तुम परसाई जी के शहर से हो..?
न ...!
जबईपुर से हो न....?
हां....!
तो उनका ही शहर है न...!
न पत्थरों का है...!
हा हा समझा तुम उनके शहर के ही हो..
न...
उनके मुहल्ले का हूं.. राइट टाउन में ही रहते थे. उनके हाथ की गटागट वाली गोली भी खाई है. बचपने में. कालेज के दिनों में तो उनका कद समझ पाया था. सो बस उनके चरणों की तरफ़ बैठने की इच्छा हुआ करती थी.
परसाई जी पर बतियाते बतियाते जबलपुर प्लेट फ़ार्म पर गाड़ी आ टिकी... चाय बोलो चाय गरम. के अलावा और भी कुहराम सुनाई पड़ा भाई.. आपका स्टेशन आ गया.. आप तो घर पहुंच जाओगे मुझे तो कटनी से उत्कल पकड़नी है. राम जुहार के बाद सज्जन से बिदा ली अपन भी निकल लिये. आधे घंटे बाद बीना एक्सप्रेस भी निकल गई होगी.
शहर परसाई का ही तय है... पर केवल परसाई का.. न उनको उनके समय नकारने वालों का भी है. अक्सर ऐसा ही होता है... जीवन काल में किसी को जो नहीं भाता उसे बाद में खटकता है..
ओशो परसाई के बीच तत्समय जो शिखर वार्ताएं हुआ करती थीं एक सकारात्मक साहित्य के रूप में उसे देखा समझा जा सकता है. परसाई जी और ओशो के जन्मस्थली बीच कोई खास अंतर न था . होशंगाबाद के आस-पास की पैदाईश दौनो महर्षियों की थी. दौनों का व्यक्तित्व सम्मोहक और अपनी अपनी खासियतों से लबरेज़ कहा जा सकता है. कल्पना वश दौनों की विचारशैलियों का सम्मिश्रण करना भी चाहो तो भी नर्मदा के दौनो तीर का मिलना सम्भव नहीं. पर क्रांतिकारी दौनों ही थे . एक ने परा को नकारने की कोशिश की तो दूसरे ने वर्तमान पर तीक्ष्ण वार करने में कोई कोताही नहीं बरती. टार्च तो दौनों ने बांटे . हां तो परसाई जी ने जो भी देखा लिक्खा अपनी स्टाइल में ओशो ने कहा अपनी स्टाइल में. पर आपसी वैचारिक संवादों से साहित्य-सृजन हुआ यह सच है.
परसाई जी का व्यंग्य करने का तरीका देखिये "तस्करी सामान की भी होती है – और आध्यात्मिक तस्करी भी होती है. कोई आदमी दाढ़ी बढ़ाकर एक चेले को लेकर अमेरिका जाए और कहे, “मेरी उम्र एक हज़ार साल है. मैं हज़ार सालों से हिमालय में तपस्या कर रहा था. ईश्वर से मेरी तीन बार बातचीत हो चुकी है.” विश्वासी पर साथ ही शंकालु अमेरिकी चेले से पूछेगा – क्या तुम्हारे गुरु सच बोलते हैं? क्या इनकी उम्र सचमुच हज़ार साल है? तब चेला कहेगा, “मैं निश्चित नहीं कह सकता, क्यों कि मैं तो इनके साथ सिर्फ़ पाँच सौ सालों से हूँ.” " यहां समकालीन परिस्थिति पर प्रस्तुत वक्तव्य सार्वकालिक नज़र आ रहा है.
