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29.10.22

मेरा मालिक मुझसे कभी नाखुश नहीं होता...!


   सिर्फ पूजा इबादत प्रार्थना से खुश नहीं होता
मेरा मालिक मुझसे कभी नाखुश  नहीं होता।
              *गिरीश बिल्लोरे मुकुल*
   तुम ईश्वर वादी हो मैं भी उसकी सत्ता को अस्वीकृत नहीं करता । कोई भी व्यक्ति उसकी सत्ता के बाहर नहीं। मुझसे यह मत पूछना कि-" नास्तिक भी...?"
   मुझसे मत पूछो इन लिखे हुए अक्षरों पर विश्वास मत करो। इसका अनुभव प्राप्त करो "अप्प दीपो भव..!"
  चलो जिद्द  कर रहे हो तो बता देता हूं हां सर्वोच्च सत्ता ईश्वर की है । उसे अस्वीकार्य करने वाला नास्तिक अपनी ओर से दावा कर रहा है न ईश्वर ने कहा।
  ईश्वर न होने का दावा तो आप भी कर सकते हो? मैं भी हम सब कर सकते हैं।
नास्तिक इसी आधार पर पूछते हैं- ईश्वर तत्व के अस्तित्व ही होने के कोई प्रमाण है क्या?

   हां मेरे पास प्रमाण है ईश्वर के। हो सकता है कि तुम उन्हें अपने तर्कों से भरे तरकश से तीर निकाल निकाल कर खंडित करने के प्रयास करो। मुझे इसका भय नहीं है।
किसी भी सृजन का एक सृजक होता है जिसे करता कहते हैं। जरूरी नहीं है कि वह व्यक्ति हो वह परिस्थिति भी हो सकता है? वह पावर भी हो सकता है कुछ भी हो सकता है। मैं तो उससे पावर के रूप में पहचानने की कोशिश करता हूं आप भी यही करते होंगे। सभी जानते हैं कि ईश्वर शक्तिमान सर्व शक्तिमान अनुभूति है। उसका आकार वजन विस्तार अर्थात उसका क्षेत्रफल कोई नहीं जान सकता परंतु भारतीय जीवन दर्शन और अध्यात्मिक दर्शन ईश्वर तत्व विस्तारित पाता है उसे कण-कण में व्याप्त होने के सिद्धांत को मानता है। आप किसी धर्म  संप्रदाय पंच कुछ भी कह सकते हैं कोई फर्क नहीं पड़ता। परंतु इतना तय है कि तत्व ही पूर्ण है। इसे समझने के लिए हम अपनी पूजन प्रक्रिया को देखें विशेष तौर पर पूजन प्रक्रिया के अंतर को देखें जब हम अपनी पूजन प्रक्रिया पूर्ण करते समय यही दोहराते हैं  न -
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते ।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥
श्लोक का अर्थ क्या है ?
यही न कि अब पूजा पूरी हो गई है अब हमें अन्य कार्य करनी चाहिए ? यही सोच रहे हो न तो गलत हो ?
  इसका अर्थ यह है कि तुम आश्वस्त हो जाओ
सब कुछ उस पूर्ण पर छोड़ दो जो संपूर्ण विश्व का संचालन करता है। जीवन की दैहिक भौतिक जरूरतों को पूरा करो। ईश्वर ठीक ऐसे ही मेरा विश्वास है। ईश्वर की आराधना को लेकर पूजन प्रणाली या पूजन प्रणालियों का आप और हम अनुसरण करते हैं इस विषय पर फिर कभी बात करेंगे अभी तो हम यह जान लें कि ईश्वर तत्व संपूर्ण विश्व में ही नहीं बल्कि अखिल ब्रह्मांड में सर्वोच्च सत्ता स्थापित करता है
..   पूर्ण और पूर्ण की पूर्णता ब्रह्म और ब्रह्म तत्व का एहसास है ईश्वर। श्लोक का अर्थ भी यही है शाब्दिक अर्थों में तो यही हुआ ना कि पूर्ण में से पूर्ण को निकाल दो तब भी पूर्ण बचेगा...!
   इस इस लोक का एक अन्य महत्वपूर्ण अर्थ भी है,,,,जो पूर्ण बचता है वह बचता नहीं है...! वास्तव में वह  पूर्ण ही है। ध्यान से समझो मैंने पूर्ण की बात की है जो पूर्ण है वही तो ईश्वर है और तुम्हें केवल पूर्णता का अनुभव बस करना है । तुम्हारे नास्तिक होने न होने से मेरा कोई सरोकार नहीं है। मेरा सरोकार तो केवल इस बात से है कि-" बस इतना जान लो कि आधा अधूरा अर्थात अपूर्ण कुछ भी नहीं था न है और न रहेगा। वैज्ञानिक अनुसंधान और  ने सिद्ध कर दिया है कि-" चंद्रमा सदैव पूर्ण रहता है लेकिन यह बेहद परीक्षण के बाद किया। पर पूर्ण विकसित ऋषियों के मस्तिष्क विज्ञान की खोज के पहले ही यह सिद्ध कर दिया था कि केवल प्रकाश का खेल है वरना चंद्रमा पूरे महीने भर प्रकाश दे सकता था। बहुत कम उम्र में एक कविता लिखी थी मुझे उस वक्त इस कविता का अर्थ भी नहीं मालूम था , उस कविता की एक पंक्ति है -
दर्पण के लघुत्तम कण
अर्पण के उत्तम क्षण
बिखर टूट जाते हैं।
हर कण में क्षण-स्मृति..
हर क्षण की कण - स्मृति..!
अक्सर तनहाई में
बाक़ी रह जाती है...
बाक़ी रह जाती है.. !
     जो ना तुम्हें दिखाना मुझे दिखा और लाखों लोगों की जिंदगी खतरे में हो गई। जी हां मैं कोविड-19 के विषाणु की बात कर रहा हूं। चलो प्लेग की बात कर लेते हैं आपने देखा? नहीं देखा पर वह घातक था। बहुतेरे लोगों के प्राण हर लिए थे उसने। हां भई ! मैं कोविड-19 के विषाणु या 100 साल पहले फैले प्लेग के बारे में ही कह रहा हूं। चलो अनदेखा वायरस पोलियो जिस का शिकार मैं भी उसे भी तो किसी ने नहीं देखा क्यों नहीं दिखता वह अस्तित्व नहीं है ऐसा आप कैसे कह सकते हैं ?
   दुनिया में न कभी कुछ रुकेगा न ही कोई उसे रोक सकता है। बस कुछ बायोलॉजिकल   फिजिकल, कुछ मेंटल, सोशल पॉलीटिकल इकोनॉमिकल बदलाव ही होते हैं, ऐसे  हर एक बदलाव का अगले नवनिर्माण से सीधा संबंध होता है । लोग सोचते हैं कि-' हमारा स्वप्न टूट गया हम काम पूरा नहीं कर पाए।'
   कुछ लोग किसी को पराजित होता दिल उसे ही दोष देने लगते हैं। यह सब गलत बात है। सत्य तो यह है कि जिसे जो करना है जिसमें जिसे जो सफलता मिल गई है उसका मूल्यांकन करना किसी के बस की बात नहीं है। चलिए सीधे विषय पर लौटते हैं... जितना अब तक पढ़ लिया है उसे छोड़ दो भूल जाओ विराट को जानने के लिए आत्मज्ञान की जरूरत है। आपको याद है न.... बुल्ले शाह गली कूचे में गाता फिरता था..." बुल्ला की जाणा मैं कौन ?"
   विज्ञान अंतरिक्ष अंतरिक्ष खोजता है विज्ञान समंदर खोजता है पर विज्ञान एक बूंद पानी के रहस्य को नहीं जानता। जबकि योगी ध्यान मग्न होकर पृथ्वी से आकाश के पिंडो की दूरी का अनुमान लगा चुके थे। तुम कहते हो सूर्य सर्वशक्तिमान है, समझते भी होना? परंतु ऐसे अनंत सूर्य है जिनके अनंत ग्रह है उनके अनंत उपग्रह है विज्ञान कह रहा है मैं नहीं। तो ब्रह्म सकता है न इस वक्त तो है न बहुत दूर भटकने की जरूरत नहीं है। जान लो कि ब्रह्म निरंकार है ईश्वर तत्व यानी ब्रह्म महाशक्ति है। ब्रह्म का चिंतन करो बाहर नहीं मिलेगा ध्यान मग्न होकर निर्विकार देखोगे तो विश्वास के साथ कह दोगे-
सिर्फ पूजा इबादत प्रार्थना से खुश नहीं होता
मेरा मालिक मुझसे कभी नाखुश  नहीं होता।
     
