क्रमांक
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नाम
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अवधि
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1
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श्री रविशंकर शुक्ल
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01.11.1956 to 31.12.1956
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2
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श्री भगवन्त राव मण्डलोई
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01.01.1957 to 30.01.1957
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3
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श्री कैलाश नाथ काटजु
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31.01.1957 to 14.04.1957
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4
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श्री कैलाश नाथ काटजु
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15.04.1957 to 11.03.1962
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5
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श्री भगवन्त राव मण्डलोई
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12.03.1962 to 29.09.1963
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6
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श्री द्वारका प्रसाद मिश्रा
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30.09.1963 to 08.03.1967
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7
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श्री द्वारका प्रसाद मिश्रा
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09.03.1967 to 29.07.1967
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8
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श्री गोविन्द नारायण सिंह
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30.07.1967 to 12.03.1969
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9
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श्री राजा नरेशचन्द्र सिंह
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13.03.1969 to 25.03.1969
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10
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श्री श्यामाचरण शुक्ल
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26.03.1969 to 28.01.1972
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11
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श्री प्रकाश चन्द्र सेठी
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29.01.1972 to 22.03.1972
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12
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श्री प्रकाश चन्द्र सेठी
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23.03.1972 to 22.12.1975
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13
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श्री श्यामाचरण शुक्ल
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23.12.1975 to 29.04.1977
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राष्ट्रपति शासन
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30.04.1977 to 25.06.1977
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14
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श्री कैलाश चन्द्र जोशी
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26.06.1977 to 17.01.1978
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15
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श्री विरेन्द्र कुमार सखलेचा
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18.01.1978 to 19.01.1980
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16
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श्री सुन्दरलाल पटवा
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20.01.1980 to 17.02.1980
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राष्ट्रपति शासन
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18.02.1980 to 08.06.1980
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17
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श्री अर्जुन सिंह
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09.06.1980 to 10.03.1985
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18
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श्री अर्जुन सिंह
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11.03.1985 to 12.03.1985
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19
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श्री मोती लाल वोरा
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13.03.1985 to 13.02.1988
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20
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श्री अर्जुन सिंह
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14.02.1988 to 24.01.1989
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21
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श्री मोती लाल वोरा
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25.01.1989 to 08.12.1989
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22
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श्री श्यामाचरण शुक्ल
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09.12.1989 to 04.03.1990
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23
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श्री सुन्दरलाल पटवा
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05.03.1990 to 15.12.1992
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राष्ट्रपति शासन
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16.12.1992 to 06.12.1993
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24
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श्री दिग्विजय सिंह
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07.12.1993 to 01.12.1998
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25
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श्री दिग्विजय सिंह
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01.12.1998 to 08.12.2003
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26
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सुश्री उमा भारती
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08.12.2003 to 23.08.2004
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27
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श्री बाबूलाल गौर
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23.08.2004 to 29.11.2005
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28
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श्री शिवराज सिंह चौहान
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29.11.2005 to 12.12.2008
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29
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श्री शिवराज सिंह चौहान
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12.12.2008 to continuing
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तीसवां जननायक जो भी होगा बेशक उसके सामने बेहद जटिल
सवाल होगें जिनको हल तो करना ही होगा उन सवालों को जो कठिन और जटिल होने के साथ साथ ऐसे
प्रतीत हो रहें हैं जिनका हल निकालते वक़्त कुछ कठोर निर्णय (जो अपनों को कष्ट प्रद
लग सकते हैं) लेने ही होंगें. क्योंकि विकास के लिये विपरीत बल की आवश्यकता कदापि नहीं
होती. एक एक पैसे का सही-सही और परिणाम मूलक स्तेमाल ज़रूरी है . आखिर स्वाधीनता के
मायने भी तो यहीं हैं.. जनतंत्र में जनधन के सदुपयोग को सर्वोच्च प्राथमिकता देनी
आवश्यक है. उम्मीद है तीसवें जननायक के मानस में यह बिंदू समाहित ही होगा.
