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19.3.22

कश्मीर नामा 01 : सहदेव ने स्थापित किया था कश्मीर

     12 वीं शताब्दी में  वर्तमान कश्मीर के परिहास पूर्व में जन्में कल्हण के पिता हर्ष देव के दरबार में दरबारी थे। लोहार वंश का साम्राज्य था कश्मीर में। लोहार राजवंश कश्मीर 11वीं और 12वीं शताब्दी में राज करता था। लोहार वंश की स्थापना संग्राम राज ने की थी। राजा संग्राम राज के वंशज हर्ष देव का शासन काल विसंगतियों भरा था। इस राजा ने मंदिरों तक को लूटा था। किसी राजा के दरबार में उनके एक महामात्य चंपक के 2 पुत्र थे। एक पुत्र का नाम कल्हण था तथा दूसरा पुत्र कनक के नाम से प्रसिद्ध हुआ। कल्हण कवि थे जबकि कनक संगीतज्ञ।
यूरोपीय विद्वान विंटरनिट्स भारत के प्रथम इतिहासकार के रूप में कल्हण का नाम सर्वोच्च स्थान पर रखा उसका कारण था कि कल्हण अपनी कृति-"राजतरंगिणी" में व्यवस्थित ढंग से इतिहास का लेखन किया। इतिहास लेखन के लिए जिन बिंदुओं का विशेष ध्यान दिया जाता है उसका ध्यान रखते हुए कल्हण ने काव्य के रूप में राजतरंगिणी की रचना की। इस कृति का रचनाकाल 1147 से लेकर 1149 ईस्वी था। कुछ लोगों की मान्यता है कि सन 1150 तक यह इतिहास लिखा गया। कुछ लोगों का मंतव्य है कि-"कल्हण ही राज तरंगिणी का लेखन काल कल्हण के बाद भी जारी रहा। और उसके सह लेखक थे जोनराज, प्रज्ञा भट्ट, श्रीवर अथवा सीवर एवम सुका ।
   अर्थात राज तरंगिणी में कई और लेखक भी शामिल हुए।
   राज तरंगिणी का जिन भाषाओं में रूपांतरण हुआ वह है राजा जैनुबुद्दीन के दरबारी कवि मुरला अहमद शाह जिन्होंने इस कृति का फारसी भाषा में अनुवाद बसीर उल अरमाद नाम से किया था। इसी नाम से मुगल बादशाह अकबर के राज कवि शाह मुल्लाह शाहबादी ने भी किया है।
अंग्रेजी विद्वान शाहजहां के कार्यकाल में भारत आए और उन्होंने अपनी किताब पैराडाइज ऑफ इंडिया में इस किताब का अनुवाद प्रकाशित किया था। परंतु यह कृति अब विश्व में उपलब्ध नहीं है। अंग्रेजी भाषा में ऑरेलेस्टाइन द्वारा किए गए अनुवाद की उपलब्धता विश्व साहित्य में है।
   मैंने अपनी कृति भारतीय मानव सभ्यता एवं संस्कृति के प्रवेश द्वार 1600 पूर्व में महाभारत के काल का विवरण प्रस्तुत कर दिया है। महाभारत काल से लेकर लोहार वंश के अंतिम हिंदू राजावंश तक 36 वर्ष और 64 उप जातियों का उल्लेख करते हुए कल्हण ने इतिहास का लेखन किया है। कल्हण ने अपने इतिहास में अर्थात राज तरंगिणी में यह तथ्य स्थापित किया है कि पांडवों के छोटे भाई सहदेव ने कश्मीर में राज्य की स्थापना की थी।
