संदेश

कहानी लेबल वाली पोस्ट दिखाई जा रही हैं

कहानी आचार्य चंद्रमोहन जैन लेखक पंडित सुरेंद्र दुबे

चित्र
ओशो की आलोचना क्यों? इस प्रश्न का उत्तर स्वयं ओशो में छिपा है। वह यह कि ओशो अपने समय के सबसे बड़े आलोचक थे। कोई ऐसे-वैसे आलोचक नहीं बल्कि बड़े ही सुतार्किक समालोचक। जिन्होंने कुछ भी अनक्रिटिसाइज़्ड नहीं रहने दिया। उन्होंने अपनी सदी ही नहीं बल्कि पूर्व की सदियों तक में व्याप्त विद्रूपताओं पर जमकर कटाक्ष किया। उनके बेवाक वक्तव्यों में अतीत और वर्तमान ही नहीं भविष्य के सूत्र भी समाहित होते थे। यही उनकी दूरदर्शिता थी, जो उन्हें कालजयी बनाती है। उन्होंने निर्भीकतापूर्वक परम्परागत धर्मों की जड़ों पर वज्रप्रहार तक से गुरेज़ नहीं किया। इस वजह से कट्टरपंथियों-रूढिवादियों का भयंकर विरोध भी झेला। राजनीति व राजनीतिज्ञों का खुलकर माखौल उड़ाया।जिसके कारण उच्च पदासीनों की वक्रदृष्टि तक पड़ी। जिससे ओशो कभी विचलित नहीं हुए। वे किसी त्रिकाल-दृष्टा की भाँति अडिग भाव से अपने पथ पर बढते चले गए। कभी न तो विरोधियों की परवाह की, न ही समर्थकों को मनमानी करने दी। वस्तुत: उनका अपना आत्मानुशासन था, जिसके बावजूद स्वातंत्र्य उनका मूल स्वर था। जरा देखिए, उन्होंने कितनी अद्भुत देशना दी- "सम्पत्ति से नहीं,स्

मर्मस्पर्श (कहानी)

चित्र
        " गुमाश्ता जी क्या हुआ भाई बड़े खुश नज़र आ रहे हो.. अर्र ये काज़ू कतली.. वाह क्या बात है.. मज़ा आ गया... किस खुशी में भाई.. ?"         " तिवारी जी , बेटा टी सी एस में स्लेक्ट हो गया था. आज  उसे दो बरस के लिये यू. के. जाना है... !" लो आप एक और लो तिवारी जी..           तिवारी जी काज़ू कतली लेकर अपनी कुर्सी पर विराज गये. और नक़ली मुस्कान बधाईयां देते हुए.. अका़रण ही फ़ाइल में व्यस्त हो गए. सदमा सा लगता जब किसी की औलाद तरक़्की पाती , ऐसा नहीं कि तिवारी जी में किसी के लिये ईर्षा जैसा कोई भाव है.. बल्कि ऐसी घटनाओं की सूचना उनको सीधे अपने बेटे से जोड़ देतीं हैं. तीन बेटियों के बाद जन्मा बेटा.. बड़ी मिन्नतों-मानताओं के बाद प्रसूता... बेटियां एक एक कर कौटोम्बिक परिपाटी के चलते ब्याह दीं गईं. बचा नामुराद शानू.. उर्फ़ पंडित संजय कुमार तिवारी आत्मज़ प्रद्युम्न कुमार तिवारी. दिन भर घर में बैठा-बैठा किताबों में डूबा रहता . पर क्लर्की की परीक्षा भी पास न कर पाया. न रेल्वे की , न बैंक की. प्रायवेट कम्पनी कारखाने में जाब लायक न था. बाहर शुद्ध हिंदी घर में बुंदेली बोलने वाले लड़का

