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गुरुवार, दिसंबर 19, 2013

हर मोड़ औ’ नुक्कड़ पे ग़ालिब चचा मिले



हर मोड़ औनुक्कड़ पे ग़ालिब चचा मिले
ग़ालिब की शायरी का असर देखिये ज़नाब
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कब से खड़ा हूं ज़ख्मी-ज़िगर हाथ में लिये
सब आए तू न आया , मुलाक़ात के लिये !
तेरे दिये ज़ख्मों को तेरा इंतज़ार है
वो हैं हरे तुझसे सवालत के लिये !
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उजाले उनकी यादों के हमें सोने नहीं देते.
सुर-उम्मीद के तकिये भिगोने भी नहीं देते.
उनकी प्रीत में बदनाम गलियों में कूचों में-
भीड़ में खोना नामुमकिन लोग खोने ही नहीं देते.
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जेब से रेज़गारी जिस तरह गिरती है सड़कों पे
तुमसे प्यार के चर्चे कुछ यूं ही खनकते हैं....!!
कि बंधन तोड़कर अब आ भी जाओ हमसफ़र बनके 
कितनी अंगुलियां उठतीं औ कितने हाथ उठते हैं.?
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पूरे शहर को मेरी शिकायत सुना के आ
मेरी हर ख़ता की अदावत निभा के आ !
हर शख़्स को मुंसिफ़ बना घरों को अदालतें –
आ जब भी मेरे घर , रंजिश हटा के आ !!

गुरुवार, अगस्त 11, 2011

मित्र जिसका विछोह मुझे बर्दाश्त नहीं

   
                   ख़ास मित्र के लिए ख़ास पोस्ट प्रस्तुत है.. आप लोग चाहें इसे अपने ऐसे ही किसी ख़ास मित्र को सुनवा  सकते .... 




ऐसे मित्रों का विछोह मुझे बर्दाश्त नहीं. आप को भी ऐसा ही लगता होगा.. चलिये तो देर किस बात की
ये रहा मेरा मित्र जो नाराज़ है मुझसे यह एक मात्र तस्वीर है  इनके पास जिनका हार्दिक आभारी हूं.

मंगलवार, फ़रवरी 01, 2011

ललित शर्मा और विवेक रस्तोगी जी से बात चीत

                                                    कल का दिन भारी व्यस्तताओं से परिपूर्ण रहा. ललित शर्मा शाम से ही कैमरा लगाए बैठे थे. अभनपुर से रायपुर फ़िर रायपुर से अभनपुर का रोजिया जात्री ललित शर्मा को गूगल महाराज़ ने सुंदर सी टी-शर्ट भेजी. कह तो रहे थे कि  वे कह तो रहे थे कि संयोग है किंतु मुझे ऐसा लगता है ये कास्ट्यूम खास तौर पर इसी वज़ह से पहनी गई है बहरहाल जो भी बात चीत मज़ेदार थी. बीच में नेट महाराज़ हो गये नाराज़ तो मौके का लाभ उठाने हमने कैमरा मोड़  दिया बैंगलोर की तरफ़ जहां सैण्डो बनियान पर उपलब्ध थे भाई विवेक रस्तोगी सो उनको भी टी-शर्ट पहनवा के बतियाते रहे चलिये आप भी सुन लीजिये मज़ेदार चर्चा
  1. श्री ललित शर्मा जी से बात चीत 
  2. श्री ललित शर्मा जी से बात चीत
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गुरुवार, दिसंबर 23, 2010

मंगलवार, दिसंबर 21, 2010

बोलने का अधिकार बनाम मेरा गधा, और मैं.......!!