   राज तरंगिणी के अनुसार अशोक ने कश्मीर में भी अपने राज्य का विस्तार कर लिया था। प्रारंभ में अशोक शैव संप्रदाय का मानने वाला था। तदुपरांत वह बौद्ध धर्म को मानने लगा। इस कृति में कुषाण वंश के राजा कनिष्क के कश्मीर में विस्तार का भी उल्लेख करते हुए बताया गया है कि वहां कनिष्क पुर नामक नगर की स्थापना कनिष्क ने ही की थी। कनिष्क के काल में चौथी बौद्ध संगति का विवरण भी है।
   राजा अवंती बर्मन के दरबार में सूर नामक प्रथम इंजीनियर ने झेलम पर पुल बनाया था ऐसा उल्लेख इस कृति में मिलता है।
   कल्हण ने 813 ईसा पूर्व से 1150 ईस्वी तक अपनी कृति में दर्ज किया है। कृपया देखिए महाभारत का कालखंड 3762 ईसा पूर्व की पुष्टि आचार्य मृगेंद्र विनोद एवं वेदवीर आर्य ने भी की है। तदनुसार इसका उल्लेख मेरी कृति भारतीय मानव सभ्यता एवं संस्कृति के प्रवेश द्वार 16000 ईसा पूर्व में प्रश्न क्रमांक 192 से 197 तक में दर्ज है।
  मित्रों कल्हण ने अपनी संस्कृत में लिखी गई कृति राज तरंगिणी में जिस इतिहास लेखन के मूल  तत्वों का ध्यान रखा है उन्हें हम क्रमशः निम्नानुसार विश्लेषण कर सकते हैं....
[  ] प्राचीन राजवंश की क्रमवार जानकारी। राज तरंगिणी का अर्थ होता है राजाओं की नदियां अर्थात राज सत्ता का प्रवाह।
[  ] अपने ग्रंथ को प्रमाणित सिद्ध करने के लिए उन्होंने (कल्हण ने) 7826 श्लोकों में महाभारत काल से लेकर 1150 ईस्वी तक का इतिहास लिखा है।
[  ] प्रथम 3 तरंगिणीयों में अर्थात अध्याय में राजवंशों का रामायण एवं महाभारत कालीन राजवंशों का तत्सम कालीन संबंध उल्लेखित किया है।
[  ] कल्याण में कश्मीर में बौद्ध धर्म की स्थापना 273 ईसा पूर्व उल्लेखित की है।
[  ] परमाणु की पुष्टि के लिए श्रुति परंपरा पुरातात्विक प्रमाण आदि का विश्लेषण भी राज तरंगिणी में डाला है।
[  ] राज तरंगिणी में आठ तरंगिणीयां 7826 श्लोक हैं।
[  ] राज तरंगिणी में सभी राजवंशों का तटस्थ भाव से विश्लेषण किया है राजाओं के गुण दोषों का स्पष्ट चित्रण किया है।
[  ] सामाजिक व्यवस्था धार्मिक आर्थिक एवं आध्यात्मिक परिस्थितियों का सटीक विवरण प्रदर्शित है।
          भारत के प्राचीनतम इतिहास को समझने के लिए रोमिला थापर जैसे भ्रामक मंतव्य स्थापित करने वाले इतिहासकारों की जरूरत नहीं है। हमें चाहिए कि हम प्राचीन इतिहास का अध्ययन कल्हण की राज तरंगिणी से शुरू करें।
नोट:- युवाओं को यह आर्टिकल इसलिए पढ़ना चाहिए क्योंकि ताकि वे पीएससी यूपीएससी एवं अन्य प्रतियोगी स्पर्धाओं के लिए *प्राचीन भारतीय इतिहास* उपयोगी पाठ्य सामग्री है।
  अन्य सभी को इस हेतु पढ़ना चाहिए ताकि आप भारत को समझ सकें।