     

3.9.22

चिंतन : अपने मन से झूठे मत बनो स्वामी शुद्धानंदनाथ

चिंतन : अपने मन से झूठे मत बनो
           स्वामी शुद्धानंदनाथ
*पूज्य गुरुदेव ब्रह्मलीन स्वामी शुद्धानंद नाथ का जीवन सूत्र 27 सितम्बर 1960 श्रीधाम आश्रम सतना*
अपने मन से झूठे मत बनो। कितना भी बड़ा दुष्कर्म मन से या तन से हुआ हो उसे मंजूर करो , उसे दूसरा रंग मत दो, उसका दोष दूसरों पर ना करो । जो भी होता है वह अपनी ही भूल के कारण होता है। इसलिए अपने मन से और मन में भूल को मत छुपाओ, भूल की छानबीन करो। अपनी मम्मत्व भावना अपने को  निष्पक्ष विचार करने से रोकती है । इसलिए हम तो भाव को त्याग करके विचार करने का प्रयत्न करो।
   जीवन के सरल से सरल पद पर रहना ही अध्यात्म कहा जाता है। जीवन में प्राप्त और अब प्राप्त वस्तुओं की प्रीति और वियोग में ही चित्त का विकास होता है। विकास की प्रक्रिया ही अध्यात्मिक साधना का अंतरंग है। इस प्रक्रिया से सिद्धि हेतु वातावरण का निर्माण अनुकूलता की रचना तथा प्रतिकूलता के साथ युद्ध करने का सामर्थ्य उत्पन्न करना होता है।
   इस सामर्थ्य के के लिए बहुत सी बहिरंग साधनाएं करनी पड़ती हैं । धारणा के योग्य मनस्वी गुरु जन इस प्रकार का आदेश देते हैं। आज से आपके जीवन में एक नया जागरण होने जा रहा है ।
#शुद्धानंद

500 गुरुकुल खुलने के बाद क्या अंग्रेजी स्कूलों की बादशाहट खत्म हो जाएगी?

1.9.22

चिंतन : कबिरा मार मार समझाए

 
  उपासना आराधना चिंतन अध्ययन ज्ञान साधना तपस्या समाधि वैराग्य, अध्यात्मिक दर्शन के बीए खोजे गए शब्द नहीं है। इनका संबंध सनातन व्यवस्था में जीवन दर्शन के साथ भी स्थापित किया है। पर्यूषण पर्व एवं गणेश उत्सव के अवसर पर कुछ बिंदु विचार योग्य हैं।
   शरीर के लिए आवश्यक पुरुषार्थ है इस कारण सभी को कहा जाता है - कर्म करो। कर्म अपनी आंतरिक शुचिता के साथ करो। किसी का दिल मत दुखाओ।  हम किसी को मन वचन और कर्म  कष्ट पहुंचाते हैं, और आध्यात्मिक होने का अभी नहीं करते हैं ईश्वर ऐसी स्थिति में हमें स्वीकार नहीं करता।
   हिंसक व्यक्ति को कभी ईश्वर ने स्वीकारा ही नहीं भले ही वह स्वयं अवतार क्यों ना रहा हो?
  इसकी हजारों कथाएं उपलब्ध हैं हर धर्म के ग्रंथों में।
   मुझे घृणित कार्य इसलिए नहीं करना चाहिए कि ईश्वर मुझे दंडित करेगा यह कांसेप्ट ही गलत है। ईश्वर से डरो मत उसके शरणागत हो जाओ और पवित्र भाव से प्राणी मात्र में ईश्वर के तत्व को पहचानो यही सभी ग्रंथों में लिखा है।
कठोर तप साधना ध्यान तपस्या योगी करते हैं। यह क्रिया आत्मबोध का अनुसंधान Research है , आत्मबोध होते ही हम ईश्वर के तत्व को पहचान सकते हैं।
हर एक पौराणिक कथा कहानी का उद्देश्य होता है। यह केवल हमें अहिंसा अपरिग्रह शुचिता उक्त कार्यों की प्रेरणा के लिए कहीं गई कथाएं हैं। कुछ कथाएं काल्पनिक है कुछ वास्तविक हैं यही कथाएं गृहस्थ जीवन को सुख में बनाती हैं। सुखी जीवन ब्रह्म के आनंद का मार्ग है।
मुझे अच्छी तरह से याद है मैं अपने मित्र के साथ रात में फुहारे पर चटपटा खाने जाया करता था। अक्सर वहां एक भिक्षुक अपेक्षा भरी आंखों से मुझे और मेरे मित्र को देखता था। अक्सर ऐसा होता था कि हम 3 फलाहारी चाट इत्यादि आर्डर करने लगे थे। ना हम उसका नाम जानते ना वह हमारा नाम जानता पर इतना अवश्य है कि उसके अंदर के ब्रह्म का सम्मान करते हुए हम अपने मन में बहुत आनंद का अनुभव करते थे। सुख खरीदा जाता है परंतु आनंद बरसता है आनंद त्याग की कीमत मांगता है आनंद समता का भाव मांगता है आनंद आध्यात्मिक तथ्य है आनंद ईश्वर में समा जाने का विषय है। जो इंद्रियों को जीत लेता है उसे परमानंद की प्राप्ति सहित हो जाती है।
मित्रों मैं उपदेशक नहीं । ना हीं ऐसी कोई योग्यता मुझे प्राप्त हुई है। हम सब ऐसे ही हैं। परंतु त्याग और समता का भाव यह सब सिखा देता है।
एक थे संत कबीर, उनका जन्म ही इसलिए हुआ था कि सत्य का जीवन विश्लेषण कर सकें। खुल के बोलते थे काहे का तुर्क काहे का हिंदू और काहे का मुस्लिम उनके निशाने पर सब के सब थे। कवि जीवंत और जीवित है। कबीर ना किसी की छाप छुड़वाते ना किसी का तिलक। कबीर तो बस ऐसा ताना-बाना बुन जीते थे कि सर से पांव तक मनुष्य पवित्र हो जाए जाए इसके लिए कठोर वचन भी कह देते। अपने दौर का सबसे अकिंचन और तेज़ तर्रार कवि एक अकेला जुलाहा सबसे लड़ता रहा सबको समझाता रहा कबीर ने ना कोई आश्रम खड़ा किया ना कोई दौलत बनाई अक्खड़ बिंदास बेखौफ कबीर तो कबीर ठहरे उन्हें किसी लाग लपेट की जरूरत नहीं। तरीका कुछ भी हो कबीर ने मानवता के श्रेष्ठतम प्रतिमान स्थापित कर दिए। एक थे हमारे मिर्जा गालिब साहब कहते थे 
खुदा के वास्ते काबे से पर्दा न हटा
कहीं ऐसा ना हो वहां भी काफिर सनम निकले . !
   इस तरह इन विचारों और चिंतकों ने समतामूलक समाज की स्थापना में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। परंतु इस देश का दुर्भाग्य जिसमें इस्लाम आतंक के सहारे बढ़ने का प्रयास कर रहा है। जबकि कोई भी संप्रदाय दिलों में प्रेम श्रद्धा विश्वास और एकात्मता के बिना घर नहीं बना पाता। तुर्रा यह कि सर कलम कर देंगे? दुनिया  ऐसी नहीं बनती भारत में तो इन सब का कोई स्थान नहीं है। यह अपराध है इन अपराधियों को रोकना होगा। यह गलती है इसे स्वीकार ना होगा।
    हमारे गुरुदेव ने कहा था-"जीवन की छोटी से छोटी गलती अथवा भूल को  स्वीकार कर लेना चाहिए । क्योंकि व्यवहारिक जीवन में यह सब संभव है यह होना सुनिश्चित है शरीर गलतियां करता है आत्मा का कार्य है गलतियों को पहचानना और फिर पश्चाताप और प्रायश्चित करना।
    परंतु इसके पूर्व क्षमा प्रार्थना सर्वोपरि है। हर गलत कार्य के फल स्वरुप नकारात्मक ऊर्जा पैदा होती है। इस नकारात्मक ऊर्जा का सम्मान करना हमारा खुद का दायित्व है। मेरे इस अभिकथन से किसी को ठेस पहुंचती है तो मैं पूरी विनम्रता और शुचिता के साथ क्षमा प्रार्थी।
  *ॐ श्री राम कृष्ण हरि*