हां तो मित्रो मेरी मिसफ़िट बातों के बीच एक हक़ीक़त बताए देता हूं कि -
"परसाई के बाद कईयों की खूब चल निकली कई ने परसाई को ओढ़ा कई ने सिराहने रखा बस बिछा न पाये.. बिछा तो उनको जीते जी दिया था जबलपुर वालों नें.. बस छाती पे मूंग न दल पाए वैसे तो मूंग भी दल लेते पर मूंग क्या उनके मुंह मसूर के लायक न थे.. खैर छोड़ो परसाई की छाती पे दलहन दलने के जुगाड़ करने वालों में कई देवलोक वासी हो गए प उनका क्या जो परसाई को ओढ़ रहे हैं या सिराने रखे हैं.. अब इन महानुभावों पे क्या लिखूं.. इनका स्मरण कर उनके पुण्य स्मरण को आभासी नहीं बनाना चाहता हूं. एक प्रोफ़ेसर हैं बुंदेलखंड के न हरदा गये न टिमरनी ऐसा लिखा परसाई पे कि जैसे बस आज़ के वेद व्यास वे ही हैं. किधर से का जोड़ा उनकी किताब में बांचते ही माथा पीट लिया.. परसाई जी का डी एन ए टेस्ट करने पे आमादा नज़र आए वो किताब में. आप तो जानते हो कि "गंज और नाखून" संग साथ होवें तो कितनी विषम स्थिति होती है जी हां उतनी ही मुश्किल जितना एक अधज्ञानी को कलम पकड़ा देने से होता है.
ये कहना गलत है की परसाई किसी कुंठा का शिकार थे ऐसा मुझे नही लग रहा . आपकी आप जानें. आपको लगे तो लगे. समकालीन स्थितियां क्या थीं तब कमसिन न होता तो बयां अवश्य कर पाता पर जितना श्रुत हुआ उस आधार पर कह सकता हूं कि न तो परसाई जी की जमीन ओशो ने अपने नाम कराई थी न ही परसाई जी ने ओशो की दूकान से उधारी पे टार्च वगैरा ले गये थे. पाज़िटिव नज़रिये से देखा जाए तो चेष्टा दौनों की सकारात्मक ही रही परसाई जी और ओशो ऐसे चित्रक थे जो अपने अपने कैनवस पर रंग भरने में अपने अपने तरीके से तल्लीन रहे. पर फ़क्कड़ होने की वज़ह से मुझे सबसे क़रीब परसाई जी ही लगते हैं. सचाई को नज़दीक से महसूस कर लिखने वाले परसाई जी ने भोलाराम के जीव देख कर व्यवस्था को जो तमाचा जड़ा उसकी गूंज आज भी सुनाई देती है. पर मुए सरकारी लोग आज भी जस के तस हैं..
बड़े साब छोटे साब, बड़े बाबू छोटे बाबू आधारित व्यवस्था को बदलने की कोशिश परसाई जी ने तब कर डाली थी जब व्यवस्था में लचर पचर तत्व प्रारम्भ ही हुए थे.. अब उफ़्फ़ अब तो अर्रा सी रही है व्यवस्था..
श्री लाल शुक्ल के रागदरबारी वाले लंगड़ को नकल मिली तब जब कि वो चुक गया... उधर दबाव इतना बढ़ गया कि आप व्यवस्था को सुधार नहीं सकते व्यवस्था सुधारने के लिए आपको दायां बांया देखना होगा . न देखा तो दुर्गा शक्ति की मानिंद दबा दिये जाओगे. मीडिया की अपनी मज़बूरी है उसे भी नये विषय चाहिये.. नहीं तो कल आप खुद कहोगे क्या वही पुरानी चटाई बिछा देता है मीडिया... हम लेखकों की अपनी मज़बूरी हैं कित्ता लिखें हमारा लिखा कित्ते लोग बांचते हैं.. जो पढ़ते हैं वो केवल टाइम पास करते हैं.. यानी केवल चल रही है गाड़ी सब के सब फ़िल्म सियासत और स्टेटस से हट के कुछ सोचने समझने के लिये तैयार ही नहीं हैं ऐसे दौर में परसाई जी जैसा व्यक्तित्व अधिक आवश्यक है...परसाई के साहित्य में तलाश कीजिये परसाई जी को जो केवल मेरे जबलईपुर का नहीं पूरे देश का है.. बिहार के भी जहां मिड डे मील वाले बच्चों के जीव तड़प रहे हैं एक अदद न्याय के लिये...
