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24.2.13

आतंकवाद क्या ब्लैकहोल है सरकार के लिये


                                                                                         
                उसे मालूम न था कि हर  अगला पग उसे मृत्यु के क़रीब ले जा रहा है. अपने कल को सुंदर से अति सुंदर सिक्योर बनाने आया था वो. उस जानकारी न थी कि कोई भी सरकार किसी हादसे की ज़िम्मेदारी कभी नहीं लेती ज़िम्मेदारी लेते हैं आतंकी संगठन सरकार तो अपनी हादसे होने की वज़ह और  चूक से भी मुंह फ़ेर लेगी. संसद में हल्ला गुल्ला होगा राज्य से केंद्र पर केंद्र से राज्य पर बस एक इसी  आरोप-प्रत्यारोप के बीच उसकी देह मर्चुरी में ढेरों लाशों के बीच पड़ी रहेगी तब तक जब तक कि उसका कोई नातेदार आके पहचान न ले वरना सरकारी खर्चे पे क्रिया-कर्म तो तय है.
  
काजल कुमार जी
की आहत भावना 
                               आम भारतीय अब समझने लगा है कि  आतंकवाद से जूझने शीर्षवालों के पास कोई फ़ुल-प्रूफ़ प्लान नहीं है. यदि है भी तो इस बिंदु पर कार्रवाई के लिये कोई तीव्रतर इच्छा शक्ति का आभाव है. क्यों नहीं खुलकर जनता के जानोमाल की हिफ़ाज़त का वादा पूरी ईमानदारी से किया जा रहा है या फ़िर  कौन सी मज़बूरियां हैं जिनकी वज़ह से हम आतंक के खिलाफ़ की एक कारगर मुहिम को अंज़ाम देने में हिचकिचा रहे हैं. बेशक़ अब तो ऐसा लगता है कि किसी भी शीर्षस्थ के हृदय में  कोई कोना नहीं जहां मानव प्रजाती की रक्षा के लिये एक विचार हो.ऐसी विषम परिस्थितियां उस पर  राज्य का राष्ट्र की सरकार पर राष्ट्र की सरकार का राज्य की सरकारों के बीच होते संवादों पर व्यंग्यकार कार्टूनिष्ट काजल कुमार अत्यधिक उद्वेलित हैं वे जो कह रहें हैं उनके कार्टून के ज़रिये पार्श्व में अंकित कार्टून देखते ही लगता है कि वे बहुत आहत हैं. आहत सारे भारतीय हैं.. सारे कवि लेखक चिंतक विचारक, यहां तक कि वो भी जो रोज़िन्ना पसीना बहाता है दो जून की रोटी कमाता है. व्यवस्था  से खुद को दूर कर रहा है... भयातुर है उसमे एक भावना घर कर रही है कि उसे हमेशा छला और ठगा जाता है कौन जाने एक और कल भी ऐसा ही आए. लेखक चिंतक,विचारक, कवि, कार्टूनिष्ट, या आम-आदमी मूल्य हीन है. इनकी आवाज़ की की़मत..? कुछ भी नहीं ये रोयें या झीखें.. इनके मरने न मरने से किसी देश का क्या बनेगा बिगड़ेगा भला आप ही बताइये. देश में आतंक का जन्म  होने के कारण को खोजती व्यवस्था गोया उसे एक ब्लैकहोल मान चुकी है. 
                                          एक सरकार के लिये उसकी रियाया की रक्षा करना उसका मूल दायित्व होता है. बिना किसी लाग लपेट के कहा जाए तो सरकार को मां के उस आंचल की मानिंद मानती है रियाया कि जब भी ज़रा भी आपदा हो मां का आंचल सबसे पहले उसके बच्चे को ढांकता है. पर न केवल भारत वरन विश्व की  सरकारें जाने किस मोह पाश में बंधीं हैं कि अपनी रियाया की रक्षा के सवाल पर अपनी सफ़ाई देतीं फ़िरतीं हैं. 
                                           उधर पड़ोसी मुल्क की हालत हमसे गई गुजरी है वहां की सरकार तो सत्ता में आते ही बदहवास हो जाती है. बस अब कुछ भी नहीं लिखा जाता जाने कल का अखबार क्या खबर लाता है.. सोचता रहूंगा बिस्तर पर लेटे लेटे 
 शायर शिकेब  ने कहा था 
जाती है धूप उजले परों को समेट के 
ज़ख्मों को अब गिनूंगा मैं बिस्तर पे लेट के
और उनसे विनम्र माफ़ी नामे के साथ कहना चाह रहा हूं 
जाती है धूप गर्द में दहशत लपेट के
ज़ख्मों को गिनूंगा मैं बिस्तर पे लेट के !
सुना है शाह बेखबर है नीरो के जैसा


  
      

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