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बुधवार, जून 12, 2013

अब अन्ना हाशिये पर हैं.......?


 मैं अन्ना के आंदोलन की वैचारिक पृष्ट भूमि से प्रभावित था पर किसी फ़ंतासी का शिकार नहीं भ्रष्टाचार से ऊबी तरसी जनमेदनी को भारत के एक कोने से उठी आवाज़ का सहारा मिला वो थी अन्ना की आवाज़ जो एक समूह के साथ उभरी इस आवाज़ को "लगातार-चैनल्स खासकर निजी खबरिया चैनल्स पर " जन जन तक पहुंचाया . न्यू मीडिया भी पीछे न था इस मामले में.  जब यह आंदोलन एक विस्मयकारी मोड़ पर आ आया  तब कुछ सवाल सालने लगे हैं. पहला सवाल   तुषार गांधी ने उठाया  जिस पर गौर   कि अन्ना और बापू के अनशन में फ़र्क़ है कि नहीं यदि है तो क्या और कितना इस बात पतासाज़ी की जाए. तुषार जी के कथन को न तो ग़लत कह सका  और न ही पूरा सच . ग़लत इस वज़ह से नहीं कि.. अन्ना एक "भाववाचक-संज्ञा" से जूझने को कह रहें हैं. जबकि बापू ने समूहवाचक संज्ञा से जूझने को कहा था. हालांकि दौनों का एक लक्ष्य है "मुक्ति" मुक्ति जिसके लिये भारतीय आध्यात्मिक चिंतन एवम दर्शन  सदियों से प्रयासरत है . तुषार क्या कहना चाह रहें हैं इसे उनके इस कथन से समझना होगा  उन्हौने ( तुषार गांधी ने) कहा था - महात्मा गांधी यहां तक स्थिति को पहुंचने ही नहीं देते । क्योंकि वो बीमारी को जड़ पकड़ने से पहले ही खत्म कर देते थे। वो होते तो हालात इतने नहीं खराब होते जैसे कि आज हो गये हैं। " 
      यह कथन पूर्ण सत्य  इस कारण से नहीं माना जा सकता क्योंकि  गाँधी  दौर आज से अलग था ।
मेरे एक मित्र ने सवाल उठाया था कि - "क्या,लोकतंत्र के मायने बदलने लगे हैं..?"
                               जनता विश्वास खो चुकी है.. सचाई को झुकना होता है. ऐसे कई उदाहरण हैं जहां कोई भी अंतरात्मा की आवाज़ पर हाथ उठाने से क़तराता है.तो अंतरात्माएं घबराई हुईं हैं..?
            इसके उत्तर में कहूंगा  आप लोग  बस एकाध पंचायती-मीटिंग में हो आइये सब समझ जाएंगें. आप.जी लोकतंत्र का मायना ही नहीं पूरा स्वरूप बदल ही गया है.. इस कारण अब सियासी आईकान खोजे नहीं मिलते . सब के हाथों मे, घण्टियां हैं पर   "बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे..?" इस तरह की विवषताओं की बेढ़ियों जकड़ा आम-आदमी उसके पीछे है जिसके हाथ में घंटी है और वो बिल्ली के गले में घंटी बाधने वाले को तलाश रहा है.