13.6.21

वच्छ गोत्रीय नार्मदीय ब्राह्मणों की कुलदेवी मां आशापुरी देवी

कुल देवी मां आशापूर्णा देवी असीरगढ़            जिला बुरहानपुर मध्य प्रदेश
    "श्रुतियों एवं परंपराओं के अनुसार असीरगढ़ महाभारत काल में बना असीरगढ़ ब्राह्मण समाज के बिल्लोरे वंश जिनके पूर्वजों के सहोदर शरगाय शर्मा और सोहनी परिवारों की कुलदेवी आशापूर्णा देवी की स्थापना भी असीरगढ़ फोर्ट की दीवार पर एक छोटे से मंदिर के रूप में अवस्थित है।"
       ज्ञात ऐतिहासिक विवरण
आदिकाल से भारत का इतिहास केवल श्रुति परंपरा पर आधारित रहा है अतः लिखित इतिहास के आधार पर जात जानकारियों से सिद्ध होता है कि असीरगढ़ का किला 9 वी शताब्दी के आसपास निर्मित हुआ है।
    यह जानकारी हमारे कुटुंब के पूर्वजों ने हमारे नजदीकी पूर्वज यानी आजा के पिता ने  पुत्र यानी आजा और  आजा के पिता और उनके भाइयों को बताया है। असीरगढ़ फोर्ट का निर्माण कब हुआ इसका कोई वैज्ञानिक परीक्षण ईएसआई नहीं कराया या नहीं इस बारे में सोचने की जरूरत है क्योंकि इसके तक आज तक प्रमाणित नहीं हो पाए हैं और ना ही ऐसा कोई प्रतिवेदन राज्य सरकार ने कभी दिया या जारी किया हो।
   आइए हम उपलब्ध जानकारियों के अनुसार जाने कि यह किला इन जानकारियों के आधार पर किसने बनाया और कहां स्थित है?
   इतिहासकार इसे दक्षिण का मार्ग कहते हैं। जबकि मान्यता के अनुसार यह हमारी ऐतिहासिक धरोहर है और यहां पर 5000 वर्ष से भी पहले महाभारत काल में किले का निर्माण किया गया।  ताप्ती और नर्मदा के तट पर स्थित बुरहानपुर के उत्तर में स्थित किस किले की भौगोलिक स्थिति 21.47°N तथा 76.29° E की लोकेशन पर स्थित है । यह बुरहानपुर से 22 किलोमीटर दूर स्थित है तथा इसकी ऊंचाई 780 मीटर है समुद्र तल से यह 70.1 मीटर ऊंचाई पर स्थित स्थान है। जो 60 एकड़ भूमि पर बनाया गया है। 1370 ईस्वी  में बनवाए गए इस किले का निर्माण आसा अहिर नामक एक विदेशी शासक ने करवाया था ऐसा प्रचारित है । कालांतर में आसा अहीर या असाहिर ने नासिर खान नाम के अपने एक अधीनस्थ व्यक्ति को किले के संरक्षण का कार्य सौंपा। परंतु किले पर कब्जा जमाने की नासिर खान ने कल्पना की और सबसे पहले उसने राजा असाहिर का समूल अंत कर दिया।
किले की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए इसके लिए के दो मार्ग निर्मित किए गए थे एक मार्ग दक्षिण पश्चिम दिशा में तथा दूसरा मार्ग गुप्त मार्ग है जो सात गुप्त रक्षण व्यवस्था से रक्षित  है। किस किले पर नौवीं से बारहवीं शताब्दी का राजपूतों, 15वीं शताब्दी तक फ़ारूक़ी की राजाओं के अलावा मुगल मराठा निजाम पेशवा और खुलकर के अलावा औपनिवेशिक काल में अंग्रेजों का शासन रहा है अंग्रेजों की छावनी के रूप में यह किला उपयोग में लाया जाता रहा है। इस किले में अकबर ने भी कुछ दिन निवास किया था । बाद में उन्होंने यह किला छावनी के रूप में परिवर्तित कर दिया तथा किले का प्रबंधन  एक सूबेदार अब्दुल सामी को शॉप कर वापस दिल्ली आए थे । मैंने अपने किसी लेख में लिखा था कि दक्कन का प्रवेश द्वार दिल्ली से महाकौशल प्रांत होते हुए बहुत सहज एवं बाधा हीन रहा है किंतु गोंडवाना साम्राज्य की कर्मठता और राष्ट्रप्रेम की बलिदानी भावना के आगे मुगल सम्राट अकबर का बस नहीं चल सका। क्योंकि मुसलमान आक्रमणकारियों एवं विदेशियों के लिए दक्षिण भारत जीतना हमेशा से ही उनका सपना रहा है वह 12 वीं शताब्दी वीं शताब्दी से ही इस कोशिश में लगे हुए थे। अतः बार बार कोशिशों के बाद इस किले पर कब्जा करना उनके लिए आसान हो गया।
