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शुक्रवार, अगस्त 19, 2011

ढाई आखर “अन्ना” का पढ़ा वो पण्डित होय !!


साभार : आई बी एन ख़बर

पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआं,पण्डित भया न कोय
ढाई आखर “अन्ना” का पढ़ा वो पण्डित होय !!

वो जिसने बदली फ़िज़ा यहां की उसी के सज़दे में सर झुका ये
तू कितने सर अब क़लम करेगा, ये जो कटा तो वो इक उठा है
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तेरी हक़ीक़त  तेरी तिज़ारत  तेरी सियासत, तुझे मुबारक़--
नज़र में तेरी हैं हम जो तिनके,तो देख ले अब हमारी ताक़त !!
कि पत्ता-पत्ता हवा चली है.. तू जा निकल जा बदन छिपा के !!
                          वो जिसने बदली फ़िज़ा यहां की उसी के सज़दे में सर झुका ये
***********************
थी तेरी साज़िश कि टुकड़े-टुकड़े हुआ था भारत, वही जुड़ा है
तेरे तिलिस्मी भरम से बचके, हक़ीक़तों की तरफ़ मुड़ा है....!!
                         अब आगे आके तू सर झुक़ा ले..या आख़िरी तू रज़ा बता दे ..?
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ये जो हक़ीक़त का कारवां हैं,तेरी मुसीबत का आसमां है
कि अपनी सूरत संवार आके, हमारे हाथों में आईना है..!
                        अग़रचे तुझमें नहीं है हिम्मत,तो घर चला जा..या मुंह छिपा ले !
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सोमवार, अगस्त 15, 2011

लोकतंत्र को आलोक-तंत्र बनाने की कवायद

लोकतंत्र को 

आलोक-तंत्र बनाने की कवायद करता.
भारत पैंसठ साल का  बुड्ढा..  हो गया..
अपनी पुरानी यादों में खो गया.......!!
दीवारों पर कांपते हाथों से लिख रहा था 
"आलोक-तंत्र"
लोग भी आये आगे 
बूढ़े का मज़ाक  उड़ा कर भागे..!!
कुछ खड़े रहे मूक दर्शक बन ..!
कुछ गा रहे थे बस हम ही हम..!! 

कोलाहल तेज़ हुआ फ़िर बेतहाशा 
हर ओर नज़र छाने लगी निराशा !
सबकी अलग थलग थी भाषा-
कांप रही थी बच्चों की जिग्यासा !!
कल क्या होगा.. सोच रहे थे बच्चे 
एक बूड़ा़ बोला :-"भागो किसी लंगड़े की पीठ पे लद के ही "
जान बचाओ.. छिप छिपाकर.. 
हमें नहीं चाहिये न्याय
क्या करेंगें स्विस का पैसा लेकर 
फ़हराने दो उनको तिरंगा ये
है उनका
संवैधानिक अधिकार...
रामदेव..अन्ना... सब कर रहे
शब्दों का व्यापार..
अरे छोड़ो न यार
फ़िज़ूल में मत करो वक्त बरबाद..
गूंगे फ़रियादीयो कैसे बोलोगे
बहरी व्यवस्था की भी तो कोई मज़बूरी है
वो कानों से देखेगी...!!
सदन में चीत्कारेंते हैं..
हमारे लिये हां..ये वही लोग हैं जो
सड़क पर दुत्कारतें हैं...
पूरे तो होने दो पांच साल
बदल देना
इस बरगद की छाल...
अभी चलो घर चलतें हैं..

शनिवार, मार्च 12, 2011

ललित जी डर के आगे जीत है भई ..!!