25.8.22

चिंतन : सुख और आनंद


   आनंद यूं ही नहीं मिलता, आनंद खरीदा नहीं जा सकता , आनंद के बाज़ार भी नहीं लगते, आनंद की दुकानें भी नहीं है, आनंद के विज्ञापन नहीं कहीं देखे हैं कभी आपने?
   आनंद अनुभूति का विषय है। आनंद कठोर साधना से प्राप्त होता है। आनंद मस्तिष्क का विषय है। आनंद प्राप्ति के लिए हिंसा नहीं होती । आनंद चैतन्य की पूर्णिमा है। भिक्षु आनंदित हो सकता है, जितनी उम्मीदैं आकांक्षाएं और अपेक्षाएं कम होंगी अथवा शून्य होंगी, उससे कहीं अधिक आनंद का अनुभव होगा। लोग समझते हैं कि आनंद सुख का समानार्थी शब्द है। ऐसा नहीं है ऐसा कभी ना था मैं तो कहता हूं ऐसा हो ही नहीं सकता।
सुख अपेक्षाओं का पूरा होते ही प्राप्त हो जाता है। सुख बाजार में खरीदा जा सकता है सुख की खुलेआम बिक्री होती है, सुख के बाजार की हैं, सुख भौतिकवाद का चरम हो सकता है। 
      चाहत वर्चस्व सत्ता सुख के महत्वपूर्ण संसाधन है। सुख का अतिरेक प्रमाद और अहंकार का जन्मदाता है। जबकि आनंद का अतिरेक शांति एवं ब्रह्म के साथ साक्षात्कार का अवसर देने वाला विषय है।
  मैं जब भी अपने कंफर्ट जोन से बाहर आता हूं तब मुझे सुख में कमी महसूस होती है। यह कमी मुझे दुखी कर देती है। दुख आरोप-प्रत्यारोप शिकायत का आधार बन जाता है। ऐसी स्थिति में आनंद के रास्ते तक बंद हो जाते हैं।
       मीरा तो महारानी थी महल में रहती थी..और उसने अपना कंफर्ट जोन छोड़ दिया। सुख की सीमा से बाहर निकल आई । जब मीरा कंफर्ट जोन से बाहर निकली और कहने लगी *पायोजी मैंने राम रतन धन पायो।*
   हमने अत्यधिक सुखी लोगों को बिलखते देखा है , और अकिंचन को तल्लीनता से ब्रह्म के नजदीक जाते देखा है। कुल मिला के सुख फिजिकल डिजायर  का परिणाम है जबकि आनंद आत्मिक एवं आध्यात्मिक अनुभूतियों का प्रामाणिक परिणाम है।
     सुख के सापेक्ष आनंद योग साधना चिंतन धारणा ध्यान और समाधि का अंतिम परिणाम है।
हाथ में धन मस्तिष्क में सुख का अनुभव अक्सर हम महसूस करते हैं। जैसे ही धन कम होता है हमारा मन व्यग्रता से लबालब हो जाता है, और हम दुखी हो जाते हैं। 
        हाथ से सत्ता जाते ही आपने लोगों को उसके कैंचुए की तरह बिलबिलाते देखा होगा ? जो नमक की जलन से शरीर स्वयं को बचाने में असफल हो जाता है। वर्चस्व  की भी यही स्थिति है। ध्यान से देखो जो मनुष्य अकिंचन होकर न्यूनतम जरूरतों की पूर्ति कर ब्रह्म चिंतन में लग जाता है, उसके चेहरे की तेजस्विता देखिए हो सकता है कि घर के बाहर "माम भिक्षाम देही...!" की आवाज आपको सुनाई दे रही है न....!
       देखिए उसके चेहरे पर तृप्ति के भाव को यदि वह योगी है तो उसके चेहरे पर आपको महात्मा बुद्ध नजर आएंगे। 
 ॐ राम कृष्ण हरि:

4.2.21

अगर कुंठित है तो क्या आप आध्यात्मिक हैं? कदापि नहीं,


अगर कुंठित है तो क्या आप आध्यात्मिक हैं? कदापि नहीं, धर्म अध्यात्म दर्शन सब कुछ वस्तु वाद को प्रवर्तित नहीं करता। ना ही वस्तु वाद से सनातन का कोई लेना देना है। सनातन इस बात की अनुमति देता है कि- हम आप वसुधैव कुटुंबकम की विराट कांसेप्ट को अंतर्निहित करें। किसी का भी गलत स्केच बनाना यानी उसको गलत तरीके से पोट्रेट करना मलिनता की निशानी है। 
कार्ल मार्क्स बहुत बड़े विद्वान थे। हम सब जानते हैं। सर्वहारा के लिए बहुत बड़ा चिंतन सामने लेकर आए। उनके सिद्धांतों से ठीक वैसे ही विरक्ति आ सकती थी जैसा कि गीता के  अध्याय को पढ़कर आती है । 
परंतु उनका चिंतन रियलिस्टिक साइंटिफिक मैटेरियल को लेकर आगे बढ़ता है। कार्ल मार्क्स कहते हैं कि दुनिया में साम्य की स्थापना हो। 
 सर्वहारा यानी मजदूर वर्ग सुखी हो। यहां तक सबको स्वीकार्य है कार्ल मार्क्स लेकिन उनके बाद अनुयाईयों ने खूनी संघर्ष शुरू कर दिया और स्टालिन तक आते-आते लाल झंडे का रंग गहराता चला गया। *जब सत्ता का स्वाद जीभ पर लग जाता है तब वसुधैव कुटुंबकम अर्थात हम सब की परिकल्पना उसी घातक स्वरूप में बदल जाती है जहां से कार्ल मार्क्स बचा कर ले जाना चाहते थे*
 यह जर्मन की व्यवस्था थी मोनार्की ने जर्मन को कार्ल मार्क्स जैसा महायोगी दिया किंतु वे भौतिकवाद के प्रवर्तक बन गए जबकि वे सब को सुखी देखना चाहते थे। इसके विपरीत सनातन परंपरा में राम ने विश्व विजय प्राप्त की पूरे विश्व के लगभग पूर्व एशिया मध्य एशिया अफ्रीका यहां तक कि लंका से आगे तक राम का साम्राज्य विस्तारित हुआ। राम ने  विश्व में राम राज्य की स्थापना की। जिसके अवशेष जावा सुमात्रा मलय कंबोडिया कंपू चिया म्यानमार तक आज भी मिलते हैं। राम ने वैचारिक और बौद्धिक समृद्धि विश्व बनाने की सफल कोशिश की थी। उसके कुछ हजार साल बाद महायोगी कृष्ण आए थे हम सब जानते हैं। कृष्ण ने कौरवों को अपना विरोधी अंतिम सांस तक नहीं माना। कृष्ण तो बाल्यकाल से ही अन्याय के विरोध में खड़े थे। उनका अंतिम प्रस्ताव था केवल 5 गांव परंतु विद्वान मित्रों का मित्र बलशाली दुर्योधन इस पर भी तैयार ना था। अंततोगत्वा कृष्ण ने समझौता ना करते हुए जिसका जो अधिकार था उसको सौंप दिया। 
  संपूर्ण युद्ध केवल 18 दिन चला श्री कृष्ण ने बड़े परकोटे वाली द्वारका नगरी बना ली और आराम से शेष जीवन सामान्य बिताने लगे। 
 मैंने यहां 3 चरित्र उल्लेखित किया है कार्ल मार्क्स श्री राम और श्री कृष्ण कार्ल मार्क्स को छोड़कर राम और कृष्ण समाज के लिए कुंठित नजरिया ना रख कर वसुधैव कुटुंबकम की अलख जगाई।
 255 साल पूर्व कार्ल मार्क्स का सिद्धांत प्रकाश में आया। और अब तक विश्व को उसके अनुचर दुख दे रहे हैं। क्योंकि यथार्थ पदार्थ वादी चिंतन से ईश्वर तत्व को ना मानने वाले लोगों ने जिस बर्बरता पूर्ण ढंग से सोवियत संघ चाइना कंबोडिया लाओस जैसे  देशों में रक्तपात  किया है तथा उनको निशाना बनाया है। उस दौर का एहसास करते ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं।
अब आप सोच रहे होंगे कि यह आलेख क्यों लिखा गया..?

इसके पीछे 3 मकसद है-
*01. पूजा पाठ कर लेना अनुष्ठान कर लेना मात्र सनातन का ऐसा नहीं है बल्कि संपूर्ण आचार विचार में परिवर्तन करना उद्देश्य होना चाहिए।*
*02. जब तक हम पदार्थ वादी चिंतन को श्रेष्ठ मानते रहेंगे तब तक ना तो हम खुद का विकास कर सकते और ना ही सामाजिक संरचना को समझ सकते हैं। सामाजिक संरचना को समझने का अर्थ है सब के प्रति सहृदयता और असहमति का सम्मान। राम और कृष्ण का जीवन इसी दार्शनिक बिंदु पर एकात्मता का संदेश देता है। और निहित स्वार्थों के चलते व्यवस्था को क्षतिग्रस्त भी नहीं करता*
*03. जब जब भी हम सब का कांसेप्ट क्षतिग्रस्त हुआ है तब तब समाज में कुंठाएं जन्म लेती हैं। और ऐसी कुंठा किसी को अपमानित करने और उसे गलत ढंग से पोट्रेट करने की कोशिश में बदल जाती है।

28.7.14

काग दही के कारने वृथा जीवन गंवाय..!

मृत काग
काग दही के कारने वृथा जीवन गंवाय..!
            छोटी बिटिया श्रृद्धा ने स्कूल से लौटकर मुझसे पूछा.. पापा- “कागद ही के कारने वृथा जीवन गंवाय..!” का अर्थ विन्यास कीजिये.. मैने दार्शनिक भाव से कहा – बेटी यहां कागज के कारण जीवन व्यर्थ गंवाने की बात है.. शायद कागज रुपए के लिये प्रयोग किया गया है.. ?
बेटी ने फ़िर पूछा- “काग दही के कारने वृथा जीवन गंवाय..!” अब फ़िर से बोलिये.. इसका अर्थ क्या हुआ..
हतप्रभ सा मैं बोल पड़ा – किसी ऐसी घटना का विवरण है जिसमें कौआ दही के कारण जीवन खो देता है..
गदही
बेटी ने बताया कि आज़ स्कूल में एक कहानी सुना कर टीचर जी ने इस काव्य पंक्ति की व्याख्या की. कहानी कुछ यूं थी कि एक दही बेचने वाली के दही वाले घड़े में लालची कौआ गिर के मर गया. महिला निरक्षर थी पर कविता करना जानती थी सो उसने अपने मन की बात  कवित्त में कही- “काग दही के कारने वृथा जीवन गंवाय..!” इस पंक्ति को दुहराने लगी . फ़िर राह पर किसी पढ़े लिखे व्यक्ति से उक्त पंक्ति लिपिबद्ध कराई..
         पढ़े लिखे व्यक्ति ने कुछ यूं लिखा – “कागद ही के कारने वृथा जीवन गंवाय..!”
                        फ़िर राह में एक अन्य पढ़े लिखे व्यक्ति से भेंट हुई, जिससे उसने लिखवाया , दूसरे व्यक्ति ने यूं लिखा.. “का गदही के कारने वृथा जीवन गंवाय..? ”