औरंगजेब का इस किले से गहरा नाता है औरंगजेब जब दक्षिण विजय से भारत का शहंशाह बनना चाहता था तब वह लौटकर इस किले का भी विजेता बन गया यह घटना 1558 से 1559 के मध्य की है। कहते हैं कि युद्ध से लौटने के बाद  उसने अपने पिता शाहजहां आगरा में बंदी बनाया  और खुद शासक बन बैठा। यह कहना सर्वथा गलत है कि औरंगजेब ने मंदिरों का उद्धार किया है। असीरगढ़ के किले कि तलछट पर दीवार में बने आशापुरा माता की प्रतिमा पर उसने किसी भी तरह की कोई धार्मिक सहिष्णुता नहीं प्रदर्शित की ना ही वहां के लिए पहुंच मार्ग विकसित किया। बल्कि यह कहा जाता है कि मुगल सेना के लिए किले के ऊपरी भाग में मस्जिद का निर्माण अवश्य कराया। यह इस किले का सौभाग्य ही था कि किले में स्थित शिव प्रतिमा का विखंडन एवं मंदिर का विलीनीकरण औरंगजेब नहीं कर पाया।
आदिलशाह जो 17वीं शताब्दी में अकबर के अधीन हो चुका था ने यह किला अर्थात असीरगढ़ का किला अकबर को सहर्ष सौंप दिया था।
     कुल मिलाकर इस किले का ज्ञात इतिहास ईसा के बाद 9 वीं शताब्दी से मिलता है।
   इस किले पर मौजूद मंदिर मस्जिद चर्च अवशेष यह बताते हैं कि निश्चित रूप में यह किला विभिन्न राजसत्ताओं के अधीन रहा है ।
      परंतु दीवार पर मां आशापूर्णा देवी का स्थान हम नार्मदीय ब्राह्मण के वत्स गोत्रियों बिल्लोरे, शकरगाएं, सोहनी और शर्मा कुलों की कुलदेवी इस किले के आधार तल पर स्थान विराजमान हैं ।
  यह कहा जाता है कि नार्मदेय ब्राम्हण समाज ने अपने अस्तित्व के साथ अपनी कुलदेवी के स्थान को गुजरात के कच्छ क्षेत्र से मध्य प्रदेश के बुरहानपुर में स्थापित किया। ये वच्छ गोत्रीय नार्मदीय ब्राह्मण थे । सौभाग्य से इसी कुल में मेरा भी जन्म हुआ है।
   अधिकांश पाठक स्वर्गीय शरद बिल्लोरे  को जानते हैं । वह मेरे कुल गोत्र के ही सदस्य थे। उनके सबसे बड़े भाई श्री शैलेंद्र श्री अशोक उसके बाद श्री शरद श्री शिव अनुज और सबसे छोटे भाई सुरेंद्र जी है हरदा तहसील के रहटगांव में रहने वाले इस परिवार की बड़ी बहू को बार-बार स्वप्न में तथा एहसास में आशापूर्णा देवी ने आदेशित किया कि मेरा निवास स्थान असीरगढ़ किले की दीवार पर है वहां मेरे सभी बच्चों का आना जाना सुनिश्चित किया जाए। सभी भाइयों को जब यह बात बताई गई तो यह तय किया गया कि प्रत्येक 25 दिसंबर को वहां जाकर सह गोरियों को इकट्ठा किया जावे तदुपरांत वर्ष 1996 से यह प्रक्रिया प्रारंभ कर दी गई तब से अब तक हजारों की संख्या में वच्छ गोत्रियों का समागम वहां होता है। वर्ष 2020 में यह पूजा अति संक्षिप्त कर दी गई थी कोविड-19 के कारण परंतु सामान्य समय में बिल्लोरे सोहनी,शकरगाए, शर्मा, सरनेम वाले नार्मदीय ब्राह्मणों का समागम होता है। वच्छ गोत्रीय  चाहे वे विश्व के किसी भी कोने में क्यों ना रहे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सामूहिक पूजन एवं भंडारे का हिस्सा बनते हैं।
    नार्मदीय-ब्राह्मण समाज के विभिन्न लोगों का मध्य प्रदेश में आगमन हुआ तब उन्हें अपनी कुलदेवी के लिए उचित स्थान की जरूरत थी कहते हैं । इससे यह भी सिद्ध होता है कि हम रामायण काल में मध्य प्रदेश यानी मध्य भारत में नर्मदा के तट पर आ चुके थे। राजा मांधाता ने हमारे पूर्वज युवा बटुकों को राजाश्रय तथा हमें यज्ञ आदि कर्म के योग्य बनाया। यज्ञी या यज्जी नारमदेव जो नार्मदीय ब्राह्मणों का अपभ्रंश है विवाह भी राजा मांधाता ने कराया ऐसी श्रुति का मुझे ज्ञान है।
आप सब जानते ही हैं कि आदिकाल से भारतीय कौटुंबिक व्यवस्था में  एक कुलदेवी को पूजने की परंपरा की परंपरा है। इससे यह सिद्ध होता है कि हर कुल अपनी परंपराओं को अपनी कुलदेवी की निष्ठा के साथ पूजा करते हुए आने वाली पीढ़ी को यह बताता है कि आप किस कुल से संबद्ध हैं।

