पीना बड़ी मेहनत की कमाई है.
’जी हज़ूर…दारू तो छोड़ दी ? रामपरसाद ने हाथों में नोट लेकर कहा –अरे सा’ब, इसकी क्या ज़रूरत थी. आप भी न खैर साहबों के हुक़्म की तामीली मेरा फ़रज़ (फ़र्ज़) बनता है हज़ूर .
        हज़ूर से हासिल नोट जेब में घुसेड़ते ही रामपरसाद ने बना लिया बज़ट  , पंद्र्ह की दारू, पांच का सट्टा , दस का रीचार्ज, बचे बीस महरिया के हवाले कर दूंगा. जेब में टूथ-पेस्ट डाल के रवानगी डाल दी.
(क्रमश: )

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