न्यू मीडिया , विशेष तौर पर हिंदी न्यू मीडिया जिसका सबसे लघु इकाई एक ब्लॉग को कहा जा सकते, अब तक का सर्वाधिक उपेक्षित और गैर-प्रभावी बता कर उपेक्षा की दृष्टि सहता रहा है. यह सत्य है कि ” न्यू मीडिया ” शब्द के मायने इतने संकीर्ण नहीं कि मात्र ब्लॉग लेखन ही उसकी परिधि में आये. यह एक तकनिकी क्रांति के बाद और विशेष तौर पर डाटा ट्रान्सफर ओवर वर्ल्ड वाइड वेब के क्षेत्र में आये चमत्कारी परिवर्तन के कारण इतना आग्रही हो गया कि इसे समान्तर मीडिया की तरह देखने और आंकने की बौद्धिक मजबूरी पैदा होती गयी.
आभार:ब्लॉग ठाले बैठे |
अब बुनियादी सवाल यह उठता है , कि आम आदमी को मिली अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को एक चैलेन्ज के रूप में क्यूँ माना जा रहा है. जब सम्प्रेषण, प्रस्तुति, व्यापकता और विश्वसनीयता के आधार पर आज भी परंपरागत मीडिया ..छोटी मछलिओं के मुकाबले कहीं ज्यादा प्रभावी हैं. आज भी इंटनेट पर टाइम्स , भाष्कर और गार्जियन वैसे ही काबिज हैं. सुचना प्रवाह के इस विशाल समंदर में आपकी आवाज तो है , मगर वह हाशिए पर है . वह उस रिक्त स्थान में हैं , जिसे ताक पर कहते हैं. यह दुर्दशा विशेष तौर पर भारत में हैं और उसमे भी हिंदी के इर्द-गिर्द.
हिंदी के प्रति उदासीनता सबसे ज्यादा उनकी ही हैं , जिन्हें हिंदी आती है. मात्र हिंदी के ज्ञान लिए और अंग्रेजी को टटोलने वाले लोग अंग्रेजियत के बड़े दीवाने दीखते हैं. इसका सीधा असर हिंदी ऑनलाइन मीडिया में बाजार के बेरुखी के रूप में सामने आता है. परन्तु इसे शिकायत के तौर पर नहीं लेकर हमें चुनौती के रूप में देखना पड़ेगा. चुनौती हिंदी के अस्तित्व को समृद्ध , सशक्त और सक्षम बनाये रखने की. क्योंकि आप किसी सहयोग , समर्थन की आस लिए इस क्षेत्र में उतरें हैं तो आपको निराशा ही मिलेगी . संवेदना के बर्बर मर्दन में यकीं रखने वाले ..बाजारवाद के अधीन इस न्यू मीडिया का प्रयोग-पटल भी अलग नहीं है . हाँ , इसमें आपको चूं -चूं करने भर के लिए जरूर आजाद छोड़ रखा है. क्योंकि इस बाज़ार के प्रभावी खिलाडिओं को यह अच्छी तरह पता है ..कि आपकी चूं-चूं उनके लिए बड़े बगीचे में चहचहाने वाले चिड़िया से ज्यादा कुछ और नहीं. जिसे उतनी ही आजादी मिलती है कि वह मौसम पर अपना मिजाज चूं-चूं कर जाहिर कर सके. मौसम बदलने की ताकत उसमे नहीं.शायद यह ट्वीटर यहीं दर्शाता है.जहाँ अमिताभ बच्चन और राहुल गाँधी ने क्या कहा यह उल्लेखनीय अवश्य है , परन्तु वहीँ बात अगर आप उसी ट्वीटर पर चार साल से कह रहे तो भी आपको कोई नहीं पूछता. न्यू मीडिया में बड़े खिलाडिओं की उपलब्धि की कतार में अपने को खड़ा मानना आपका और हमारा दिवास्वपन है. मुझे याद याता है , पल्लू शॉट जी हाँ ..दिलशान का पल्लू शॉट . आज जिसे दिलशान का पल्लू शॉट कहा जाता है ..उसे बिहार की गलिओं में हमने हजारों बार खेला . और हमने क्या बच्चा-बच्चा यह शॉट खेला करता है. मुझे यह सारी स्थिति कुछ -कुछ ऐसा ही आभास दिलाती है, जैसे मोनियुल -हक स्टेडियम के बाहर के खाली फील्ड में खेलने का वक्त होता था. असल मैच तो स्टेडियम के अंदर चल रहा होता है. किन्तु बहार खेलने वाले भी यहीं कहते हैं कि मोनियुल-हक से खेल कर आ रहे हैं.
परन्तु इस कथन में मेरी कोई दोष-दर्शिता को नहीं देखें . इसके अलग मायने हैं. परन्तु किसी भी तंत्र में कुछ तो फल को खाने वाले होते हैं, उन्हें यह फिक्र नहीं होती और न ही उनसे अपेक्षा की जाए कि वह फल खाने से पहले आम की नस्ल , उसकी लागत , उसकी पैदावार और उसके मालिक का पता लगा कर फल खायेंगे. और दूसरी जमात उन लोगों की होती है जो फल के पैदावार , उसके व्यापर और नस्ल , स्थानीय बाज़ार पर उसका प्रभाव, भविष्य के स्पंदन पर नज़र बनाये रखते हैं. ऐसे ही लोगों को आप कभी फेसबुक और ट्वीटर पर चिंतित होते हुए यत्र-तत्र पाते हैं. कई तो इनकी चिंता को इनकी अज्ञानता और कई इन्हें रुढिवादी बता कर उपहास करते हैं. परन्तु यह चिंता वाजिब है.
लेकिन सवाल कठिन तब हो जाता है , जब आप स्थानीय उपक्रम को राष्ट्र-प्रेम , भाषा-मोह में आकार अपना समर्थन और सहानुभूति देते हैं और कल वहीँ तथाकथित देशी , विदेशी चोला पहनने लगता है . इसे अंग्रेजों से मिली मुक्ति के बाद के दिनों में बनी बॉलीवुड फिल्मों को देखर समझा जा सकता है. सब से सब अंग्रेजियत से सराबोर हैं . और तो और ..हिंदी भी अंग्रजी की तरह बोलते नज़र आते हैं . फिर चाहे वह भारतीय राजनीती ही क्यों न हो. शोषण तो अब भी बदस्तूर जारी है. नायक बदल गए हैं , अपर पटकथा वहीँ है , परिणति वहीँ है .
हिंदी को न्यू मीडिया में प्रभावी रखने के लिए वर्तमान निकायों का विकेन्द्रीकरण आवश्यक है. अपनी कमजोरी को ही अपना हथियार बनाना होगा. इसमें हमारी कमजोरी और बौना होने का अहसास सिर्फ इसीलिए है कि ..एक ब्लॉग और एक वेबसाईट , बहुत ही कम लागत पर शुरू हो जाती है और संपादन सुख लेते हुए आप अपना हस्तक्षेप को तैयार हो जाते हैं. लेकिन गलती यहीं है कि हम किसी बड़े हाउस की तरह बर्ताव करने लगने हैं. आवश्यकता है अपनी खोज, उर्जा और आवाज को ग्रामीण स्तर पर ले जाने की . क्योंकि वह क्षेत्र आज मुख्यधारा द्वारा उपेक्षित हैं.आपकी सक्रियता वहाँ आपकी पैठ आसानी से बना देगी . फिर कल को कोई आपको चुनौती देने आये ..तब तक आप अपनी पहचान स्थानीय स्तर पर बना चुके होंगे.