हमारी कुलदेवी का मूल स्थान गुजरात में कच्छ क्षेत्र में स्थित है। अपने चुनावी मुहिम के दौरान भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी गुजरात के इस मंदिर में जाकर माथा टेक चुके हैं।
कथा एवं श्रुतियों के मुताबिक-" गुरु द्रोणाचार्य के पुत्र आज भी भारत में अमर है और भटक रहे हैं इसके प्रमाण के रूप में यह माना जाता है कि वे रात्रि में असीरगढ़ के किले में उपस्थित होकर शिव के मंदिर में पूजा करते हैं और एक गुलाब का फूल भी चढ़ाते हैं। सामान्यतः शिव पर अर्पित करने वाले पुष्प सफेद होते हैं किंतु असीरगढ़ किले में चढ़ाए जाने फूलों में पीले फूल धतूरा पुष्प रक्त गुलाब होता है।
2015 से अब तक स्थानीय लोगों के संस्मरण
वर्ष 2015 से वर्तमान में स्थानीय लोग क्रम से है अज्जू बलराम रामप्रकाश बिरराय आदि ने अद्भुत प्राणी जिसे वे अश्वत्थामा मानते हैं से मिलने का जिक्र किया है। पाला नामक बुजुर्ग कहते हैं कि वे लकवा ग्रस्त तभी हुए हैं जब उनकी मुलाकात अश्वत्थामा की हुई। 1984 के मीडिया कटनी से बात करते हुए राम प्रकाश ने मीडिया कर्मी को बताया कि कुछ अजीबोगरीब पैरों के
निशान यहां देखे गए हैं।
  अभी हमारे संज्ञान में मात्र इतनी ही तथ्य आ सके हैं। 
*कुलदेवी मां आशापुरा देवी को समर्पित इस आर्टिकल बहाने हम यह कोशिश कर रहे थे यह हमने कब आशापुरा माता को असीरगढ़ किले स्थापित किया अथवा कोई और लोग हैं जिन्होंने मां आशापुरा को गुजरात से यहां अर्थात असीरगढ़ किले में प्राण प्रतिष्ठित किया है। अगर यह ज्ञात होता कि हम माता के स्वरूप को स्थापित करने वाले हैं तो यह सुनिश्चित हो जाएगा  नार्मदीय ब्राम्हण मध्यप्रदेश में कब आए। वैसे राजा मांधाता  (6777BCE से 5577 BCE ) कालखंड में हम ओमकारेश्वर  रहे थे ।
परंतु यहां यह तथ्य उल्लेखनीय है कि- असीरगढ़ के किले का निर्माण महाभारत काल में हुआ। उसके उपरांत ही हम या अन्य कोई आशापूर्णा देवी की स्थापना कर पाए होंगे। वर्तमान में मैं कुलदेवी के आशीर्वाद से एक कृति का लेखन कर रहा हूं जिसमें सातवें मन्वंतर के 28वें चतुर्युग का वैज्ञानिक एवं ज्योतिषीय गणना के आधार पर कालखंड निर्धारित किया जा रहा है। इससे यह साबित कर पाएंगे कि 4.567 करोड़ वर्ष पूर्व बनी इस पृथ्वी में भारत का निर्माण कब हुआ और युगों की अवधारणा क्या है। इसमें अब तक ज्ञात स्थिति के अनुसार मनु का कालखंड 14500 से 11200 ईसा पूर्व रहा है। वेदों की रचना 11500 से 10500 ईसा पूर्व में हुई है। जबकि उपनिषद संहिता ब्राह्मण अरण्यक इत्यादि का निर्माण 10,500 से 6777 ईसवी पूर्व हुआ है। त्रेता युग की अवधि 6777 से 5577 ईसा पूर्व जबकि  राम रावण का युद्ध 5677 में संपन्न हुआ। द्वापर युग के संबंध में अपनी कृति में हमने 5577 से 3173 ईसा पूर्व का कालखंड निर्धारित करने का प्रयास किया है। और महाभारत का युद्ध 3162 ईसा पूर्व में संपन्न हुआ है।
इस रिसर्च का उद्देश्य केवल प्रजापिता ब्रह्मा मनु तथा वेदों के निर्माण काल के निर्धारण के अलावा राम  कृष्ण के अस्तित्व को प्रकाश में लाना। अगर हम किसी से भी पूछे के हमारा इतिहास कब से है तो उत्तर में हमें यह जानकारी मिलती है कि ईशा के ढाई हजार साल पूर्व से हमारी संस्कृति का उत्थान हुआ है। जबकि ऐसा नहीं है भारतीय संस्कृति का प्रवेश द्वार हम ईसा मसीह के 20000 वर्ष पूर्व निर्धारित करने की कोशिश कर रहे यह अकारण नहीं है यह सत्य भी है।