   अगर स्वप्न में भी कोई ऐसा व्यक्तित्व नज़र आ जाता है जो बिल्ली के गले में घंटी बांधने में का सामर्थ्य रखता हो  तो उसी आभासी चेहरे  की तरफ़ भाग रहा नज़र आता है समूह ... अन्ना के आव्हान पर  स्थिति यही थी . लोग ये देखे बिना कि अन्ना के आसपास का पर्यावरण कैसा है टूट पड़े 
ऐसे में भय था कि आंदोलन के मूल्यों की रक्षा करना बहुत कठिन हो जाता है. 
           एस एम एस पर जारी अन्ना के  निर्देश आपकी नज़र अवश्य गई होगी. मेरी नज़र में सांसद के निवास पर जहां सांसद व्यक्तिगत-स्वतंत्रता के साथ निवास रत है पर धरना देना किसी के व्यक्तिगत-स्वतंत्रता के अधिकार में बाधा का उदाहरण है.ऐसा तरीक़ा गांधियन नहीं था . इसके बज़ाए आग्रह युक्त ख़त सांसदों को सौंपा जा सकता था.. अगर ऐसी घटनाएं होतीं रहेंगी तो तय है "तुषार गांधी" की बात की पुष्टि होती चली जाएगी. मुझे अन्ना ने आकर्षित किया है वे वाक़ई बहुत सटीक बात कह रहें हैं समय चाहता भी यही है.  भ्रष्टाचार से मुक्ति के लिये समवेत होना सिखा दिया अन्ना ने.
      अन्ना के आंदोलन का एक पहलू यह भी उभर के आ आया कि  लोग "भ्रष्टाचार से निज़ात पाने खुद के भ्रष्ट आचरणों से निज़ात पाने के लिये कोई कसम नहीं ले रहे थे  केवल संस्थागत भ्रष्टाचार का ही  स्कैच जारी करते नज़र आ रहे थे .
               लोग स्वयम के सुख लिये जितना भ्रष्ट आचरण करतें हैं उस बात का चिंतन भी ज़रूरी है. जिसका इस आंदोलन में सर्वथा अभाव देखा जा रहा था .यानी दूसरे का भ्रष्ट आचरण रोको खुद पर मौन रहो . देखना होगा कितने लोग अपना पारिश्रमिक चैक से या नक़द लेते हैं मेरा संकेत साफ़ है मेरे एक आलेख में ऐसे व्यक्तित्व के बारे में मैं लिख चुका हूं. साथ ही ऐसे कितने लोग होंगे जिनने बिजली की चोरी नहीं की है., ऐसे कितने लोग हैं जो अपने संस्थान का इंटरनेट तथा स्टेशनरी  व्यक्तिगत कार्यों के लिये प्रयोग में लातें हैं. ऐसे कितने लोग हैं जो अपनी आय छिपाते हैं. अन्ना जी सच ऐसे लोग भी  आपकी भीड़ में थे.  सबसे पहला काम व्यक्तिगत-आचरण में सुधार की बात सिखाना आपका प्राथमिक दायित्व था. यही मेरा सुझाव है उनके लिये है जो सफ़ेद टोपी लगा के कह रहे थे कि –“ मैं  अन्ना हूं  मैं भी अन्ना हूं..!!
                 स्मरण हो कि  मैने अपने एक लेख में कहा था कि  एक लेखक  के रूप में मेरी भावनाएं मैं पेश कर रहा हूं ताक़ि आपके संकल्प पूरे हों और हमारे सपने..!! मैं आंदोलन की वैचारिक पृष्ट भूमि से प्रभावित हूं पर किसी फ़ंतासी का शिकार नहीं हूं.  
    जिस बात का डर था सबको वही हुआ कि  अब अन्ना हाशिये पर हैं.......?  