 कागद 

समय की वास्तविकता यही है..विचार मौलिक नहीं रह पाते हैं. सब अपने अपने नज़रिये से विचार करते हैं.. जिसके पास मौलिक विचार हैं वो उनको विस्तार देने में असफ़ल है और जिनके पास मौलिक चिंतन ही नहीं है वे किसी ज़रिये से भी प्राप्त विचारों को अपने तरीके से गढ़ कर विस्तार दे रहे हैं. यही है   आज़ के दौर का यथार्थ. जिसे देखिये वो अपनी दुम्दुभी बज़ाने के चक्कर नें मन चाहे विचार परोस रहा है. बस शब्दों हेर फ़ेर वाला मामला है. अर्थ बदल दीजिये.. लोगों को ग़ुमराह कर अपना उल्लू सीधा कर लीजिये .. सब के सब  जाने किस जुगाड़ में हैं.   क्या हो गया है युग को  जिसे देखिये वो कुतर्कों की ठठरी पर अमौलिक चिंतन की बेजान देह ढोने को आमादा हैं. न तो समाज न ही तंत्र के स्तंभ.. सब के सब एक्सपोज़ भी हो रहे हैं कोई ज़रा कम तो कोई सुर्खियों में . मित्रो.. दुनिया अब "गदही" सी लगने लगी है.. 
ऐसी गदही में  मैं क्यों क्यों इनवाल्व होने चला मिसफ़िट हूं क्यों न कहूं.. - “का गदही के कारने वृथा जीवन गंवाय..? ” 

14.12.13

भैया बहुतई अच्छे हैं इसई लिये तो....


                भैया बहुतई अच्छे हैं इसई लिये तो....बस भैया की अच्छाईयों का डिंडोरा जो बरसों से पिट रहा था लोग बेसुध गोपियों के मानिंद मोहित से  भैया की बंसी के पीछे दीवाने से झूम उठते हैं . हमने पूछा भैया की अच्छाईयां गिनाओ तो मौन साध गए कुछ और कुछेक तो दूसरों की निंदा का पिटारा खोल बैठे. लोग बाग भी अजीब हैं हो सकता है कि मेरी सोच ही मिसफ़िट हो.. ? अरे भाई मिसफ़िट हो क्या है ही.... मिसफ़िट मेरी विचार शैली .
                  मुझमें वो दिव्य दृष्टि लगाई ही नहीं है भगवान ने जिससे में भैया को आईकान मान सकूं. ये मेरा मैन्यूफ़ेक्चरिंग डिफ़ेक्ट है. मुझे ऐसा एहसास हुआ . सो बस    शेव कराते वक्त ज्यों ही भैया की याद आई कि मेरे बाल भर जाड़े में कांटे से खड़े हो गये . कर्तनालय मंत्री को दाढ़ी साफ़ करने में कम मुश्किल पेश आई. 
            बाल कटवाते समय मुझे बुद्ध की तरह ज्ञान हुआ कि हिंदुस्तान में  के पास बात करने के विषय तय शुदा हैं.… सियासत, और निंदा  . जहां तक सियासत का सवाल है लोग खबरिया चैनल पर जारी बहसों को भी पीछे छोड़ देते हैं. और निंदा बाप रे बाप  जिसे वो जानते भी नहीं उसमें वे लाख बुराईयां गिना देते हैं. बाल कट ही रहे थे कि एक सज्जन ने भैया की तारीफ़ में सुर छेड़ा.. हमने पूछा भैया वाकई अच्छे हैं ... तुम साबित करो कि क्यों अच्छे हैं.. एकाध उदाहरण बता दो भैया..?
     
कभी खुद को देखिये
छवि श्री असीम दुबे 
 भाई को मानो सांप सूंघ गया वो भैया के समानांतर वाले व्यक्ति की निंदा करने लगे . हमने कहा भाई, ये भी सही है कि कल्लू का पूरा खानदान ही बुरा है.. पर बताओ "भैया में अच्छाईयां क्या हैं..?"
  वास्तव में नई संचार क्रांति का यही सबसे दुविधा जनक पहलू है कि लोग अक्सर अच्छी पाज़िटिव खबरों से दूर हैं.  आम आदमी (केज़री बाबू वाला नहीं वास्तविक आम आदमी ) अपने अलावा दूसरों को भ्रष्ट मानते हुए खुद को व्यवस्था से पीढ़ित मानता है किंतु जब उसकी बारी आती है तो अपना ऊल्लू सीधा करने कोई भी रास्ता अपनाने में हेटी नहीं खाता. 
     एक सज्जन पेशे से कलमकार हैं सच उनसे मेरा दूर तक कोई नता नहीं वे मुझे जानते भी नहीं एक बार संयोगवश मिले मुझे एक खास समूह से जुड़ा होने की खबर सुनते ही बोले -"भाई, आपके संस्थान में फ़लां आदमी (मेरा नाम लेकर ) बहुत बदमाश है." हम मौज में आ गये परिचय कराने वाला मित्र अपना पसीना पौंछ रहा था .और हमने मौज लेते हुए पूछा-"भाई कभी उस बदमाश से मिले हो ?"
महानुभाव बोले- ऐसे लोगों से मिलना खुद की बेईज्जती करवाना है भाई सा’ब.. !
हम - एकाध बार मिल लेते तो अच्छा होता . आप उसकी अकल ठिकाने लगा देते आप जैसे महानुभावों की वज़ह से उनमें शायद कोई सुधार आ जाता !
महानुभाव बोले-"अरे भाई क्या दुनिया भर को सुधारने का ठेका हम लिये हैं..?"
हम - "लेकिन अनजाने व्यक्ति की निंदा अथवा किसी की बुराई करने का हक किसे होता है..?
"
           महानुभाव के पास ज़वाब न था उनके चारों खाने चित्त होते ही हमने फ़ट से अपना सरकारी आई.कार्ड निकाला . भाई भौंचक अवाक से हमारा मुंह तकते रह गये. उनकी तरह "दर्ज़ा-ए-लाचारी" भगवान किसी को भी न दे हमने उनके जाते समय बस एक बात कही मित्र .. जितनी नकारात्मक्ता होती है उतना ही हम असलियत से भागते हैं.. सचाई को जानिये फ़िर राय कायम कीजिये. 
                        मित्रो, सच तो ये है कि दुनिया अब मौलिक चिंतन और  मौलिक सोच से दूर होती जा रही है.  जो आप पढ़ते या सुनते हैं वो सूचनाएं हैं जिसको सत्य मानना या न मानना आपकी बौद्धिक कसौटी की गुणवत्ता पर निर्भर करता है.. किसी के प्रति यकायक सकारात्मक  अथवा नकारात्मक राय बनाने से पेश्तर बुद्धि की का स्तेमाल करिये वरना अनर्गल वक्तव्य जारी मत कीजिये ... तब तय कीजिये कि भैया अच्छे हैं या बुरे .. अच्छे हों तो उनके प्रवक्ता बनना ज़रूरी नहीं बुरे हों तो उनको गरियाना मूर्ख होने का संकेत है.. कुल मिला कर शांत किंतु प्रखर सौम्यता आपके लिये आत्मोत्कर्ष का मार्ग खोलेगा आपके बच्चे विद्वान होंगे..और आप यशश्वी ... वरना वरना आप में और ज़ाहिल-गंवार में कोई फ़र्क रहेगा क्या..?    क्योंकि हर बुरे व्यक्ति में कुछ न कुछ अच्छाई और हर अच्छे व्यक्ति में कुछ न कुछ बुराई अवश्य होती है.. जिनके साथ हमको गुज़ारा करना होता है.. अस्तु .. शांति शांति          

2.1.12

"भारत हमसे क्या चाहता है ?"


