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सोमवार, दिसंबर 03, 2012

अछोर विस्तार पाने की ललक ने मुझे इंटरनेट का एडिक्ट बना दिया.

                       जितना  विस्तार पा रहा हूं उतना कमज़ोर और अकेला  होता जा रहा हूं. लोग समझ रहे हैं विश्व से बात कर रहा हूं मेरे दोस्त शिखर पर बैठे लोग हैं. अभिनेता, नेता, क्रेता, विक्रेता, उनके बीच मेरा स्थान है. देश में... न भाई मुझे पढ़ने देखने जानने वाले विश्व के कोने कोने में हैं. अपना फ़ेस हर साइट पर बुक करवा रहा हूं.. इस छोर से उस छोर तक यानी अछोर विस्तार पाने की ललक ने मुझे इंटरनेट का एडिक्ट बना दिया.
     ये आत्म-कथ्य है सोशल साइट्स से चिपके हर व्यक्ति की. जो इधर का माल उधर करने में लगा हैं. सोचिये कि इस तरह हम अपनी स्वयम की और कृत्रिम उर्ज़ा का इस तरह क्यों खर्च कर रहें हैं.
क्यों हम सामान्य जीवन से कट रहें हैं.?
     इस बात का पुख्ता ज़वाब मिलेगा   किशोर बेटे बेटी से जो रात दिन    नेट पर चैट का खेल खेला करते हैं. वास्तव में मनुष्य प्रजाति में    आभासी दुनिया के पीछे भागने का एक दुर्गुण हैं. अंतरजाल से उसका जुड़ाव  इसी का परिणाम है. मानवी दिमाग  कपोल कल्पनाओं गल्पों का अभूतपूर्व भंडार होता है. जिसमें वह स्वयम ही इन्वाल्व होता है. किसी अन्य का इन्वाल्वमेंट  वास्तविक रूप से उसे स्वीकार्य क़तई नहीं इन्हीं कपोल कल्पनाओं को आकार देता है अंतरजाल.
    आपको अपना बचपन याद है न .. आप परिकथाएं कितनी लुभातीं थीं तब और उसी व्योम में घूमता फ़िरता बचपन आज़ भी किसी चमत्कार के प्रति आपको आकृष्ट करता रहता है. यही आकर्षण खींचता है हमको अक्सर एक ऐसे व्योम की ओर जहां सब कुछ आभासी होता है.
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    आभासी व्योम के लोग केवल आभासी आकर्षण की वज़ह से एक दूसरे से जुड़ते हैं पर ज़ल्द ही विगत भी हो जाते हैं. मेरा नेट की सोशल साइटस पर दस हज़ार लोगों से संपर्क है. आपका और अधिक होगा. हम मित्र हैं पर वास्तव में जुड़ाव की बात करें तो कुछ ही लोगों से वास्तविक संबंध बन पाया है.(यहां उन लोगों को शामिल नहीं किया जा रहा जो भौतिक रूप से मित्र हैं या परिवार के सदस्य हैं.) पर अभी मेरी तलाश खत्म नहीं हुई. मुझ जैसे हज़ारों लोग यही सब कुछ कर रहे हैं. जिसका कोई अर्थ नहीं निकल रहा. अन्ना का आंदोलन भी इसी तरह का एक  प्रयोग था.  उसकी सफ़लता-असफ़लता पर यहां टिप्पणी ज़ायज़ नहीं बस एक बात कहना है कि-"हम जितना फ़ौरी तौर पर जुड़ते हैं उतना ही ज़ल्द दूरी भी बनाते हैं"
               यह कहना बेजा नहीं कि   हम फ़िज़ूल वक़्त जाया कर रहें हैं सोशल-साइट से जुड़ कर..!!
तो फ़िर क्या करें...?
                                               हमें नेट पर जो करता है वो है नेट का सही प्रयोग . बिना किसी फ़ैंटेसी से जुड़े हम अपना मौलिक चिंतन डालें किसी भी भाषा में, आकार में, यानी कुल मिला कर कूढ़ा-करकट न डाला जाए. नेट पर हिंदी सहित भारतीय भाषाओं के कंटैंट्स  की सबसे ज़्यादा ज़रूरत है. गर आप रचना धर्मीं हैं तो कौशल दिखाएं यहां.

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