शनिवार, दिसंबर 17, 2011

अन्ना गए नेपथ्य में आज तो दिन भर वीना मलिक को तलाशते रहे लोग !!

खबरों ने इन्सान की सोच का अपहरण कर लिया वीना मलिक का खो जाना  सबसे हाट खबर  खबरिया चैनल्स के ज़रिये समाचार मिलते ही बेहद परेशान लोग "आसन्न-स्वयम्बर" के लिये चिंतित हो गये. एक खबर जीवी प्राणी कटिंग सैलून पे बोलता सुना गया:-"बताओ, कहां चली गई वीना ?"
भाई इतना टेंस था जैसे वीना मलिक के  क़रीबी रिश्तेदार  हों. जो भी हो एक बात निकल कर सामने आई ही गई कि "मीडिया जो चाहता है वही सोचतें हैं लोग...!"
   आप इस बात से सहमत हों या न हों मेरा सरोकार था इस बात को सामने लाना कि हमारे आम जीवन की ज़रूरी बातौं से अधिक अगर हम जो कुछ भी सोच रहें हैं वो तय करता है मीडिया..? ये मेरी व्यक्तिगत राय है. रहा बीना मलिक की गुमशुदगी का सवाल वो एक आम घटना है जो किसी भी मिडिल-क्लास शहर, कस्बे, गांव में घट जाती है वीना मलिक जैसी कितनी महिलाएं ऐसी अज्ञात गुमशुदगी का शिक़ार गाहे बगाहे हो ही जाती हैं. आप को याद भी न होगा अक्टूबर माह में अरुणाचल प्रदेश के पूर्वी कामेंग जिले के सेपा में कामेंग नदी पर बने पुल के ढह जाने के बाद  25 लोग लापता हो गए थे.  मेरे हिसाब से हम असामान्य घटनाओं के लिये  उतने सम्वेदन-शील हैं ही नहीं जितना कि वीना मलिक को लेकर हैं. यानी हम वही सोच रहे हैं जितना अखबार अथवा खबरिया चैनल्स सोचने को कहते हैं. 
         हाल ही अन्ना जी,सिब्बल जी, चिदम्बरम जी, को लेकर प्रकाशित एवम प्रसारित हो रहीं खबरों में  लोग खोये ज़रूर किंतु शायद ही किसी ने खबरों को एक स्वस्थ्य-नज़रिये से देखा समझा हो. (यहां हम उन आम लोगों की बात कर रहे हैं जिनका ओहदा केवल; एक आम आदमी का है जो क्रिटिक/जानकार/विषेशज्ञ नहीं हैं) लोग अपमे अपने सतही तर्क के साथ व्यवस्था के विद्रोही हो जाते हैं बेशक व्यवस्था में कमियां हैं पर क्या केवल वही सही है जो दिखाया पढ़ाया जा रहा है..? क़दापि नहीं एक मित्र की राय थी कि-”बेशक़,लोकपाल पास कर दिया जा सकता है..? सी बी आई को शामिल किया जावे इसमें !"
 दूसरा मित्र बोला -"जांच कर्ता एजेन्सी के रूप में एक नई एजेन्सी बना दी जानी चाहिये..?"
पहला मित्र:-"सी.बी.आई. क्यों नहीं ? "
   आम आदमी के पास केवल एक दिमाग है जो खुद नहीं बल्कि इर्द-गिर्द का वातावरण उसको सोचने को मज़बूर कर देता है क्या वो खुद किसी बिंदू पर सोचता है मेरे हिसाब से शायद नहीं ..  