साभार : NEWS FLASH

भारत से आपकी अपेक्षाएं आम तौर पर आप जब अपने बच्चे के कैरियर को लेकर आपस में चर्चा करतें हैं तब खुला करतीं हैं. किंतु भारत आपसे क्या चाहता है इस बारे में आप की हमारी सोच लगभग अपाहिज है. अपाहिज शब्द का स्तेमाल इस कारण किया क्यों कि हम-आप केवल व्यवस्था के खिलाफ़ खड़े दिखाई देते  हैं.. अपने देश की तुलना अमेरिका यू के , के साथ कर खुद को दीनहीन मानते हैं. उन देशों के आप्रवासियों के ज़रिये आयातित सूचनाओं की बैसाखियां लगाए हुए हम कितने अकिंचन नज़र आते हैं इसका एहसास कीजिये तो ज़रा आप अपने आप को इस सवाल से घिरे पाएंगे कि - "भारत हमसे क्या चाहता है ?"
आपके पास कोई ज़वाब न होगा कारण साफ़ है कि इस एंगल से हम सोच ही कहां रहें हैं.. अचानक आए सवाल के प्रहार से अचकचाना स्वाभाविक है . जी तो भारत आपसे क्या चाहता है.. आप जो भी है नेता अफ़सर व्यापारी अथवा आम आदमी जो भी हैं देखें भारत आपसे कुछ खास नहीं मांग रहा सच तो सोचिये क्या मांग रहा है..?
कुछ सोचा आपने ? कुछ याद आया आपको ?  न तो सुन लीजिये भारत आपसे न तो विश्व के सापेक्ष किसी तरह के कीर्तीमान मांग रहा है. न ही उसे सदनों किसी भी प्रकार के वाद-विवाद आरोप-प्रत्यारोप चाह रहा है अब तो बेचारा चुप हो गया उसे गोया कुछ नहीं चाहिये देखो न ध्यान से देखो वो तो हमसे केवल "ईमानदार-संतान" होने का कौल मांग रहा है.. शायद हम   दें पाएं.. !! 

22.12.10

पराजित होती भावनाएं और जीतते तर्क


मानव जीवन के सर्व श्रेष्ट होने के लिये जिस बात की ज़रूरत है वो सदा से मानवीय भावनाएं होतीं हैं.  किंतु आज के दौर में जीवन की श्रेष्ठ्ता का आधार मात्र बुद्धि और तर्क ही है न कि हृदय और भावनाएं.....!!
   जो व्यक्ति भाव जगत में जीता है उसे हमेशा  कोई भी बुद्धि तर्क से पराजित कर सकता है. इसके सैकड़ों उदाहरण हैं.
बुद्धि के साथ तर्क विजय को जन्म देते हैं जबकि हृदय भाव के सहारे पाप-पुण्य की समीक्षा में वक्त बिता कर जीवन को आत्मिक सुख तो देता है किंतु जिन्दगी की सफ़लता की कोई गारंटी नहीं...
    जो जीतता है वही तो सिकंदर कहलाता है, जो हारता है उसे किसने कब कहा है "सिकंदर"
                                                आज़ के दौर को आध्यात्म दूर  करती है  बुद्धि जो "स-तर्क" होती है यानि सदा तर्क के साथ ही होती है और  जीवन को विजेता बनाती है, जबकि भावुक लोग हमेशा मूर्ख साबित होते हैं.जीवन है तो बुद्धि का साथ होना ज़रूरी है. सिर्फ़ भाव के साथ रिश्ते पालने चाहिये. चाहे वो रिश्ते ईश्वर से हों या आत्मीयों से सारे जमाने के साथ भावात्मक संबन्ध केवल दु:ख ही देतें हैं. भावात्मक सम्बंध तो हर किसी से अपेक्षा भी पाल लेतें हैं  अपेक्षा पूर्ण न हो तो दु:खी हो जाते हैं. जबकि ज़रूरी नहीं कि आपसे जुड़े सारे लोग आपके ही हों ? 
आप मैं हम सब जो भावों के खिलाड़ी हैं .... बुद्धि का सहारा लें तो हृदय और जीवन दोनों की जीत होगी 

9.9.10

"दुश्मनों के लिये आज़ दिल से दुआ करता हूं....!"


सोचता हूं कि अब लिखूं ज़्यादा और उससे से भी ज़्यादा सोचूं .....? 
सच कितना अच्छा लगता है जब किसी को धीरज से सुनता हूं. आत्मबल बढ़ता है. और जब किसी को पढ़्ता हूं तो लगता है खुद को गढ़ता हूं. एक  पकवान के पकने की महक सा लगता है तब ....और जब  किसी के चिंतन से रास्ता सूझता है...तब उगता है साहस का ...दृढ़ता का सूरज मन के कोने में से और फ़िर यकायक  छा जाता है प्रकाश मन के भीतर वाले गहन तिमिर युक्त बयाबान में.... ? 
ऐसा एहसास किया है आपने कभी ..!
किया तो ज़रूर होगा जैसा मैं सोच रहा हूं उससे भी उम्दा आप  सोचते हो है न........?
यानी अच्छे से भी अच्छा ही होना चाहिये सदा.अच्छे से भी अच्छा क्या हो यह चिंतन ज़रूरी है.
वे पांव वक़्त के नमाज़ी है, ये त्रिसंध्या के लिये प्रतिबद्ध हैं, वो कठोर तपस्वी हैं इन धर्माचरणों का क्या अर्थ निकलता है तब जब हम केवल स्वयम के बारे में सोचते हैं. उसने पूरा दिन दिलों को छलनी करने में गुज़ारा... और तीस दिनी रोज़ेदारी की भी तो किस तरह और क्यों अल्लाह कुबूल करेंगें सदा षड़यंत्र करने वाला मेरे उस मित्र को अगले रमज़ान तक पाक़ीज़गी से सराबोर कर देना या रब .ताकि उसके रोज़े अगली रमज़ान कुबूल हों...!
ईश्वर उस आदमी को  सबुद्धि देना जो मुझे जाने बगैर मेरी नकारात्मक-छवि चारों ओर बनाए जा रहा है उसकी त्रिकाल संध्या ईश्वर स्वीकारे यही प्रार्थना करता हूं. 
वो इन्सान जो सन डे के सन डे गिरजे में जाकर प्रभू के सामने प्रेयर करता है पूरे हफ़्ते मेरे दुर्दिन के लिये प्रयास करता है उसे माफ़ कर देना उसे पवित्र बना देना ताकि उसकी भी साप्ताहिक प्रेयर स्वीकार सकें आप .
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 दोस्तों शक्ल में मिले इन दुश्मनों के उजले कल के लिये याचना का अर्थ उनके बेहतर कल के लिये है न कि उनको अपमानित करने अपमानित करना होता तो सच नाम सहित उल्लेख करता. मुझमें इस बात का साहस है किंतु किसी को आहत करके उसे बदलने से बेहतर है ..... एक सदाचारी की तरह दुश्मन के लिये भी सदभावना रखना.
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 कल देखिये:-” जीवन में सब कुछ करो झूठी चुगलियों को छोड़ कर"



