"दुश्मनों के लिये आज़ दिल से दुआ करता हूं....!"
सोचता हूं कि अब लिखूं ज़्यादा और उससे से भी ज़्यादा सोचूं .....? सच कितना अच्छा लगता है जब किसी को धीरज से सुनता हूं. आत्मबल बढ़ता है. और जब किसी को पढ़्ता हूं तो लगता है खुद को गढ़ता हूं. एक पकवान के पकने की महक सा लगता है तब ....और जब किसी के चिंतन से रास्ता सूझता है...तब उगता है साहस का ...दृढ़ता का सूरज मन के कोने में से और फ़िर यकायक छा जाता है प्रकाश मन के भीतर वाले गहन तिमिर युक्त बयाबान में.... ? ऐसा एहसास किया है आपने कभी ..! किया तो ज़रूर होगा जैसा मैं सोच रहा हूं उससे भी उम्दा आप सोचते हो है न........? यानी अच्छे से भी अच्छा ही होना चाहिये सदा. अच्छे से भी अच्छा क्या हो यह चिंतन ज़रूरी है. वे पांव वक़्त के नमाज़ी है, ये त्रिसंध्या के लिये प्रतिबद्ध हैं, वो कठोर तपस्वी हैं इन धर्माचरणों का क्या अर्थ निकलता है तब जब हम केवल स्वयम के बारे में सोचते हैं. उसने पूरा दिन दिलों को छलनी करने में गुज़ारा... और तीस दिनी रोज़ेदारी की भी तो किस तरह और क्यों अल्लाह कुबूल करेंगें सदा षड़यंत्र करने वाला मेरे उस मित्र को अगले रमज़ान तक पाक़ीज़गी से सराबोर कर देना या रब .ताकि उसके रोज़े अगली रमज़ान कुब