"स्वागत के क्षण " |
अमेरिका के चवालीसवें राष्ट्रपति "बराक़-ओबामा" जो व्यक्तिगत रूप से भारत के हितैषी माने जाते है की भारत यात्रा आज़ से अगले शेष दो दिनों में क्या रंग दिखाएगी इस बात से का असर अगले तीन बरस के बाद से सामने आयेगा.कोई उनको अमेरिकी उद्योगों-उद्योगपतियों के वक़ील के रूप में देख रहें हैं तो कुछ लोग बराक़ सा’ब को भारत का खैर-ख्वाह मान रहें हैं.शायद इस बात को सहजता से स्वीकरने में मुझे हिचकिचाहट है. पर उनकी यात्रा पर लगातार अपडेट होतीं खबरों से एक बात ज़रूर स्पष्ट है कि भारत के प्रति अमेरिकी नज़रिये में कुछ बदलाव ज़रूर आया है.सच यही कि भारत ने कम से कम इतना एहसास तो करा ही दिया है कि अब वो एक आर्थिक महाशक्ति है.पहली बार लगा कि वे भारत को पाकिस्तान के बाजू वाले पलड़े में नहीं रख रर्हें हैं जैसी आशंका मेरे अलावा कई लोगों की थी . अमेरीक़ी राष्ट्रपति महोदय ने नेहरू जी के कथन का पुनरुल्लेख :-"'हम आज़ादी की मशाल को कभी बुझने नहीं देंगे, और कहा :- अमरीकी इस कथन पर विश्वास करते हैं !" सचाई भी यही है तभी तो ओबामा साहब यह भी जान चुकें हैं कि :-"भारत के बाज़ार में स्थान पाने के लिये दबाव की कूटनीति प्रभावशाली नहीं हो सकती" उनके भाषण से साफ़ तौर पर स्पष्ट हो चुका है कि वास्तव में अमेरीकी उत्पादों को भारतीय बाज़ार कितना ज़रूरी है. सो सुविधा -द्वार खोलना ज़रूरी भी है भारत के लिये भी यह ज़रूरी होगा कि अपने सुरक्षा-द्वारों की व्यवस्था सुनिश्चित कर ली जावे.
इसरो,डीआरडीओ,डीई को काली सूची से हटाने की मांग जायज़ ही थी जिसे स्वीकार लेना अमेरिका के लिए बेहद ज़रूरी है.भारत के इन सम्मानित संगठनों का नाम काली सूची में दर्ज़ किया जाना अमेरीका की सबसे बड़ी भूलों में से एक भूल थीं. अब अमेरीकी सेटेलाईटस को भारत से लांच किया जा सकेगा. हमारी-तकनीकियों का आदान-प्रदान सहज हो सकेगा इससे कुक हद तक साबित हो रहा है कि भारत के विकास को अमेरीका हलके तौर पर नहीं ले रहा है. वरन भारत की सह-अस्तित्व की अवधारणा को अमेरिका नकार नहीं रहा है..
उम्मीद है कि ओबामा साहब अपने पहले भाषण की पहले वाक़्य को न भूलेंगें "मैं यहाँ स्पष्ट संदेश देने के लिए आया हूँ - आतंकवाद के ख़िलाफ़ अमरीका और भारत एक जुट हैं. हम 26 नवंबर 2008 के स्मारकों पर जाएँगे और कुछ पीड़ित परिवारों से मुलाक़ात भी करेंगें."