कहीं लोकप्रियता सादगी ओर सहजता को खत्म न कर दे जननायक को सादगी सहजता बनानी होगी . अगर यह नहीं होता तो है तो अंतराल बढ़ता जाता है ... फ़िर जननायक और जन के बीच एक दूरी कायम हो ही जाती है. यहां ये बिंदू समझना होगा कि यश अक्सर मानस को भ्रमित कर देता है .. “अपना यश” सरिता में प्रवाह के योग्य ही होता है. अपने मानस को एक ऐसा बाक्स मानना चाहिये जिसमें केवल लोक-सेवा की अवधारणा को रखा जा सके . शेष मुद्दों जैसे आत्मकेंद्रित सोच, जय,यश, लोकसेवा का गर्व - के लिये स्थान रखना युक्तिसंगत नहीं .इन को मानस में रख लेने से "लोकसेवा" की अवधारणा के लिये स्थान नहीं बचता. कई राजघराने और राजा इसी के शिकार हुए हैं. इन तथ्य को सदैव ध्यान में रखना ज़रूरी है.
कहीं लोकप्रियता सादगी ओर सहजता को खत्म न कर दे जननायक को सादगी सहजता बनानी होगी . अगर यह नहीं होता तो है तो अंतराल बढ़ता जाता है ... फ़िर जननायक और जन के बीच एक दूरी कायम हो ही जाती है. यहां ये बिंदू समझना होगा कि यश अक्सर मानस को भ्रमित कर देता है .. “अपना यश” सरिता में प्रवाह के योग्य ही होता है. अपने मानस को एक ऐसा बाक्स मानना चाहिये जिसमें केवल लोक-सेवा की अवधारणा को रखा जा सके . शेष मुद्दों जैसे आत्मकेंद्रित सोच, जय,यश, लोकसेवा का गर्व - के लिये स्थान रखना युक्तिसंगत नहीं .इन को मानस में रख लेने से "लोकसेवा" की अवधारणा के लिये स्थान नहीं बचता. कई राजघराने और राजा इसी के शिकार हुए हैं. इन तथ्य को सदैव ध्यान में रखना ज़रूरी है.
वीतरागी सम्राठ या कहिये जननायक को "ऊर्ध्वरैता" यानी एक नैष्ठिक ब्रह्मचारी की काया धारण कर लेने से जननायक युगों तक भुलाए नहीं भूलने वाला व्यक्ति बन जाता है. पर आज़ के दौर में ये कल्पना अतिरंजित सी लगती है. क्या ये सम्भव है. बकौल शेक्सपियर :-"असम्भव शब्द मूर्खों के शब्द कोष का शब्द है ... !" हो क्यों नहीं सकता ऐसा मित्र जब अजीवातजीवोत्पत्ति सम्भव है.. दिन रात सम्भव हैं.. सौर मंडल सम्भव है तो मानवीय आचरणों में "विशुद्ध लोकसेवा का भाव" असम्भव क्यों ..?
अक्सर सियासत मानवीयता के पथ से विचलन कराते पथों का दर्शन कराती है. किंतु देश के इतिवृत में उन व्यक्तियों का उल्लेख आता है जो लोक-सेवा को सर्वोपरि मानते थे..
अक्सर सियासत मानवीयता के पथ से विचलन कराते पथों का दर्शन कराती है. किंतु देश के इतिवृत में उन व्यक्तियों का उल्लेख आता है जो लोक-सेवा को सर्वोपरि मानते थे..
भारतीय जनतंत्र में जनादेश सर्वोपरि है. तो उसके भी ऊपर है जनादेश का सम्मान . किसी भी जनादेश प्राप्त व्यक्ति की सफ़लता एवम उसकी सर्वमान्यता उसकी अपनी क्रिएटिविटी पर आधारित होती है. कभी कभी एक नारा देश को दिशा दे देता है तो कभी कई नारों से शोरगुल का आभास होता है. अतएव ज़रूरी है रचनात्मक सोच जो विकास के वास्त्विक लक्ष्य को साध सके . तभी तो राजा से अपेक्षा की जाती है कि -"Do not be king like king be king like creator "
अंत में संकेत स्पष्ट है लोक-सेवा अतंस को छू लेने वाली मानवीय
प्रक्रिया है.. न कि यश के नगाड़े बजाने का अवसर देने वाली प्रक्रिया....
स्वस्ति स्वस्ति स्वस्ति