6.8.09

सलीम भाई के नाम खुला ख़त

प्रिय सलीम भाई "

आज के परिपेक्ष्य में बात कीजिये हिन्दू धर्म में ये सारी बातें हैं ही नहीं
हिंदुत्व केवल और केवल विश्व में सर्वाधिक गंभीर धर्म है न तो इस धर्म ने सत्ता की पीठ पर सवारी कर विश्व में संप्रभुता प्राप्त करने की कोशिश की है नहीं यह आयुधों के सहारे / आतंक के सहारे विश्व पर छाया . इसे मानव ने सहजता से स्वीकारा, हिंदुत्व कभी भी प्रतिक्रया वादी नहीं रहा आप अपने पूर्वजों जो पूछिए या उनका इतिहास जानिए कभी भी औरत को दोयम दर्जा नहीं मिला. मैं साफ़ तौर पर आपको बता दूं आप भारतीय परिवेश में रह कर नकारात्मक सोच की बानगी पेश कर रहें हैं आप गार्गी,मैत्रेयी,सीता,आदि के बारे में जान लें. आप जान लें हिन्दू धर्म में ही नारी को शक्ति कहा है. कट्टर पंथियों नें रजिया सुलतान, को बर्दाश्त नहीं किया. गोंडवाना के इतिहास को देखिये वीरांगना माँ दुर्गावती को भी अंग्रेजों के साथ मिल कर किस ने शहीद कराया सब जानतें हैं.
चलिए छोडिये इस धर्म में बिना वामा के कोई अनुष्ठान पूर्ण नहीं माने जाते . जबकि कुछ पूजा गृहों / आराधना स्थानों पर नारी का प्रवेश वर्जित है मित्र इस पर गौर किया कभी आपने.
कई धार्मिक व्यवस्थाएं गलत व्याख्याओं के कारण गलत तरीके से लागू की गयीं . इस/इन कारणों से सम्पूर्ण धर्म को कटघरे में लाना बुद्धि-वमन ही है. आशा है मेरे पत्र की गंभीरता को आप समझ रहे होंगे . मेरे घर में इस्लाम/क्रिश्चियनिटि/सिक्ख-धर्म/का आदर करना मुझे सिखाया है. मेरी माँ सव्यसाची घंटों मेरे शायर मित्र "इरफान झांस्वी" से कुरान की प्रासंगिकता,आवश्यकता, के तत्वों पर चर्चा करतीं थीं . मेरे पिता ने कभी इस बात का विरोध नहीं किया. आगे मुझे कुछ कहने की ज़रुरत नहीं
अल्लाह (भगवान्),मुझे और आपको उसके रास्ते पे चलने की तमीज सिखाए इसी मंगल कामना के साथ
आपका ही "मुकुल "


20.3.09

जिधर शामें बदन पे फफोले उगातीं हैं

जे जो आप आदमी देख रए हो न उस शहर से आया है जिधर शामें बदन पे फफोले उगातीं हैं सूरज शोलों सा इनके ही शहर से और तो और ठीक इनके मकान के ऊपर से निकलता है. तभी देखोन्ना............इनका चेहरा झुलसा हुआ आग उगलता नज़र आ रिया है. सारे नकारात्मक विचार इनकी पाज़िटीविटी जला के ख़ाक ख़ाक कर चुकें हैं ! गोया ये ये नहीं सोई हुई आग को अपने में समोए गोबर के उपले से नज़र आ रहे हैं .
कुंठा की खुली दूकान से ये महाशय अल सुबह से कोसन मन्त्र का जाप करतें हैं . तब कहीं कदम ताल या पदचाप करतें हैं .
जी हाँ ...!! ज़मूरे खेल बताएगा
बताउंगा उस्ताद
इस आदमीं की जात सबको बताएगा ?
बताउंगा...!
कुछ छिपाएगा....?
न उस्ताद न
तो बता ........ आज ये कितनों की निंदा करके आया है ..?
उस्ताद............आज तो जे उपासा है...! देखो न चेहरा उदास और रुआंसा है......!!
हाँ ये बात तो है पर ऐसा क्यों है....!
उस्ताद इसकी बीवी का भाई इसके घर आया था बीवी को ले गया आज ये घर में अकेला था मन बहलाने बाजीगरी देखने आ गया...!
नहीं मूर्ख ज़मूरे ये अपनी बाजीगरी कला का पेंच निकालेगा
उस्ताद बड़े पहुंचे हुए हो ......ये सही बात कैसे जानी ...
बताता हूँ पहले पिला दे पानी ..........
किसे......उस्ताद ........ इसे की तुमको ....?
उस्ताद रिसियाने का अभिनय करने लगा इस नकली झगडे को असल का समझ वो नकारात्मक उर्जावान व्यक्ति बाजीगरी के लिए बीच घेरे में आ गया . निंदा के मधुर वचन फूट पड़े उसके मुँह से ... ज़मूरों की जात पे वो तहरीर पढ़ी की सारे सन्न रह गए .......
"बाजीगर भाई, तेरा जे जो ज़मूरा है इसकी वफादारी का इम्तहान लेता हूँ तुझे कोई एतराज़ तो नहीं ?"
"न,भाई ......... बिलकुल नईं मेरा ज़मूरा है "
बोल ज़मूरे तू तरक्की चाहता है.....?
हाँ !
क्या करेगा !
बड़ा बाजीगर बनूँगा.....!
उस्ताद से भी बड़ा ....?
हाँ उस्ताद से भी बड़ा तभी तो उस्ताद का नाम अमर रहेगा ...?
"तू उस्ताद का नाम अमर करेगा ?"
हाँ,करूंगा
कब
जब मैं उस्ताद बन जाऊंगा और कब ?
तू उस्ताद कितने समय में बनेगा
जितना ज़ल्दी भगवान वो समय लाएगा ?
इसका अर्थ समझे उस्ताद ....?
फिर दूर ले जाकर उस्ताद के कानों में ज़मूरे के कथन का अर्थ समझाया .... उस्ताद उसकी बात सुन कर सन्न रह गया
"मित्रो बताइए उस्ताद के कानों में ज़मूरे ने क्या कहा होगा....?"