बताईये दबंग कौन..?
" जबलपुरिया दबंगई -" हजूर जापान की सुनामी से विचलित होकर आप कुछ अधिक व्यग्र नज़र आ रहे हैं. हम तो फ़गुआहट से प्रभावित अपने मत दाताओं यानी माननीय सुधि पाठकों भावना की कदर करते हुए चाह रहे थे कि वार्ता कुण्ठा जन्य परिस्थियों की वज़ह से अवरुद्ध न हो. आपने हमारी सद भावना को सर्वथा ग़लत दिशा दी...! आप भी क्या कर सकते हैं विजया-सेवनोपरांत ऐसा ही लिखा जाता है.
"विजया को ऐसो नशा हो गये लबरा मौन
पत्नि से पूछे पति:-"हम आपके कौन..?"
ललित जी डर के आगे जीत है भई ..!!
मुझे "मूंछ उमेठन चुनौती से भय नहीं याद रखिये यह भी कि खरा आदमीं हूं कुम्हड़े का फ़ूल नहीं जो तर्जनी देख के डर जाऊं ! जब से होश सम्हाला है जूझता ही आया हूं किंतु आपकी पीडा मैं समझ सकता हूं आप ने आक्रोशवश जो भी लिखा उसे नज़र अंदाज़ करते हुए मैं सम्पूर्ण स्थितियों से पर्दा उठा देना चाहता हूं ताकि आप जैसे मित्र से मेरा जुड़ाव सतत रहे
१. ब्लाग4वार्ता एक स्नेह का अबोला अनुबंध है
२. ब्लाग4वार्ता को मेरे-आपके अलावा कई और मित्रों खासकर मेरे और आपके लिये आदरणीया संगीता पुरी जी, के स्नेह अलावा प्रिय
अनुज शिवम की ज़िद या कहूं प्रतिबद्धता से पुख्ता हो रही थी. फ़िर अचानक क्या हुआ कि ...आपने एकतरफ़ा निर्णय ले लिया
संकल्पों का भी सम्मान होना चाहिये .
३. वार्ता बंद करने के पूर्व कराए सर्वे को देखिये

हां
7 (19%)
नहीं
8 (22%)
क़दापि नहीं
21 (58%)
तटस्थ
0 (0%)


बहरहाल, आपने जब आदरणीया संगीता जी पर मामला छोड़ ही दिया है तो मुझे क्या मैं ताई भी से आग्रह करूंगा कि वे ही "सबको सम्मति दें...!" तब तक वार्ता से विदा लेता हूं हारकर नहीं बल्कि उस उम्मीद पर कि सब कुछ भला ही होगा....जो भी होता है या हुआ है  सब अच्छे के लिये
   "जै राम जी की"
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 दबंगई: -आपसे अनुरोध है कि वेबकास्ट शास्त्रार्थ के लिये सहमति दीजिये 
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बुधवार, फ़रवरी 02, 2011

कुछ चुनिन्दा वेबकास्ट


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शनिवार, अक्टूबर 04, 2008

बन्दर और चश्मा


साँस जो ली जाती है
चाहे अनचाहे
जीने के लि
जी हाँ इन्हीं साँसों के साथ
अंतस मे मिल जाती है
विषैली हवाओं में पल रहे विषाणु
उगा देते हैं शरीर में रोग
इसे विकास कहते हैं
जो जितना करीब है पर्यावरण से
उतना सुरक्षित है कम-अस-कम
बीमार देह लेकर नहीं मरता
पूरी उम्र मिलती है उसे
मान के सीने से चिपका बंदरिया का बेटा
कल मैंने उसे चूसते देखा है
"मुनगे की फली "
बेटी ने कहा :-"पापा,आज पिज्जा खाना है...!"
मैंने कहा :-"ज़रूर पर बताओ बन्दर का बेटा,
क्या खा रहा है ? "
झट जबाब मिला:-"मुनगा "
आप को पसंद नहीं है॥?

तो आपने मुझे चश्मा लगाए देखा है न ?
हाँ,पापा देखा है.....!पर ये सवाल क्यों..........?
मेरे अगले सवाल पे हंस पडी बिटिया
''बन्दर,को कभी चश्मा लगाऐ देखा बेटे...?''
पापा.ये कैसा सवाल है
बेटे,जो प्रकृति के जितना पास है उतना ही सुरक्षित है ।
इसका अर्थ बिटिया कब समझेगी
इस सच से बेखबर चल पङता हूँ ,
बाज़ार से पिज्जा लेने
[ कविता:मुकुल/चित्र:प्रीती]

गुरुवार, मई 29, 2008

"गिद्ध रहें न रहें गिद्धियत शेष रहेगी...!!"

sachin sharma ने कहा 80 लाख थे, 10 हजार रह गए!भईया इनकी जनरेशन की अब कोई ज़रूरत नहीं हैं । आदम जात में इनकी प्रवृत्ति ज़िंदा रहेगी ही । मौत बनते राजमार्ग! भी सच है राज के रास्ते चलते लोगों की आत्म-सम्मान,संवेदना,ईमान,सब कुछ मर जाता है । ज़िंदा रहती है केवल लिप्सा । लाशों के ढेर पर "राज" निति की बुनियाद इक एतिहासिक सत्य है।