सुनहरे पंखों वाली चिड़िया और पागल

चित्र
पता नहीं किधर से आया है वो पर बस्ती में घूमता फ़िरता सभी देखते हैं. कोई कहता है कि बस वाले रास्ते से आया है किसी ने कहा कि उस आदमी की आमद रेल से हुई है. मुद्दा साफ़ है कि बस्ती में अज़नबी आया अनजाना ही था. धीरे धीरे लोगों उसे पागल की उपाधी दे ही दी. कभी रेल्वे स्टेशन तो कभी बस-अड्डॆ जहां रोटी का जुगाड़ हुआ पेट पूजा की किसी से चाय पीली किसी से पुरानी पैंट किसी से कमीज़ ली नंगा नहीं रहा कभी . रामपुर गांव की मंदिर-मस्ज़िद के दरमियां पीपल के पेड़ पर बैठे पक्षियों से यूं बात करता मानों सब को जानता हो . कभी किसी कौए से पूछता – यार, तुम्हारा कौऊई-भाभी से तलाक हो गया क्या.. ? आज़कल भाभी साहिबा नज़र नहीं आ रहीं ? ओह मायके गईं होंगी.. अच्छा प्रेगनेट थीं न.. ! मेरी मम्मी भी गई थी पीहर जब मेरा जन्म होने वाला था.                  उसे किसी कौए ने कभी भी ज़वाब नहीं दिया पर वो था कि उनकी कांव-कांव में उत्तर खोज लेता था संतुष्ट हो जाता था. वो पागल है कुछ भी कर सकता है कुछ भी कह सकता है . हां एक बात तो बता दूं कि उसे सुनहरे पंख वाली चिड़िया खूब पसंद थी हर सुबह चुग्गा चुनने जाने के पहले पागल की पो

और हमारा मुंह खुला का खुला रह गया

चित्र
और हमारा मुंह खुला का  खुला रह गया धीरे धीरे राम धुन पे शव यात्रा जारी थी. लोग समझ नहीं पा रहे थे कि गुमाश्ता बाबू जो कल तक हंसते खिल खिलाते दुनियादारी से बाबस्ता थे अचानक लिहाफ़ ओढ़े के ओढ़े बारह बजे तक घर में क़ैद रहे .  रिसाले वाले गुमाश्ता बाबू के नाम से प्रसिद्ध उन महाशय का नाम बद्री प्रसाद गुमाश्ता था. अखबार से उनका नाता उतना ही था जितना कि आपका हमारा तभी मुझे " रिसाले वाले "   उपनाम की तह में जाने की बड़ी ललक थी. अब्दुल मियां ने बताया कि दिन भर गुमाश्ता जी के हाथ में अखबार हुआ करते हैं . उनका पेट एक अखबार से नहीं भरता. अर्र न बाबा वो अखबार खाते नहीं पढ़ते है. देखो क़रीम के घर जो अखबार आता है उन्हीं ने लगवाया विश्वनाथ के घर भी और गुप्ता के घर भी.मुहल्ले में   द्वारे  द्वारे सुबह सकारे उनकी आमद तय थी. शायद ही गुमाश्तिन भाभी ने उनको कभी घर में चाय पिलाई हो ? अक्सर उनकी चाय इस उसके घर हुआ करती थी होती भी क्यों न पिता ने उनको बेचा जो था 1970 के इर्द-गिर्द गुमाश्ता जी की बिक्री दस हज़ार रुपयों में हुई थी तब वे तीसेक बरस के होंगे. और तब से आज़ तक वे घर जमाई के र

संगीता पुरी जी की कहानी मेरी जुबानी:अर्चना चावजी (पाडकास्ट)

चित्र
साभार: " स्वार्थ "ब्लाग से                आज इस व्‍हील चेयर पर बैठे हुए मुझे एक महीने हो गए थे। अपने पति से दूर बच्‍चों के सानिध्य में कोई असहाय इतना सुखी हो सकता है , यह मेरी कल्‍पना से परे था। बच्‍चों ने सुबह से रात्रि तक मेरी हर जरूरत पूरी की थी। मैं चाहती थी कि थोडी देर और सो जाऊं , ताकि बच्‍चे कुछ देर आराम कर सके , पर नींद क्‍या दुखी लोगों का साथ दे सकती है ? वह तो सुबह के चार बजते ही मुझे छोडकर चल देती। नींद के बाद बिछोने में पडे रहना मेरी आदत न थी और आहट न होने देने की कोशिश में धीरे धीरे गुसलखाने की ओर बढती , पर व्‍हील चेयर की थोडी भी आहट बच्‍चों के कान में पड ही जाती और वे मां की सेवा की खातिर तेजी से दौडे आते , और मुझे स्‍वयं उठ जाने के लिए फिर मीठी सी झिडकी मिलती। ( आगे= यहां ) संगीता पुरी जी की कहानी का वाचन करते हुए मैं अभिभूत हूं.