मेरा गधा, और मैं हम दौनों की स्थिति एक सी ही है अब करें तो क्या न करें तो क्या. सोचा जो भी सब मालिक के हवाले कर देतें हैं उसकी जो मरजी आवे कराए न हो मर्जी तो  न कराए. ज़्यादा दिमाग लगा के भी कौन सा  पुरस्कार मिलना है. मिलना उनको है जो उसके लायक होते हैं आज भतीजी आस्था को उसकी सहेली का एस एम एस मिला "अगर दुनियां में ईमानदार एवं मेहनतियों की इज्ज़त होती तो सबसे इज्ज़तदार प्राणी होता." सच यही है . आज के दौर में   इंसान और गधे की ज़िंदगी एक साथ प्रविष्ट हो रहे  साम्यवाद की आहट  से महसूस की जा सकती है. यकीन हो या न हो.यकीन न हो तो गधे से पूछ लीजिये. रात भर कलम घसीटी करने के बाद भी कोई फ़ायदा नहीं  एक गधे को भी क्या मिलता है कुम्हार की गालियाँ, या बैसाख नन्दन होने की तोहमत,.जिस दिन से  अपने राम के बुरे दिन शुरू हुए उसी दिन से मोहल्ले के हर आम और ख़ास के बीच हमको लेके सवाल उठते-उठाते रहे हैं . सुना था कि कुत्ता एक ऐसा जीव होता है कि स्वर्गारोहण में साथ रहा है किन्तु आजकल के मेरे पालित कुत्ते  पता नहीं किधर गम हो गए !  ! इन पे भरोसा कैसे और कित्ता करें ? बुरे दिन में हमारे पालतू ही सबसे पहले हमारे लिए मरहम की ज़गह बदनामी दिया घर-घर रख-रखा आते हैं. पर अपने राम का गधा...? वो तो गधा ही ठहरा अपने जगजाहिर अतीत और स्वप्नहीन भविष्य के गणित से दूर अपने साथ है. अपने कुकर्म इतने हैं कि मैं और मेरा गधा जीवन को वैराग्य भाव से ही जीतें हैं न तो उसे धरती  का मोह है और न ही मुझे ही स्वर्ग से कोई आसक्ति . अब आप ही बताएं आज की ज़िंदगी से बढकर भी कोई नरक है कहीं.  हम दौनो की स्थित एक सी है जावेंगे तो बेहतर स्थिति में ही जावेंगे न ?  
 अब बताइये, अपन कोई युधिष्ठिर महाराज़ थोड़े न हैं जो सदा सच बोलें, धरमराज का ओहदा पाएं ! पाएं भी कैसे सच बोलेंगे तो गधे ही कहलाए न..?
और  ही कहोगे:-"का ज़रुरत थी  इत्ता बोलने की  फंस गए न फ़िज़ूल में ?
अगर हम सही  बोले  तो कोई भी झट से बोल देगा:-"क्या फ़िज़ूल में चिल्लाता गधा कहीं का ,चुपकर"       
Donkey Cons: Sex, Crime, and Corruption in the Democratic Party

इस बात को लिख ही रहा था कि एक आकाश वाणी हुई :-"सच..! बोलने का  अधिकार न तो तुझे है न तेरे गदहे को. सो भैया हम खामोशी से  बैठे नज़ारा कर रहे हैं. देख रहे रहें है उनको ही सुन रहें हैं जिनको कुछ भी कहीं भी कभी भी बोलने  का अधिकार है. हमारे मौन में छिपी क्रान्ति को सामझा सकते हो तो समझो.  
 