6.11.08

विमर्श


संदेह को सत्य समझ के न्यायाधीश बनने का पाठ हमारी ."पुलिस " कोअघोषित रूप से मिला है भारत /राज्य सरकार को चाहिए की वे,सामाजिक आचरण के अनुपालन कराने के लिए,पुलिस को दायित्व नहीं देना चाहिए . इस तरह के मामले,चाहे सही भी हों विषेशज्ञ से परामर्श के पूर्व सार्वजनिक किएँ,जाएँ , एक और आरुशी के मामले में पुलिस की भूमिका,के अतिरिक्तदेखा जा रहा है पुलिस सर्व विदित है .
सामान्य रूप से पुलिस की इस छवि का जन मानस में अंकन हो जाना
समाज के लिए देश के लिए चिंतनीय है , सामाजिक-मुद्दों के लिए
बने कानूनों के अनुपालन के लिए पुलिस को सौंपा जाए बल्कि पुलिस इन मामलों के निपटारे के लिए
विशेष रूप से स्थापित संस्थाओं को सौंपा जाए
संदेह को सत्य समझ के न्यायाधीश बनने का पाठ हमारी पुलिस को
अघोषित रूप से मिला है भारत /राज्य सरकार को चाहिए की वे
सामाजिक आचरण के अनुपालन कराने के लिए
पुलिस को दायित्व नहीं देना चाहिए . इस तरह के मामले
चाहे सही भी हों विषेशज्ञ से परामर्श के पूर्व सार्वजनिक किएँ
जाएँ , एक और आरुशी के मामले में पुलिस की भूमिका,के अतिरिक्त
देखा जा रहा है पुलिस सर्व विदित है .
सामान्य रूप से पुलिस की इस छवि का जन मानस में अंकन हो जाना
समाज के लिए देश के लिए चिंतनीय है , सामाजिक-मुद्दों के लिए
बने कानूनों के अनुपालन के लिए पुलिस को सौंपा जाए बल्कि पुलिस इन मामलों के निपटारे के लिए
विशेष रूप से स्थापित संस्थाओं को सौंपा जाए .
"किंतु इस सबसे पहले इधर भी गौर करें "
दर असल पुलिस को लेकर सामाजिक सोच नेगेटिव होने के कारण जग ज़ाहिर हैं
किंतु कभी आपने पुलिस वालो के जीवन पर गौर किया होगा तो आप पाया ही होगा
व्यक्तिगत-पारिवारिक जीवन कितना कठिनाइयों भरा होता है .
सोचिए जब बेटी के साथ ,मुस्कुराने का वक्त हो तब उनको वी आई पी ड्यूटी में लगे होना हो,पिता बीमार हैं और सिपाही बेटा नौकरी बजा रहा हो ,या होली,दीवाली,ईद,दीवाली,इन सब को दूर से देखने वाले पुलिस मेन की संवेदना हरण होना अवश्यम्भावी है. चलिए सिर्फ़ पुलिस की आलोचना करने के साथ साथ व्यवस्था में सुधार के लिए चर्चा कर उनको संवेदनशील,ईमानदार,ज़बावदार,बनाने सटीक सुझाव दें, कोई तो कभी तो सुनेगा ही
पुलिस जीवन के लिए मेरी सोच जो मैंने,उन दिनों देखी थी जब मैं लार्डगंज पुलिस-कालोनी में बच्चों को ट्यूशन पढाता था
बहुत करीब से इनको देखा था तब आँखें भर आया करतीं थीं उस स्थिति पर आधारित है . आप भी इसे देख सकतें हैं आज भी कमोबेश दशा वही है
प्रेरणा :
भाई समीर यादव की पोस्ट "शहीद पुलिस "से प्रेरित हुआ हूँ और संग साथ हैं बीते दिनों की यादें जिन दिनों बेरोज़गारी के दौर में ट्यूशन पढाता मैं लार्डगंज जबलपुर के वाशिंदे पुलिस वालों के बच्चों को जिनमें से अधिकाँश अच्छी नौकरियों में अब मिलते हैं कभी कभार नमस्ते मामाजी के संबोधन सहित

30.10.08

"चिंता ही नहीं चिंतन भी : हालत-ए-महाराष्ट्र "

काफ़ी हाउस में मित्रों के बीच हुई चर्चा के संपादित अंश आपसे शेयर करना चाहता हूँ
" धर्मदेव", और राहुल राज , के मामलों के बीच झूलता है एक सवाल की क्या मेरा देश भी कबीलियाई संरचना की ,
ओर जाने तैयार है..........? यदि हाँ तो इसकी सीधी जिम्मेदारी किसकी है । कल ही मित्र मंडली के साथ हुई चर्चा में
में साफ़ हुआ की हरेक उस विषय को सियासत से दूर दूर रखना अब ज़रूरी हो गया है जो पूर्णत: सामाजिक हों ....!
यानी सियासत ओर सियासियों को सामाजिक बिन्दुओं से दूर ही रखना ज़रूरी है ताकि कोई भी लालसा सामाजिक-संरचना को असामाजिक स्वरुप न दे सके । इस के लिए ज़रूरी है यानी ऐसे
इन जैसे ,लोगो को जो अदूरदर्शी हैं को सामाजिक सरोकारों से परे रखना ही होगा। समाज विज्ञानी विश्व विराट के उत्कर्ष की सोच लेकर अपना अध्ययन सार साहित्य को देता है जबकि राजनीतिक पृष्ठ पर ऐसा कदापि नहीं है । सभी खजानो को लूटने इन हथकंडों की आज़माइश पे लगातार आमादा होते हैं । ओशो की सोच ,इस समय समयानुकूल ही है:-" लोग भय में जी रहे हैं, नफरत में जी रहे हैं, आनंद में नहीं। अगर हम मनुष्य के मन का तहखाना साफ कर सकें... और उसे किया जा सकता है।
ध्यान रहे, आतंकवाद बमों में नहीं हैं, किसी के हाथों में नहीं है, वह तुम्हारे अवचेतन में है। यदि इसका उपाय नहीं किया गया तो हालात बदतर से बदतर होते जाएँगे। और लगता है कि सब तरह के अंधे लोगों के हाथों में बम हैं। और वे अंधाधुंध फेंक रहे हैं। हवाई जहाजों में, बसों और कारों में, अजनबियों के बीच... अचानक कोई आकर तुम पर बंदूक दाग देगा। और तुमने उसका कुछ बिगाड़ा नहीं था।"
गंभीरता से देखिए सत्य के दर्शन सहज ही हो जाएंगे आतंक किसी भी रूप में हो देश के लिए ही नहीं समूची मानवता के लिए "शोक का कारण है"
मानवता का विकास करने के लिए किसी पंथ,जाति,भाषा,धर्म,क्षेत्र,वर्ग की ही प्रगति चाहने वाला कतई उपयोगी नहीं है। उसे उसके अधिकारों से वंचित कर देने में कोई बुराई भी नहीं है।
जिस देश में ऐसे तत्व सर्वोच्च संरक्षण दाता मानें जाते हों जो समूह ओर स्थान विशेष के हिता चिन्तक हों वो देश कभी सच्चे विकास को पा न सकेगा ये तय शुदा है।
मित्र चर्चा में एक बात और खुलकर सामने आयी जिसमें मित्र ये कहते पाए गए कि :"प्रजातंत्र के स्वरुप पर पुनर्विचार हो " इस सम्बन्ध में आगे कुछ कहना ठीक नहीं कहते हुए एक मित्र ने कहा -'भई, हमने कहा न अधिकारों से वंचित कर दिया जावे , ?
एक दीर्घ मौन को तोड़ने काफी हाउस का बैरा बिल लेकर आ गया भुगतान के साथ चर्चा पर विराम लगना तय था सो लग भी गया...!

Wow.....New

धर्म और संप्रदाय

What is the difference The between Dharm & Religion ?     English language has its own compulsions.. This language has a lot of difficu...