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सोमवार, अप्रैल 29, 2013

दास्ताने-दफ़्तर : भाड़ में जाये संगठन तेल लेने जाये विकास हम तो ....!!

 
 हो सकता है कि किसी के दिल में चोट लगे शायद कोई नाराज़ भी हो जाए इसे पढ़कर ये भी सम्भव है कि एकाध समझेगा मेरी बात को.वैसे मुझे मालूम है अधिसंख्यक लोग मुझसे असहमत हैं रहें आएं मुझे अब इस बात की परवाह कदाचित नहीं है अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के संवैधानिक अधिकार का सही वक्त पर सटीक स्तेमाल  कर रहा हूं. 
                     बड़े उत्साह और उमंग से किसी एक महकमें या संस्थान में तैनात हुआ युवा  जब वहां ऊलज़लूल वातावरण देखता है तो सन्न रह जाता है सहकर्मियों के कांईंयापन को देख कर .. नया नया कर्मी बेशक एक साफ़ पन्ने की तरह होता है जब वो संगठन में आता है लेकिन मौज़ूदा हालात उसे व्यवस्था का अभिन्न हिस्सा बना देते हैं. 
एक स्थिति जो अक्सर देखी जा सकती है नव प्रवेशी पर कुछ सहकर्मी अनाधिकृत रूप उस पर डोरे डालते हैं अपनापे  का  नकली शहद चटाते हुए उसे अपनी गिरफ़्त में लेने की कोशिश भी करते हैं. वहीं "बास-द्रोही" तत्व उसे अपने घेरे में शामिल करने की भरसक कोशिश में लगा होता है. मै ऐसे लोगों को संस्थान/आफ़िस/संगठन दीमक कहना पसंद करूंगा.. जो ऐसा कर सबसे पहले "संगठन" के विरुद्ध कार्यावरोध पैदा करते हैं. विकास की गति को रोकते हैं. 
            कुछ तत्वों का और परिचय देता हूं जो निरे "पप्पू" नज़र आएंगे पर भीतर से वे शातिर होते हैं अक्सर ऐसे तत्व केवल अपने आप के बारे में ही चिंतन करते रहते हैं. पर कहते हैं न पास तो केवल पप्पू ही होता है..  वे किसी के हरे में शामिल होते और न ही सूखे में. पर शातिर तो इतने कि अपने स्वार्थ के पीछे किस षड़यंत्र में शामिल हो जाएं आप जान भी न पाओगे. 
           संगठन में कार्यरत कर्मियों में कुछ ऐसे होते हैं जो बेचारे बड़ी तन्मयता से काम करते रहते हैं वे ही सदा  अत्यधिक दायित्वों  से लादे गये होते हैं. इनका प्रतिशत कमोबेश पांच-दस से ज़्यादा कभी नहीं होता. पर नब्बे फ़ीसदी मक्कारों का बोझा इन जैसों ने ही उठाया है. सच मानिये  अगर संगठनात्मक दायित्व निर्वहन पर शोध हो तो  आप इसकी पुष्टि करता हुआ रिज़ल्ट ही पाएंगे. 
           सहकर्मियों  की एक महत्वपूर्ण नस्ल को  अनदेखा करना बेहद नुकसान देह होगा जो बड़ी ही सादगी से आपकी किसी भी बात को "चुगली के रूप में कहीं भी पेश कर सकतें हैं  लोगों को यहां खुले तौर पर गाली देने से उम्दा परिभाषित करना उचित समझता हूं.ये जीव मैं उन नरों-मादाओं की औलाद होते हैं  जो मधुर यामिनी में अपने अपने  पसंदीदा आईकान्स के खयालों में खोये होते हैं और दैहिक परिस्थिवश ऐसा भ्रूण कंसीव हो जाता है जो आगे चलकर चुगलखोर-व्यक्तित्व के रूप में निखार पाता है. 
            आप सोच रहें होंगे बड़ा दिलाज़ला आदमी हूँ जो गालियां ....  हकीकत में ऐसा करना इस वज़ह से भी ज़रूरी है ताकि आइना देख लें वे  जो  मक्कारियों  से बाज़ नहीं आते . साथ ही वे जान लें कि एक लेखक  उनके बारे क्या सोचता है.. इनके नाम तो लिखूंगा नहीं  नाम लिख दूं तो बाप रे बाप... इनकी दुनिया ही उजड़ जावेगी.. किन्तु खुद परीशाँ था कभी इसी लिए सोचा सबको आगाह कर दूं .   
       लोगों में एक विचार तेज़ी से पनपता दिखाई देता है जो उत्पादन संस्थानों /संगठनों के लिए घातक है वो प्रांतीय जातीय,क्षेत्रीय एवं अब शैक्षणिक तथा काडरगत समीकरण . प्रांतीय,जातीय,क्षेत्रीय समीकरण तो सामाजिक एवं  राजनैतिक कारणों से उपजाते हैं किन्तु शैक्षणिक एवं काडर के बिन्दु नए दौर का संकट है जो बेहद खतरनाक है। एक अजीब सी सांप्रदायिकता का आभास होता है. जहां न धर्म इन्वाल्व है न ही भगवान नामक कोई तत्व !  
            .कोई डायरेक्ट तो कोई प्रमोटी, कोई इस भारत का तो कोई उस भारत का.. कोई ये तो कोई वो.. यानी खुली सम्प्रदायिकता . लोग अपने अपने सिगमेंट में जीने लगे हैं.. जीने क्या लगे हैं जीने के आदी हैं.. भाड़ में जाये संगठन तेल लेने जाये विकास हम तो अपने दबदबे को कायम रखेंगे.. 
कवि श्री हरे प्रकाश की कविता में खुलासा देखिये
नींद में मैं दफ़्तर के सपने देखता हूँ 
सपने में दफ़्तर के सहकर्मियों के षड्यंत्र सूंघता हूँ
जिससे बहुत तेज़ बदबू आती है
इस बदबू में मुझे धीरे-धीरे बहुत मज़ा आता है 
मैं नींद में बड़बड़ाता हूँ 
पूरी कविता पढ़िये "कविताकोष"पर क्लिक कर के 


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