मंगलवार, नवंबर 23, 2010

सर्किट हाउस भाग:-एक

(सर्किट हाउस में  )
             ब्रिटिश ग़ुलामी के प्रतीक की निशानी सर्किट हाउस को हमारे लाल-फ़ीतों ने  ठीक उसी उसी तरह ज़िंदा रखा जैसे हम भारतीय पुरुषों ने शरीरों  के लिये  कोट-टाई-पतलून,अदालतों ने अंग्रेजी, मैदानों ने किरकिट,वगैरा-वगैरा. एक आलीशान-भवन जहां अंग्रेज़ अफ़सरों को रुकने का इन्तज़ाम  हुआ करता था वही जगह “सर्किट हाउस” के नाम से मशहूर है. हर ज़रूरी जगहों पर  इसकी उपलब्धता है. कुल मिला कर शाहों और नौकर शाहों की आराम गाह .  मूल कहानी से भटकाव न हो सो चलिये सीधे चले चलतें हैं  उन किरदारों से मिलने जो बेचारे इस के इर्द-गिर्द बसे हुये हैं बाक़ायदा प्रज़ातांत्रिक देश में गुलाम के
सरीखे…..! तो चलें
                         आज़ सारे लोग दफ़्तर में हलाकान है , कल्लू चपरासी से लेकर मुख्तार बाबू तक सब को मालूम हुआ जनाब हिम्मत लाल जी का आगमन का फ़ेक्स पाकर सारे आफ़िस में हड़कम्प सा मच गया. कलेक्टर सा’ब के आफ़िस से आई डाक के ज़रिये पता लगा  अपर-संचालक जी पधार रहें किस काम से आ रहें हैं ये तो लिखा है पर एजेण्डे के साथ  कोई न कोई हिडन एजेण्डा  भी होता है  …?   जिसे  वे कल सुबह ही जाना जा सकेगा .
दीपक सक्सेना को ज्यों ही बंद लिफ़ाफ़ा प्रोटोकाल दफ़्तर से मिला फ़टाफ़ट कम्प्यूटर से कोष्टावली आरक्षण हेतु चिट्ठी और मातहतों के लिये आदेश टाईप कर ले आया बाबू. दीपक ने दस्तख़त कर आदेश तामीली के वास्ते चपरासी दौड़ा दिया गया.
चपरासी से बड़े बाबू को मिस काल मारा बड़े बाबू साहब के कमरे में बैठा ही था मिस काल देख बोला :-सा’ब राम परसाद का मिसकाल है..!
दीपक:- स्साला कामचोर, बोल रहा होगा सायकल पंक्चर हो गई..?
मुख्तार बाबू ने काल-बैक किया  सरकारी फ़ोन से . 
’हां,बोलो…!’
 ’हज़ूर, श्रीवास्तव तो घर पे नहीं है..?
लो  साहब से बात करो…मुख़्तार बाबू बोला,
 रिसीवर लेकर दीपक ने अधीनस्त फ़ील्ड स्टाफ़ रवीन्द्र श्रीवास्तव की बीवी को बुलवाया फ़ोन पर :- जी नमस्ते नमस्ते कैसीं हैं आप..?
“ठीक हूं सर ये तो सुबह से निकलें हैं देर रात आ पाएंगे बता रहे थे आप ने कहीं ज़रूरी काम से भेजा है..?”
“अर्रे हां…. भेजा तो है याद नहीं रहा… सारी ठीक है भाभी जी आईये कभी घर सुनिता बहुत तारीफ़ करती हैं आपकी “
“जी, ज़रूर ….
राम परसाद को दीजिये फ़ोन..?”
     कुर्सी पर  लगभग लेटते हुए दीपक का आदेश रामप्रसाद के लिये ये था कि वो दीपक की जगह अब्राहम का नाम भर के आदेश तामीली उसके घर पर करा दे. “
     “अब्राहम… फ़ील्ड से वापस आकर सोफ़े पे पसरा ही था कि     रामप्रसाद की आवाज़ ने उसके संडे के लिये तय किये  सारे कामों पर मानों काली स्याही पोत दी. उसने आदेश देखते ही ना नुकुर शुरु कर दी “अरे रामपरसाद श्रीवास्तव का नाम तुमने काटा मेरा भी काट के शर्मा का लिख दो ”
“सा’ब,रखना हो तो रखो, वरना लो साहब को मिस काल किये देता हूं… कहो तो…?
“अर्र न बाबा, वो तो मज़ाक कर रा था लाओ किधर देना है पावती..?”
   लोकल-पावती-क़िताब आगे बढ़ाते हुए अब्राहम से पूछता है:-सा’ब,वो एम-वे वाता धंधा कैसा चल रा है”
 मतलब समझते ही बीवी को आवाज़ लगाई:-भई, सुनती हो ले आओ एक टूथ-पेस्ट , अपने परसाद के लिये..! पचास का नोट देते हुए –’हां और ये ये लो रामपरसाद, आज़ बच्चों के लिये कुछ ले जाना. दारू मत पीना बड़ी मेहनत की कमाई है.
’जी हज़ूर…दारू तो छोड़ दी ? रामपरसाद ने हाथों में नोट लेकर कहा –अरे सा’ब, इसकी क्या ज़रूरत थी. आप भी न खैर साहबों के हुक़्म की तामीली मेरा फ़रज़ (फ़र्ज़) बनता है हज़ूर .
        हज़ूर से हासिल नोट जेब में घुसेड़ते ही रामपरसाद ने बना लिया बज़ट  , पंद्र्ह की दारू, पांच का सट्टा , दस का रीचार्ज, बचे बीस महरिया के हवाले कर दूंगा. जेब में टूथ-पेस्ट डाल के रवानगी डाल दी.
(क्रमश: )

सोमवार, मार्च 15, 2010

मीडिया का अनुपूरक है ब्लॉग : पियूष पांडे

चैत्र-नवरात्रि साधना पर्व पर सभी का हार्दिक अभिनन्दन है . मित्रों कल मेरे एलबम बावरे-फकीरा को  रिलीज़ हुए पूरा एक वर्ष हो गया है. इस सूचना के साथ बिना आपका समय जाया किये सीधे आदरणीय पियूष पांडे जी से आपकी मुलाक़ात कराना चाहूंगा हिन्दी ब्लागिंग को लेकर कतिपय साहित्यकारों की टिप्पणियों को उनकी व्यक्तिगत राय मानने वाले पांडे जी से उनकी कविताएँ भी इस पाडकास्ट में उपलब्ध हैं.


  हिन्दी लोक के प्रस्तोता की पसंद शायद आपकी  पसंद भी हो 
                

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