इब्ने-इन्साँ ने खूब कहा -

" अपनी ज़ुबां से कुछ न कहेंगे चुप ही रहेंगे आशिक़ लोग,

तुम से तो इतना हो सकता है पूछो हाल बेचारों का "

SUYOG PATHAK ने गया उदय प्रकश जी का गीत स्वयम में ब्रह्म का एहसास दिलाता है।

मंगलवार, अप्रैल 01, 2008

शनिवार, मार्च 15, 2008

एक लघु कथा सा दृश्य

वो मुझे मेरे किये धरे कार्यों की गलतियाँ गिनाता , सबके सामने खुले आम मुझे ज़लील करता हुआ अपने को मेरा भाग्य विधाता साबित करता है......!
सच मुझे ईश्वर ने जीते जी अपने मरने का दु:ख सह सकने की ताकत न दी होती तो मैं उस बेचारे मूर्ख को भी आइना दिखा देता और होता ये कि -"मुझे नौकरी से हाथ धोना पङता , मेरे का बच्चों का स्कूल छूट जाता , मैं कोर्ट कचहरी के चक्कर में उलझ जाता । धीमे-धीमे मेरे करीब आता न्याय .... और ज़लालत से मिलाती निजात । लेकिन तब तक मैं दुनियाँ से बीस बरस पीछे चला जाता और आगे होती चाटूकारों की फौज सो मैं चुप हूँ ......... लेकिन उसको आइना तो दिखाना ही है... जो मुझे आइना दिखाता है !
कितनी वाहियाद जिन्दगी जीते हैं ये लोग जो सिरमौर होते हैं जो कितनी गंदी सोच लेकर पैदा किया होगा इनके माँ-बाप ने , बकौल मित्र प्रशांत कौरव :-"ये लोग शरीरों की रगड़ का रिज़ल्ट हैं।"
ये कुछ तनाव के कारण पैदा हुए लोग है ..... जो कभी भी तनाव बोने में पीछे नहीं हैं।
इनको तो जमा होना था तानाशाह के इर्द गिर्द ....?
देखिए हर कोई अपनी बाजीगरी के चक्कर में दूसरे की दुर्गति करता नज़र आ रहा है । ऊपर वालों के तलुए .... नीचे वालों को जूते के नोक पर रखिये इस दौर में ये धंधा खूब पनप रहा है..... सब जानते हैं । यदि कोई चाहे भी तो इससे निजात नहीं पा सकता ?

रविवार, फ़रवरी 10, 2008

प्रेमिका और पत्नी



प्रिया बसी है सांस में मादक नयन कमान
छब मन भाई,आपकी रूप भयो बलवान।
सौतन से प्रिय मिल गए,बचन भूल के सात
बिरहन को बैरी लगे,क्या दिन अरु का रात
प्रेमिल मंद फुहार से, टूट गयो बैराग,
सात बचन भी बिसर गए,मदन दिलाए हार ।
एक गीत नित प्रीत का,रचे कवि मन रोज,
प्रेम आधारी विश्व की , करते जोगी खोज । ।
तन मै जागी बासना,मन जोगी समुझाए-
चरण राम के रत रहो , जनम सफल हों जाए । ।

दधि मथ माखन काढ़ते,जे परगति के वीर,
बाक-बिलासी सब भए,लड़ें बिना शमशीर .
बांयें दाएं हाथ का , जुद्ध परस्पर होड़
पूंजी पति के सामने,खड़े जुगल कर जोड़

इस सप्ताह वसंत के अवसर पर मेरी भेंट स्वीकारिए

पूर्णिमा वर्मन ने अनुभूति में सूचीबद्ध कर लिया है है उनका आभारी हूँ । अनुभूति अभिव्यक्ति वेब की बेहतरीन पत्रिकाएँ है इस बार के अंक में भी हें मेरी उपस्थिति इस तरह दोहों में-
डॉ. गोपाल बाबू शर्मा
राजनारायण चौधरी
गिरीश बिल्लोरे मुकुल बस एक चटका लगाने की देर है॥
नीचे चटका लगा के मुझ से मिलिए
गिरीश बिल्लोरे ''मुकुल''

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