रविवार, अक्तूबर 30, 2011

तरक्क़ी और गधे : गिरीश बिल्लोरे मुकुल


               हमने सड़क पर एक बैसाख नन्दन का दूसरे बैसाख नन्दनों का वार्तालाप सुना ..आपने सुना सुना भी होगा तो क्या खाक़ समझेंगे आप आपको समझ में नहीं आई होगी क्योंकि अपने भाई बन्दों की भाषा हम ही समझ सकतें हैं । 
 आप सुनना चाहतें हैं..........?
सो बताए देता हूँ हूँ भाई लोग क्या बतिया रहे थे :
पहला :-भाई ,तुम्हारे मालिक ने ब्राड-बैन्ड ले लिया ..?
दूजा :- हाँ, कहता है कि इससे उसके बच्चे तरक्की करेंगें ?
पहला :-कैसे ,
दूजा :- जैसे हम लोग निरंतर तरक्की कर रहे हैं
पहला :-अच्छा,अपनी जैसी तरक्की
दूजा :- हाँ भाई वैसी ही ,उससे भी आगे
पहला :-यानी कि इस बार अपने को वो पीछे कर देंगें..?
दूजा :-अरे भाई आगे मत पूछना सब गड़बड़ हो जाएगा
पहला :-सो क्या तरक्की हुई तुम्हारे मालिक की
दूजा :- हाँ,हुई न अब वो मुझसे नहीं इंटरनेट के ज़रिए दूर तक के अपने भाई बन्दों से बात करता है। सुना है कि वो परसाई जी से भी महान हो ने जा रहा है आजकल विश्व को व्यंग्य क्या है हास्य कहाँ है,ब्लॉग किसे कहतें हैं बता रहा है।
पहला :- कुछ समझ रहा हूँ किंतु इस में तरक्की की क्या बात हुई ?
दूजा :- तुम भी, रहे निरे इंसान के इंसान .........!! अरे बुद्धू बताना भी तो तरक्की है.. तरक्क़ी..
पहला :-अरे हां पर क्या भाई उस दिन भीड़ काहे की थी बगीचे में हम चर न पाए.. 
दूजा :-अरे.. वो अन्ना जी का समर्थन करने वाले लोग थे तुमको बताया था न..?
पहला :- साला भूखों मर गए हम..
दूजा :-   तो अन्ना के लिये ह इतना त्याग नही कर सकते क्या..?
पहला :- हमारे त्याग करने से क्या भ्रष्टाचार बंद होगा
दूजा :-   तो क्या उनके से हुआ ..? नहीं न पर एक शुरुआत तो हुई न..!!
पहला :-  हां हुई.. उस दिन धोबन बोली थी धोबी से सुनो अन्ना का ज़माना किसी भी दिन आ सकता है.. ईमानदारी से कपड़े धोना
दूजा :-  धोबी का बोला..?
पहला :- का बोलेगा बोला अरी भागवान..निरी मूरख है तू.. अगले महीने दीवाली है सेठ ने नकली मावा मंगवा लिया, सेठों ने   टेक्स छिपाने बड़ी बड़ी गिफ़्ट खरीदी है.. सब सरकारी दफ़्तर वालों के लिये है.. जिसने ज़ादा खटर-पटर की उसको  नाप देंगें इस कानून से अरी पागल तू तो बाई साब की साड़ी में वोईच्च कलफ़ मार जो सस्ता वाला मैं लाया हूं..तभी   तो  अपना  बेटा भी तो इंजिनियर बनेगा . पागल है समझती नहीं अरे सब जैसा था वैसा ही चलेगा तू अपना काम कर दुनियां जहान की बात सोच सोच कर अपने घुटनों को काहे तकलीफ़ देती है.
               धोबी बोला तो  साफ़ बात खुद हरिश्चंद्र भी आ जाएं तो कुछ न बदलेगा बस तरीकों को छोड़ के सब एक दूसरे से लगे हैं.. यही विकास है इसे तरक्क़ी कहते हैं ये बात वो गधे तक बेहतर तरीके से समझ गये हैं.. पर आप लोग.. चुप क्यों हो बोलो न .....
             आप क्या बोलेंगे जी कुछ भी बोल नहीं पाएंगे अरे आप काहे बोलो जी. बोलने वाले अटे पड़े हैं दुनियां में. कोई ज़रूरी है कि सब बोलें तुम तो केवल पढ़ो उनके बोले हुए को.. जो  अखबार में है.. और्   सुनो जो  सबसे तेज़ चैनलों पे   तोते की तरह रटाया जा रहा  समझो अपने जीने के तौर - तरीक़े.

शुक्रवार, अगस्त 19, 2011

ढाई आखर “अन्ना” का पढ़ा वो पण्डित होय !!


साभार : आई बी एन ख़बर

पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआं,पण्डित भया न कोय
ढाई आखर “अन्ना” का पढ़ा वो पण्डित होय !!

वो जिसने बदली फ़िज़ा यहां की उसी के सज़दे में सर झुका ये
तू कितने सर अब क़लम करेगा, ये जो कटा तो वो इक उठा है
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तेरी हक़ीक़त  तेरी तिज़ारत  तेरी सियासत, तुझे मुबारक़--
नज़र में तेरी हैं हम जो तिनके,तो देख ले अब हमारी ताक़त !!
कि पत्ता-पत्ता हवा चली है.. तू जा निकल जा बदन छिपा के !!
                          वो जिसने बदली फ़िज़ा यहां की उसी के सज़दे में सर झुका ये
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थी तेरी साज़िश कि टुकड़े-टुकड़े हुआ था भारत, वही जुड़ा है
तेरे तिलिस्मी भरम से बचके, हक़ीक़तों की तरफ़ मुड़ा है....!!
                         अब आगे आके तू सर झुक़ा ले..या आख़िरी तू रज़ा बता दे ..?
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ये जो हक़ीक़त का कारवां हैं,तेरी मुसीबत का आसमां है
कि अपनी सूरत संवार आके, हमारे हाथों में आईना है..!
                        अग़रचे तुझमें नहीं है हिम्मत,तो घर चला जा..या मुंह छिपा ले !
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