14.5.21

भारतीय साहित्यकारों ने भारतीय प्राचीन इतिहास के साथ न्याय नहीं किया : गिरीश बिल्लोरे मुकुल


पूज्यनीय राहुल सांकृत्यायन जी ने वोल्गा से गंगा तक कृति लिखी है । इस कृति का अध्ययन आपने किया होगा यदि नहीं किया तो अवश्य करने की कोशिश करें। इस कृति के अतिरिक्त एक अन्य कृति है परम पूज्य रामधारी सिंह दिनकर जी की जो संस्कृति के चार अध्याय के नाम से प्रकाशित है और यह दोनों कृतियां आयातित विचारक बेहद पसंद करते हैं और इनको पढ़ने के लिए प्रेरित भी करते हैं। इसी क्रम में मेरे हाथों में यह दोनों कृतियां युवावस्था में ही आ चुकी थी तब यह लाइब्रेरी में पढ़ी थी । इतिहास पर आधारित इन दोनों कृतियों के संबंध में स्पष्ट रूप से यह स्वीकारना होगा कि-"साहित्यकार अगर किसी इतिहास पर कोई फिक्सन या  विवरण कहानी के रूप में लिखना चाहते हैं तो उन्हें कथा समय का विशेष रूप से ध्यान रखना चाहिए।  कृति  वोल्गा से गंगा तक में 6000 हजार ईसा पूर्व से 3500 ईसा पूर्व  की अवधि में भारतीय वेदों की रचना सामाजिक विकास विस्तार सांस्कृतिक परिवर्तन सब कुछ कॉकटेल के रूप में रखने की कोशिश की है। उद्देश्य एकमात्र है मैक्स मूलर द्वारा भारत के संदर्भ में इतिहास की टाइमलाइन सेटिंग को  ईसा 6000 से 3500 साल पूर्व  सेट करना है
।" साहित्यकार को ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर लिखने के पूर्व टाइमलाइन के संदर्भ में सतर्क और सजग रहना चाहिए। पूजनीय राहुल सांकृत्यायन जी से असहमति के साथ कृति पर चिंतन का आग्रह है । ]
        राहुल संस्कृतम् वोल्गा से गंगा तक मैं अपनी पहली कहानी निशा शीर्षक से लिखते हैं। और वे अपनी इस कहानी के माध्यम से करना चाहते हैं की ईशा के 6000 साल पहले मानव छोटे-छोटे कबीले में रहता था। वोल्गा नदी के ऊपरी तट पर निशा नामक महिला के प्रभुत्व वाला परिवार रहता था जिसमें 16 सदस्य थे वह एक गुफा में रहते थे। महिला प्रधान कबीले में प्रजनन की प्रक्रिया को डिस्क्राइब भी करते हैं। वोल्गा से गंगा तक की संपूर्ण कहानियां 6000 ईसा पूर्व से शुरू होती है दूसरी कथा दिवा नाम से लिखते हुए उसका कालखंड ईसा के 3500 साल पहले   निर्धारण करते हुए फुटनोट में व्यक्त करते हैं -" आज से सवा दो सौ पीढ़ी पहले आर्य जन की कहानी होने का दावा करते हैं तथा यह कहते हैं कि उस वक्त भारत ईरान और रूस की श्वेत जातियां एक ही जाती थी जिसे हिंदी स्लाव या शत वंश कहा गया है। यह कहानी प्रथम कहानी निशा से एकदम ढाई हजार वर्ष के बाद की कहानी है। और इसे वे आर्य कहते हैं । इस कहानी का शीर्षक दिवा है। जो रोचना परिवार की वंशिका के रूप में समझ में आती है। इस कहानी में दिवा को जन नायिका के रूप में दर्शाया गया है। तथा आर्य जन का विकास प्रमाणित करने की चेष्टा की है। और वे अर्थात राहुल सांकृत्यायन इस कहानी में यह कहते हैं कि अग्नि पूजा आर्य जन अब समिति के माध्यम से प्रबंधन करना सीख गए थे। निशा जन और और उषा जन नामक दो व्यवस्थाओं के संबंध में चर्चा की गई है। दोनों व्यवस्थाएं अपने-अपने शिकार के लिए निर्धारित क्षेत्र के रक्षण व्यवस्थापन और प्रबंधन के जिम्मेदार होते। उषा जन से निशा जन की शक्ति दुगनी थी ऐसा इस कथा में वर्णित किया गया है। कहानी में एक और समूह का जिक्र होता है जिसे कुरु जन के रूप में संबोधित किया गया है। कुल मिलाकर राहुल सांकृत्यायन साहब अपनी कृति वोल्गा से गंगा में पर्शिया रूस और भारत को एक विशाल भूखंड के रूप में प्रदर्शित करते हैं तथा इसमें जनतंत्र की व्यवस्था को वर्णित करते हैं। अपनी एक करनी कहानी अमृताशव में  सेंट्रल एशिया पामीर (उत्तर कुरु), कथा जाति हिंदी एवं ईरानी के रूप में प्रस्तुत करते हुए इसे ईसा के 3000 साल पूर्व का