न ...!
जबईपुर से हो न....?
हां....!
तो उनका ही शहर है न...!
न पत्थरों का है...!
हा हा समझा तुम उनके शहर के ही हो..
न...
उनके मुहल्ले का हूं.. राइट टाउन में ही रहते थे. उनके हाथ की गटागट वाली गोली भी खाई है. बचपने में. कालेज के दिनों में तो उनका कद समझ पाया था. सो बस उनके चरणों की तरफ़ बैठने की इच्छा हुआ करती थी.
परसाई जी पर बतियाते बतियाते जबलपुर प्लेट फ़ार्म पर गाड़ी आ टिकी... चाय बोलो चाय गरम. के अलावा और भी कुहराम सुनाई पड़ा भाई.. आपका स्टेशन आ गया.. आप तो घर पहुंच जाओगे मुझे तो कटनी से उत्कल पकड़नी है. राम जुहार के बाद सज्जन से बिदा ली अपन भी निकल लिये. आधे घंटे बाद बीना एक्सप्रेस भी निकल गई होगी.
शहर परसाई का ही तय है... पर केवल परसाई का.. न उनको उनके समय नकारने वालों का भी है. अक्सर ऐसा ही होता है... जीवन काल में किसी को जो नहीं भाता उसे बाद में खटकता है..
ओशो परसाई के बीच तत्समय जो शिखर वार्ताएं हुआ करती थीं एक सकारात्मक साहित्य के रूप में उसे देखा समझा जा सकता है. परसाई जी और ओशो के जन्मस्थली बीच कोई खास अंतर न था . होशंगाबाद के आस-पास की पैदाईश दौनो महर्षियों की थी. दौनों का व्यक्तित्व सम्मोहक और अपनी अपनी खासियतों से लबरेज़ कहा जा सकता है. कल्पना वश दौनों की विचारशैलियों का सम्मिश्रण करना भी चाहो तो भी नर्मदा के दौनो तीर का मिलना सम्भव नहीं. पर क्रांतिकारी दौनों ही थे . एक ने परा को नकारने की कोशिश की तो दूसरे ने वर्तमान पर तीक्ष्ण वार करने में कोई कोताही नहीं बरती. टार्च तो दौनों ने बांटे . हां तो परसाई जी ने जो भी देखा लिक्खा अपनी स्टाइल में ओशो ने कहा अपनी स्टाइल में. पर आपसी वैचारिक संवादों से साहित्य-सृजन हुआ यह सच है.
परसाई जी का व्यंग्य करने का तरीका देखिये "तस्करी सामान की भी होती है – और आध्यात्मिक तस्करी भी होती है. कोई आदमी दाढ़ी बढ़ाकर एक चेले को लेकर अमेरिका जाए और कहे, “मेरी उम्र एक हज़ार साल है. मैं हज़ार सालों से हिमालय में तपस्या कर रहा था. ईश्वर से मेरी तीन बार बातचीत हो चुकी है.” विश्वासी पर साथ ही शंकालु अमेरिकी चेले से पूछेगा – क्या तुम्हारे गुरु सच बोलते हैं? क्या इनकी उम्र सचमुच हज़ार साल है? तब चेला कहेगा, “मैं निश्चित नहीं कह सकता, क्यों कि मैं तो इनके साथ सिर्फ़ पाँच सौ सालों से हूँ.” " यहां समकालीन परिस्थिति पर प्रस्तुत वक्तव्य सार्वकालिक नज़र आ रहा है.