मेरी प्रतिमा की स्थापना

चित्र
बात पिछले जन्म की है. मैं नगर पालिका में मेहतर-मुकद्दम था.पांच वार्ड मेरे नियंत्रण में साफ़ सुथरे हुआ करते थे. लोगों से मधुर सम्बंध यानी जब वे गरियाते तो हओ भियाजी कह के उनका आदर करता. सदाचारी होने की वज़ह से लोग भी कल्लू मेहतर का यानी मेरा मान करने लगे.इसका एक और कारण ये था कि मैने सरकारी खज़ाना लूटने वाले एक अपराधी से पैसा बरामद कराया पूरा धन सरकार के अफ़सरों को वापस कराया . इधर परिवार में मैं और दुखिया बाई  ही थे. मेरी  पहली पत्नी दुखिया बाई से हमको कोई संतान न थी सो दूसरी ब्याहने की ज़िद करती थी दुखिया. उसके  आगे अपने राम की एक न चली. सो दुखिया  की एक रिश्तेदारिन को घर बिठाया. यानि दो से तीन तीन से चार होने में बस नौ माह लगे. दुखिया बाई का दु:ख मानों कोसों दूर हो गया. नवजात शिशु को स्नेह की दोहरी छांह मिली. घर में खुशहाली जीवंत खेतों की मानिंद मुस्कुरा रही थी. ग़रीब का सुख फ़ूस के  तापने से इतर क्या हो सकता है. भारतीय गंदगी को साफ़ करते कराते टी.बी. का शिकार हो गये हम. और अचानक गांधी जयंती को हमारी मौत हो गई.  ब्राह्मणों-बनियों-ठाकुरों-लोधियों  की चाकरी करते कराते पचास की उमर में

मेरा संसार :ब्लॉग कहानी

चित्र
आचार्य रजनीश (वेब दुनिया से साभार ) सर , और सर के चम्मच जो सर के खाने के सहायक उपकरण होते हैं को मेरा हार्दिक सलाम मैं ….. आपका दास जो आपको नहीं डालता घास , इसलिए क्योंकि आप कोई गधे थोड़े हैं॥ आप आप हैं मैं आपका दास इतना दु:साहस कैसे करूँ हज़ूर । आप और आपका ब्रह्म आप जानिए मेरा तो एक ही सीधा सीधा एक ही काम है.आपकी पोल खोलना . आपकी मक्कारियों की पाठशाला में आपको ये सिखाया होगा कि किस तरह लोगों को मूर्ख बनाया जाता है..किन्तु मेरी पाठशाला में आप जैसों को दिगंबर करने का पाठ बडे सलीके से पढाया गया मैंनें भी उस पाठ को तमीज से ही पढा है.तरकश का तीर कलम का शब्द सटीक हों तो सीने में ही उतरते हैं सीधे ॥ तो सर आप अपने स्पून सम्हाल के रखिये शायद ये आपके बुरे वक़्त में काम आ जाएँ । परंतु ऐसा कतई नहीं . होगा सर आप अपने सर से मुगालता उतार दीजिए । कि कोई चम्मच खाने के अलावा कभी और उपयोग में लाया

"माँ,मैं तेरी सोनचिरैया...!"

चित्र
जबलपुर की कवयत्री प्रभा पांडे"पुरनम" की कृति,माँ मैं तेरी सोनचिरैया का विमोचन,09।02.2008. को होम साइंस कालेज , जबलपुर में हुआ