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बुधवार, दिसंबर 14, 2011

जी रहे हैं हम सिग्मेंट में

पृथ्वीराज चौहान
"क्या खबर लाए हो खबरची...!" मोहम्मद गोरी ने पूछा
खबरची-ज़नाब, हिंदुस्तानी राजा की फ़ौज में खाना चल रहा
किस तरह खाना खा रहे हैं..?
गुस्ताख़ी माफ़ हो हुज़ूर...! आम इंसान जैसे
फ़िर से जाओ.. गौर से देखो..
   खबरची फ़िर गया.. और फ़िर अबकी बार वो बता पाया कि सैनिक अपने अपने ओहदों के हिसाब से खेमों में भोजन कर रहे हैं..
    खाने के लिये बिछे दस्तरख़ान पर गोरी ने उस खबरी को अपने क़रीब बैठाया सभी ने बिस्मिल्लाह की खाते खाते गोरी  तेज़ आवाज़ में बोला-’दोस्तो, इस बात को मैं पहले से ही जानता हूं. ये लोग खा-पी एक साथ नहीं रहे हैं.. इनको हराना उतना मुश्कि़ल नही है. तभी तो मैं बार बार कहता हूं हम ज़रूर जीतेगें.. हुआ भी यही.
                     यही है आज़ का  सच !  आज़ भी हम हमेशा हार जाते हैं,एक नहीं हैं न..?
हममें ऐसा भारत पल रहा है जो हमने खुद अपने लिये बनाया है. ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों, शूद्रों के अपने अपने भारत हैं, हिंदी वाला,मराठी वाला, गुजराती वाला, मद्रास वाला, जाने कितने भारत बना लिये इतने तो महाभारत में भी न थे. तभी तो   कसाब-अफ़ज़ल हमारे आंसुओं पर हंसते हैं. हम हैं कि उस सिग्मेंट का मुंह ताक रहे जिसे हम नज़र ही नहीं आते..
                          काश राम लीला मैदान से एक चौथाई हिस्से में ही सही एक बार तो हम  अफ़ज़ल के अंत के लिये जमा हो जाते.. किंतु होते कैसे हम जो जी रहे  हैं सिग्मैंट में..!!

रविवार, जुलाई 17, 2011

हमारी खामोशी के पीछे पनपता क्रांति का वातावरण..!!


भारत में आतंकवादियों को सज़ा के लिये लम्बी प्रकिया से एक ओर समूचा  हिंदुस्तान हताश  है तो दूसरी ओर  आतंकवाद को शह मिल रही हैतो इस मसले को गर्माए रखने के लिये काफ़ी है.यह सवाल भी भारतीय व्यवस्था  के सामने है कि क्या आतंकवादीयों के लिये ऐसे क़ानून नहीं बनाए जा सकते जिससे उनका तुरंत सफ़ाया हो सके.

   यदी  आम आदमीयों से ज़्यादा ज़रूरी है कसाब का  जीना तो होने दीजिये धमाके हमारी कीमत की क्या है. फ़िर दाग दीजिये एक जुमला "हम आतंकियों को नहीं छोड़ेंगे " हम अपनी व्यवस्था के दयालू होने की क़ीमत भी चुका देंगे...आपके इस  भारतीय-फ़लसफ़े को नुकसान न पहुंचाएंगे.  क्योंकि आप को हमारी बड़ी चिंता है जिसका उदाहरण ये भी है. हम तो वोट हैं जो एक टुकड़ा है कागज़ का, हम तो बाबू,मास्टर,स्कूली बच्चे, मिस्त्री, मुंशी, वगैरा वगैरा, हमारी कीमत ही क्या है.. हो जाने दो हमारी देह को चीथड़ों में तक़सीम किसी  हम जो रोटी के लिये पसीने को बहा देना अपना धर्म मानते हैं हम जो तुम सब की नीयत को पहचानते हैं तुम्हारे लिये हमसे कीमती जान उस आतंकी की है तो ठीक है बचा लो उसे पर याद रखना ये सौदा मंहगा साबित होगा   यदी एक बार हमें मौका   मिला तो सच बता देंगे सच-झूठ, न्याय-अन्याय का अर्थ.  देखो हमारे तेवर अब असाधारण हैं. हमारी खामोशी के पीछे   पनपता क्रांति का वातावरण है.. उसे देख  शायद  होश में आ जाओगे.. मुझे फ़िर भी यक़ीन नहीं कि तुम मुझे आज़ाद भारत में आज़ादी का गीत सुनाओगे.

  

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