हां तो मित्रो मेरी मिसफ़िट बातों के बीच एक हक़ीक़त बताए देता हूं कि -
"परसाई के बाद कईयों की खूब चल निकली कई ने परसाई को ओढ़ा कई ने सिराहने रखा बस बिछा न पाये.. बिछा तो उनको जीते जी दिया था जबलपुर वालों नें.. बस छाती पे मूंग न दल पाए वैसे तो मूंग भी दल लेते पर मूंग क्या उनके मुंह मसूर के लायक न थे.. खैर छोड़ो परसाई की छाती पे दलहन दलने के जुगाड़ करने वालों में कई देवलोक वासी हो गए प उनका क्या जो परसाई को ओढ़ रहे हैं या सिराने रखे हैं.. अब इन महानुभावों पे क्या लिखूं.. इनका स्मरण कर उनके पुण्य स्मरण को आभासी नहीं बनाना चाहता हूं. एक प्रोफ़ेसर हैं बुंदेलखंड के न हरदा गये न टिमरनी ऐसा लिखा परसाई पे कि जैसे बस आज़ के वेद व्यास वे ही हैं. किधर से का जोड़ा उनकी किताब में बांचते ही माथा पीट लिया.. परसाई जी का डी एन ए टेस्ट करने पे आमादा नज़र आए वो किताब में. आप तो जानते हो कि "गंज और नाखून" संग साथ होवें तो कितनी विषम स्थिति होती है जी हां उतनी ही मुश्किल जितना एक अधज्ञानी को कलम पकड़ा देने से होता है.
ये कहना गलत है की परसाई किसी कुंठा का शिकार थे ऐसा मुझे नही लग रहा . आपकी आप जानें. आपको लगे तो लगे. समकालीन स्थितियां क्या थीं तब कमसिन न होता तो बयां अवश्य कर पाता पर जितना श्रुत हुआ उस आधार पर कह सकता हूं कि न तो परसाई जी की जमीन ओशो ने अपने नाम कराई थी न ही परसाई जी ने ओशो की दूकान से उधारी पे टार्च वगैरा ले गये थे. पाज़िटिव नज़रिये से देखा जाए तो चेष्टा दौनों की सकारात्मक ही रही परसाई जी और ओशो ऐसे चित्रक थे जो अपने अपने कैनवस पर रंग भरने में अपने अपने तरीके से तल्लीन रहे. पर फ़क्कड़ होने की वज़ह से मुझे सबसे क़रीब परसाई जी ही लगते हैं. सचाई को नज़दीक से महसूस कर लिखने वाले परसाई जी ने भोलाराम के जीव देख कर व्यवस्था को जो तमाचा जड़ा उसकी गूंज आज भी सुनाई देती है. पर मुए सरकारी लोग आज भी जस के तस हैं..
बड़े साब छोटे साब, बड़े बाबू छोटे बाबू आधारित व्यवस्था को बदलने की कोशिश परसाई जी ने तब कर डाली थी जब व्यवस्था में लचर पचर तत्व प्रारम्भ ही हुए थे.. अब उफ़्फ़ अब तो अर्रा सी रही है व्यवस्था..
श्री लाल शुक्ल के रागदरबारी वाले लंगड़ को नकल मिली तब जब कि वो चुक गया... उधर दबाव इतना बढ़ गया कि आप व्यवस्था को सुधार नहीं सकते व्यवस्था सुधारने के लिए आपको दायां बांया देखना होगा . न देखा तो दुर्गा शक्ति की मानिंद दबा दिये जाओगे. मीडिया की अपनी मज़बूरी है उसे भी नये विषय चाहिये.. नहीं तो कल आप खुद कहोगे क्या वही पुरानी चटाई बिछा देता है मीडिया... हम लेखकों की अपनी मज़बूरी हैं कित्ता लिखें हमारा लिखा कित्ते लोग बांचते हैं.. जो पढ़ते हैं वो केवल टाइम पास करते हैं.. यानी केवल चल रही है गाड़ी सब के सब फ़िल्म सियासत और स्टेटस से हट के कुछ सोचने समझने के लिये तैयार ही नहीं हैं ऐसे दौर में परसाई जी जैसा व्यक्तित्व अधिक आवश्यक है...परसाई के साहित्य में तलाश कीजिये परसाई जी को जो केवल मेरे जबलईपुर का नहीं पूरे देश का है.. बिहार के भी जहां मिड डे मील वाले बच्चों के जीव तड़प रहे हैं एक अदद न्याय के लिये...