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हरि रैदास की रोटियां....

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रोटीयों पर लिखी नजीर अकबराबादी की   नज़्म  तो याद है न आपको  नजीर साहेब  का नज़रिया साहित्य के हिसाब किताब से देखा जाए तो साफ़ तौर पर एक फ़िलासफ़ी है..  जब आदमी के पेट में आती हैं रोटियाँ । फूली नही बदन में समाती हैं रोटियाँ ।। आँखें परीरुख़ों [1]  से लड़ाती हैं रोटियाँ । सीने ऊपर भी हाथ चलाती हैं रोटियाँ ।।          जितने मज़े हैं सब ये दिखाती हैं रोटियाँ ।।1।। रोटी से जिनका नाक तलक पेट है भरा । करता फिरे है क्या वह उछल-कूद जा बजा ।। दीवार फ़ाँद कर कोई कोठा उछल गया । ठट्ठा हँसी शराब, सनम साक़ी, उस सिवा ।।          सौ-सौ तरह की धूम मचाती हैं रोटियाँ ।।2।।                                                                अदभुत है.. सच मुझ से दूर नहीं हो पातीं वो यादें...  जब रेल की पटरियों  का काम करने वाली गैंग वाले मेहनत मज़दूरों के पास न चकला न बेलन बस हाथ से छोटी सी अल्यूमीनियम की छोटी सी परात में सने आटे के कान मरोड़ कर एक लोई निकाल लेते हाथ गोल-गोल रोटियां बना देते थे.उधर पतले से तवे पर रोटी गिरी और आवाज़ हुई छन्न से पलट देता मज़दूर रोटी को  खुशबू   बिखेरती रोटी