कथानक मानते हैं और यही वे यह घोषित करते हैं कि आर्यजन इसी अवधि में भारत में आए थे। इस कालखंड को भी कृषि एवं तांबे के प्रयोग का युग कहते हैं। ईसा के 2000 वर्ष पूर्व के कथानक पुरुधान नामक कथानक में स्वाद के ऊपरी हिस्से की कहानी लिखते लिखते हुए यह सिद्ध करने का प्रयास कर रहे हैं थी भारतीय मूल के लोग आर्यों से युद्ध करते हैं और यही देवासुर संग्राम है। अगर इस कृतिका फुटनोट देखा जाए तो राहुल संस्कृतम् जी कहते हैं कि आज से 108 पीढ़ी आर्य (देव) असुर संघर्ष हुआ था उसी की यह कहानी है आर्यों के पहाड़ी समाज में दासता स्वीकृत नहीं हुई थी। तांबे पीतल के हथियारों और व्यापार का जोर बढ़ चला था।
    अपनी अगली कहानी अंगिरा का कालखंड अट्ठारह सौ ईसा पूर्व हिंदी आज मैं गांधार अर्थात तक्षशिला क्षेत्र का विवरण कथानक में प्रस्तुत किया जाता है। सातवीं कहानी सुदास में वे 15 100 ईसा पूर्व गुरु पंचाल वैदिक आर्य जाति का उल्लेख करते हैं। और इसी कालखंड को वेद रचना का कालखंड निरूपित करते हैं। प्रवासन नामक कथा में पंचाल प्रदेश के 700 ईसा पूर्व का विवरण अंकित करते हुए उपनिषदों की रचना का कालखंड निरूपित करते हैं।
   इस तरह से बड़ी चतुराई के साथ लेखक ने रामायण एवं महाभारत काल वेदों के सही काल निर्धारण वेदों के वर्गीकरण के काल निर्धारण तथा आर्यों के भारत आगमन को प्रमुखता से उल्लेखित करने की कोशिश की है।
     ऐसी कहानियां जो इस उद्देश्य के लिए लिखी गई हो जिससे एक ऐसे नैरेटिव का विकास हो जो सत्यता से परे है इसे सिरे से खारिज भी नहीं किया जा सकता अतः इसे प्रमाणित करके ही समाप्त किया जा सकता है। यहां राहुल सांकृत्यायन जी की भी अपनी मजबूरियां है। वे यह कहना चाह रहे थे कि जो मैक्स मूलर ने सीमा निर्धारण कर लिया है उससे हुए आगे नहीं जाएंगे। तथा आर्यों को भारत में प्रवेश दिला कर ही भारत का प्राचीन इतिहास पूर्ण होता है ऐसा उनका मानना है। परंतु इससे भारतीय ऐतिहासिक बिंदु एवं सामाजिक सांस्कृतिक विकास पर जो नकारात्मक प्रभाव पड़ा है वह चिंतन की दिशा को मोड़ कर रख देता है। केंद्रीय कारागार हजारीबाग 23 जून 1942 में प्रथम संस्करण प्राक्कथन में राहुल जी का कथन स्पष्ट रूप से यह दर्शाता है कि वे मैक्स मूलर के पद चिन्हों पर चल रहे हैं। साथ ही राहुल जी बंधुल मल्ल अर्थात बुध के काल पर सिंह सेनापति उपन्यास का उल्लेख करते हैं।
  मैं यह नहीं कहता कि आप संस्कृति के चार अध्याय और वोल्गा से गंगा तक के कथानक उनसे या विवरणों से परिचित ना हो। अध्ययन तो करना चाहिए परंतु अध्ययन कैसा करना चाहिए इसे समझने की जरूरत है। यह दोनों कृतियां मुझे शुरू से खटकती हैं। कृतियों की विषय वस्तु पर असहमति का आधार है काल खंड का निर्धारण । और फिर मैक्स मूलर सहित पश्चिमी विद्वानों से तत्कालीन साहित्यकारों की अंधाधुंध सहमति। वास्तव में देखा जाए तो इतिहास की विषय वस्तु को साहित्यकार को केवल तब स्पर्श करना चाहिए जबकि उसके कालखंड का उसे सटीक अथवा समयावधि का कुछ आगे पीछे का ज्ञान हो। अन्यथा कथा के रूप में कुछ भी लिखा जा सकता है उस पर किसी की भी कोई आपत्ति नहीं होती और ना भविष्य में होगी। यहां यह कहना बेहद जरूरी है कि -" ऐसी कृतियों से किसी भी राष्ट्र की ऐतिहासिक टाइमलाइन को पूरी तरह से नष्ट भ्रष्ट किया जा सकता है और यह हुआ भी है।"
भारत के प्राचीन इतिहास में भारतीय जन का निर्माण, सिंधु घाटी की सभ्यता तथा अन्य नदी घाटियों पर विकसित सामाजिक व्यवस्थाओं का विश्लेषण, आर्यों के द्वारा किए गए कार्य, भाषाएं जैसी प्राकृत ब्राह्मी संस्कृत का का निर्माण विकास सामाजिक एवं सांस्कृतिक विकास श्रुति परंपरा के अनुसार महान चरित्रों के अस्तित्व आदि पर विचार करना आवश्यक होता है।

