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गुरुवार, दिसंबर 10, 2020

पहाड़ पर लालटेन थे मंगलेश डबराल


आजादी के  1 साल बाद 16 मई  1948 को जन्मे मंगलेश डबराल का जन्म टिहरी गढ़वाल प्ले हुआ और आज 9 दिसंबर 2020 को मंगलेश जी  परम यात्रा पर निकल गए। मंगलेश डबराल को भाषित करने के लिए यह वक्त नहीं है लेकिन उनके मोटे तौर पर किए गए कार्य की चर्चा करना जरूरी है। उनके 1981 में कविता संग्रह पहाड़ पर लालटेन घर का रास्ता 1988 तथा हम जो दिखते हैं 1995 आवाज भी एक जगह है नए युग में शत्रु यह । मंगलेश डबराल जी को ओमप्रकाश स्मृति सम्मान 1982 श्रीकांत वर्मा सम्मान 1989 साहित्य अकादमी का पुरस्कार 2000 प्राप्त हुआ है खास यह बात थी कि ऐसी कोई खबर इनके जीवन वृत्त में  दर्ज नहीं है कि उन्होंने असहिष्णुता पूर्व सम्मान को लौटाया हो। मंगलेश डबराल  के एक कविता संग्रह है आवाज भी एक जगह है का इटली भाषा में अनुवाद अनखीला वह चाहिए उन लोगों को तथा अंग्रेजी में 20 नंबर डज नॉट एक्जिस्ट प्रकाशित हुई डबराल जी  के दो कविता संग्रह 2 भाषाओं में अनुवाद किए गए किंतु खुद डबराल जी ने पाब्लो नेरुदा के अलावा आधे दर्जन से अधिक लोगों की कविताएं अनुवादित की
आइए आज हम उनकी कृति पहाड़ पर लालटेन की कविता लेते हैं अत्याचारी की थकान शीर्षक से लिखी गई इस कविता में उन्होंने जो लिखा है बेशक बेहद जीवन रेखा चित्र है। अत्याचारी जब थक कर चूर हो जाते हैं चलिए आप खुद ही पढ़ लीजिए इस कविता को जिसका रचनाकाल 1980 था-

अत्याचार करने के बाद

अत्याचारी निगाह डालते हैं बच्चों पर

उठा लेते हैं उन्हें गोद में

अपने जीतने की कथा सुनाते हैं

कहते हैं

बच्चे कितने अच्छे हैं

हमारी तरह नहीं हैं वे अत्याचारी

बच्चॊं के पास आकर

थकान मिट जाती है उनकी

जो पैदा हुई थी करके अत्याचार ।

 उनके निधन को व्यक्तिगत क्षति इसलिए मानता हूं कि उनकी कविता बहुत जटिल और पेचीदा नहीं होती थी जो स्पष्ट कर देती हैं कि व्यक्ति जिससे मैं कविता में मिल रहा हूं कितना सुकुमार और सच-सच बयां करने वाला होता है। मित्रों मेरा पथ अलग है उनका पंथ अलग है फिर भी मैं उनके काव्य शिल्प का प्रशंसक है और उनका विद्यार्थी मान लीजिए। मैं अपनी परंपराओं के अनुसार डबराल जी को विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं शत शत नमन
प्रगतिशील कविता कभी-कभी इतनी जटिल हो जाती है कि वह कविता जैसी तो कदापि नहीं लगती परंतु पूज्य मंगलेश जी की फुटकर में भी पढ़ी है ।

शनिवार, सितंबर 08, 2012

गुरप्रीत पाबला नहीं रहे


श्री बी.एस.पाबला जी के सुपुत्र चिंरंजीव गुरप्रीत सिंह पाबला का आकस्मिक नि:धन के समाचार से जबलपुर के ब्लागर्स बेहद दुखी है .........स्तब्ध हैं ..................
              दिवंगत आत्मा की शांति के लिये ईश्वर से विनत प्रार्थना के साथ पाबला परिवार को इस अपूरणीय क्षति से व्युत्पन्न पीढ़ा को सहने की शक्ति प्रार्थना है.  

शुक्रवार, मई 07, 2010

श्री जब्बार ढाकवाला एवम मोहतरमा तरन्नुम का दुख़द निधन

मप्र  के वरिष्ठ आईएएस अधिकारी एवं साहित्यकार श्री  जब्बार ढाकवाला और उनकी पत्नी मोहतरमा तरन्नुम की शुक्रवार 7 मई 2010 को उत्तराखंड के पास जब वे  उत्तर काशी से चंबा की ओर लौट रहे थे, अचानक  उनकी कार गहरी खाई में गिर गई। एम.ए. एल-एल.बी. तक शिक्षित श्री ढाकवाला शेर—शायरी, उपन्यास व व्यंग्य लिखने के शौकीन थे। वे संचालक पिछड़ा वर्ग कल्याण,संचालक आयुर्वेद एवं होम्योपैथी,संचालक रोजगार एवं प्रशिक्षण,संचालक लघु उद्योग तथा बड़वानी कलेक्टर रहे है।जबलपुर में  जब भी उनका निजी अथवा सरकारी प्रवास होता तो वे स्थानीय साहित्यकारों से अवश्य ही मिला करते थे . विगत वर्ष   जबलपुर में 25/09/09 को :श्री जब्बार ढाकवाला साहब की सदारत  में एक गोष्ठी का आयोजन "सव्यसाची-कला-ग्रुप'' की ओर से किया गया .  श्री बर्नवाल,आयुध निर्माणी,उप-महाप्रबंधक,जबलपुर के आतिथ्य में एक गोष्ठी का आयोजन किया गया  थे.गिरीश बिल्लोरे मुकुल के  संचालन में  होटल कलचुरी जबलपुर में आयोजित कवि-गोष्ठी में इरफान "झांस्वी",सूरज राय सूरज,डाक्टर विजय तिवारी "किसलय",रमेश सैनी,एस ए सिद्दीकी, और विचारक सलिल समाधिया  के साथ स्वयम ज़ब्बार साहब ने भी रचना पाठ किया 
जिंदगी के हर लमहे का मज़ा लीजिये
यहाँ पर टेंसन की जेल में, उम्रकैद की सजा लीजिये



मूक अभिनय करते करते बोलने लगे हैं वो
सूत्रधार की उपेक्षा कर मुँह खोलने लगे हैं वो
तरक्की के नाम पर इतने धोखे खाए हैं कि
अपने रहनुमाओं के बीच के दिल टटोलने लगे हैं वो
मन में मेरे अदालत जिन्दा है
क्या करुँ अन्दर छिपा एक परिंदा है
नहाता तो हूँ नए नए हम्मामों में आज भी
गुनाह नहीं मगर जेहन शर्मिंदा है
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आईएएस अधिकारी एवं साहित्यकार श्री  जब्बार ढाकवाला और मोहतरमा तरन्नुम के असामयिक निधन पर हम सब स्तब्ध हैं.  हमारी श्रद्धांजलियां
 

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