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गुरुवार, नवंबर 11, 2010

खबरनवीसी कोई चुगल खोरी का धंधा नहीं मेरे दोस्त

भारतीय जनता पशु नहीं है

निजता के मोल लेख में डॉ॰ मोनिका शर्मा ने स्पष्ट किया कि महज़ टी आर पी के चक्कर में क्या कुछ जारी है. खास कर रियलिटी के नाम पर अंधाधुन्ध की जा रहीं कोशिशें उफ़्फ़ अब देखा नहीं जाता. उन्हैं जो खो रहे हैं पैसों के लिये अपना ज़मीर, अपना सोशल स्टेटस, यहां तक कि अपने वसन भी.  यही "उफ़्फ़"  उनके लिये भी जो कि अक्सर भूल जातें चौथे स्तंभ की गरिमा और प्रमुखता दे रहे होते हैं सनसनाती खबरों पर .
जब अखबार या चैनल किसी के पीछे पड़तें हैं. रिश्ते भी रिसने लगते हैं. तनाव से भर जाता है  ज़िंदगियों में इसे क्या कहा जावे.मेरे पत्रकार  एक मित्र का अचानक मुंह से निकला शब्द यहां कोड करना चाहूंगा:-"खबरनवीसी  कोई चुगल खोरी का धंधा नहीं मेरे दोस्त" यह वाक्य उसने तब कहा था जब कि वह एक अन्य पत्रकार मित्र से किसी नेता के विरुद्ध भ्रांति फ़ैलाने के उद्येश्य से स्टोरी तैयार कर रहा था के संदर्भ में कहे थे. आज़कल समाचार,समाचारों  की शक्ल में कहे लिखे जातें हैं ऐसी स्थिति नहीं है. जिसे देखिये वही हिंसक ख़बरनवीसी में जुटा है. निजता का हनन चाहे जैसे भी हो, हो ही जाता है. चाहे खबरनवीस करें या स्वयम हम स्वीकारें.यहां मानव अधिकारों की वक़ालत करने वाले खामोश क्यों....? यही सवाल सालता है बुद्धि-जीवियों को. एक बार मेरे बड़े भाईसाहब से उनके एक परिचित ने  पूछा:-"फ़लां स्टेशन पर प्लेट फ़ार्म की प्रकाश व्यवस्था ठीक नहीं है "
भाई साहब ने पूछा:-आप को कैसे मालूम ?
परिचित:-"अखबार में देखा "
भाई साहब:- "आज़ आपके घर का मेन गेट का लाईट बल्व बंद है क्या जलाया नहीं आपने ?"
   परिचित अवाक़ उनका मुंह ताकते कुछ देर बोला :- आज मंगलवार हैं न बाज़ार की छुट्टी थी सो मैं  ट्यूब-राड खरीदने न जा सका ...... ?
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बात तीन बरस पुरानी  है जब मैं अपने क्षेत्रीय दौरे के समय एक आंगन वाड़ी केंद्र पर रुका मेरा अधिकारी भी साथ साथ था, केंद्र पर दो कर्मचारी होते हैं उनमें से प्रमुख कार्यकर्ता गायब थी  केंद्र पर कुछेक बच्चे  मिले एक बच्चा तो ज़मीन में धूल खाता नज़र आया ऐसी स्थिति कई बार  मैने भी देखी थी सो मैनें उसका पिछला रिकार्ड देखते हुए उसे नोटिस दिये नियमानुसार कार्य से हटा भी दिया जो अमूमन मेरी रुचि के विरुद्ध है तीसरे या चौथे दिन राज्य स्तर के एक खबरिया चैनल पूरे दिन उस समाचार को इस तरह चलाया कि शायद मैं अपराधी हूं. क्या यही ज़वाब देही है हमारी ...?
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कुण्ठाएं समाज को घृणा से ज़्यादा और कुछ नहीं दे सकती हम उस दौर से गुज़र रहें हैं जो सकारात्मकता में नकारात्मकता खोज रहा है  हम उस दौर से निकल चुकें हैं जब नकारात्मकता से सकारात्मकता खोजी जाती थीं . अखबार न्यूज़ चैनल्स से बस इतनी अपेक्षा है कि इतना करें कि मानवता बची रहे  
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यह आलेख केवल सकारात्मकता के वातावरण को निर्मित करने का संकेत है जो डॉ॰ मोनिका शर्मा के आलेख से प्रेरित है .

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