गिरीश बिल्लोरे मुकुल

  

24.10.20

वीरांगना रानी चेन्नम्मा आलेख :- आनंद राणा जबलपुर

"जब तक तुम्हारी रानी की नसों में रक्त की एक भी बूंद है,कित्तूर को कोई नहीं ले सकता" - वीरांगना रानी चेन्नम्मा🙏"आईये अवतरण दिवस पर गर्व के साथ नमन करें.. भारत की प्रथम वीरांगना कित्तूर की रानी - चेन्नम्मा को जिन्होंने 11 दिन लगातार अंग्रेजों को पराजित किया और 12 वें अपने लोगों के ही धोखा देने से वो पराजित हुईं ..आईये जानते हैं कि वीरांगना रानी चेन्नम्मा का गौरवशाली इतिहास 🙏🙏
1. रानी चेन्नम्मा का परिचय-
रानी चेन्नम्मा भारत की स्वतंत्रता हेतु सक्रिय होनेवाली पहली वीरांगना थीं । सर्वथा अकेली होते हुए भी उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य पर दहशत जमाए रखी। अंग्रेंजों को भगाने में रानी चेन्नम्मा को सफलता तो नहीं मिली, किंतु ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध खड़ा होने हेतु रानी चेन्नम्मा ने अनेक स्त्रियों को प्रेरित किया। कर्नाटक के कित्तूर रियासत की वह वीरांगना चेन्नम्मा रानी थी। आज वह कित्तूर की रानी चेन्नम्मा के नामसे जानी जाती है। 
2.रानी चेन्नम्मा का बचपन-
रानी चेन्नम्मा का जन्म काकती गांव में (कर्नाटक के उत्तर बेलगांव के एक देहात में )23 अक्टूबर 1778 में  हुआ। बचपन से ही उसे घोड़े पर बैठना, तलवार चलाना तथा तीर चलाना इत्यादि का प्रशिक्षण प्राप्त हुआ । पूरे गांव में अपने वीरतापूर्ण कृत्यों के कारण से वह परिचित थी ।रानी चेन्नम्मा का विवाह कित्तूर के शासक मल्लसारजा देसाई से 15 वर्ष की आयु में हुआ । उनका विवाहोत्तर जीवन सन् 1816 में उनके पति की मृत्यु के पश्चात एक दुखभरी कहानी बनकर रह गया । उनका एक पुत्र  था, किंतु दुर्भाग्य उनका पीछा कर रहा था । सन् 1824 में उनके पुत्र ने अंतिम सांस ली, तथा उस अकेली को ब्रिटिश सत्ता से लड़ने हेतु छोड़कर कर चला गया ।
3.अंग्रेजों द्वारा व्यपगत की नीति के अंतर्गत रानी चेन्नम्मा की रियासत को ब्रिटिश साम्राज्य में मिलाने के लिए अल्टीमेटम दिया - कित्तूर रियासत धारवाड़ जिलाधिकारी के प्रशासन में आ गया ।चॅपलीन उस क्षेत्र के कमिश्नर थे । दोनों ने नए शासनकर्ता को नहीं माना, तथा सूचित किया कि कित्तूर को अंग्रेज़ों का शासन स्वीकार करना होगा ।
4..वीरांगना रानी चेन्नम्मा का अंग्रेज़ों के विरुद्ध युद्ध-
अंग्रेजों के मनमाने व्यवहार का रानी चेन्नम्मा तथा स्थानीय लोगों ने कडा विरोध किया । ठाकरे ने कित्तूर पर आक्रमण किया । इस युद्ध में कई ब्रिटिश सैनिकों के साथ ठाकरे मारा गया । एक छोटे शासक के हाथों अपमानजनक हार स्वीकार करना अंग्रेजों के लिए बड़ा कठिन था । उन्होंने मैसूर तथा सोलापुर से प्रचंड सेना लाकर उन्होंने कित्तूर को घेर लिया ।
रानी चेन्नम्मा ने युद्ध टालने का अंत तक प्रयास  किया, उसने चॅपलीन तथा बॉम्बे प्रेसिडेन्सी के गवर्नर से बातचीत की, जिनके प्रशासन में कित्तूर था । उसका कुछ परिणाम नहीं निकला ।आखिरकार परीक्षा की घड़ी आ ही गई और रानी चेन्नम्मा युद्ध की घोषणा कर दी । 12 दिनों तक पराक्रमी रानी तथा उनके सैनिकों ने उनके किले की रक्षा की, किंतु अपनी आदत के अनुसार इस बार भी देशद्रोहियों ने तोपों के बारुद में कीचड़ एवं गोबर भर दिया । 1824 में रानी की हार हुई ।उन्हे बंदी बनाकर जीवनभर के लिए बैलहोंगल के किले में रखा गया । रानी चेन्नम्मा ने अपने बचे हुए दिन पवित्र ग्रंथ पढने में तथा पूजा-पाठ करने में बिताए । सन् 1829 में उनकी मृत्यु हुई ।
कित्तूर की रानी चेन्नम्मा ब्रितानियों के विरुद्ध युद्ध भले ही न जीत सकी, किंतु विश्व के इतिहास में उनका नाम अजर अमर हो गया । कर्नाटक में उनका नाम शौर्य की देवी के रुप में बडे आदरपूर्वक लिया जाता है ।रानी चेन्नम्मा एक दिव्य चरित्र बन गई हैं । स्वतंत्रता आंदोलन में, जिस धैर्यसे उसने अंग्रेज़ों का विरोध किया, वह कई नाटक, लंबी कहानियां तथा गानों के लिए एक विषय बन गया । लोकगीत एवं लावनी गाने वाले जो पूरे क्षेत्र में घूमते थे,स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन में जोश भर देते थे ।
दुर्भाग्य देखिए कि तथाकथित वामपंथी इतिहासकारों और एक राजनैतिक दल विशेष के समर्थक परजीवी इतिहासकारों ने इतिहास लिखते समय - भारत की प्रथम वीरांगना कित्तूर की रानी चेन्नम्मा के स्वतंत्रता के लिए किए गए बलिदान को हाशिये में भी नहीं रखकर जो अपराध किया है उसका दंड उनको भुगतना ही पड़ेगा..परंतु अब हम लोग तो न्याय करें!.. पुनः वीरांगना रानी चेन्नम्मा के अवतरण दिवस पर शत् शत् नमन है 🙏 🙏 🙏 प्रेषक - डॉ आनंद सिंह राणा, इतिहास का एक विद्यार्थी, इतिहास संकलन समिति महाकोशल प्रांत 🙏🙏🙏🙏🙏

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