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8.1.23

समाज सुधारक बनाम इंजीनियर मिस्त्री और चेला

पता नहीं समाज को सुधारने का ठेका सब ने क्यों ले लिया है।  सुधारना क्या है ,? 
   इस बारे में उन्हें विचार करना पड़ता है। कई विद्वान तो मुझे इंजीनियर लगते हैं कई विद्वान मैकेनिक लगते हैं और कई विद्वान मैकेनिक का हेल्पर लगते हैं। सब के पास एक ही ही धंधा है चलो समाज सुधार दें...!
   समाज सुधारना इतना आसान होता तो महात्मा बुद्ध के काल में ही सुधर जाता। पर महात्मा के विचार कहां तक जा पाए इसका सबको ज्ञान है, महात्मा बुद्ध के विचारों को सुना है अवेस्ता ने रास्ते में रोक लिया?
  एक बंधु को लगा की मूर्ति पूजा समाज की सबसे बड़ी बुराई है। भैया फिर क्या था..! काफिर कुफ्र जैसे शब्दों का इजाद कर दिया सर तन से जुदा करने की नसीहत दे डाली। तो कोई क्रूस लेकर मारने दौड़ा तो किसी ने जिहाद शुरू कर दिया। फिर भी समाज न सुधरा. बेचारे समाज सुधार को  अपने जीवन काल में इस समाज  को सुधारने की जिम्मेदारी ऊपर वाले ने दी। वैसे ऊपरवाला चाहे तो सीधे समाज सुधार सकता है पर उसने बहुत सारे मध्यस्थ क्यों भेजें हो सकता है कि -ऊपर वाले के पास कामकाज बहुत हो..?
चलो मान भी लिया कि जिम्मेदारी ऊपर वाले ने ही सौंपी होगी परंतु समाज है कि कभी नहीं सुधरा सुधरता भी कैसे समाज को सुधारने और सुधारने के लिए जिस मूल तत्व की जरूरत है उसे तो हम ताक में रख देते हैं। 
  मानता हूं कि बुद्ध ने ऐसा नहीं किया होगा। परंतु बुद्ध के बाद जितने भी बुद्ध बने या तो वे बुद्धू बन गए या बुद्धू बना दिए गए? विमर्श यह है कि दूसरों को सुधारने समझाने और समाज को सुधार देने का दावा करने का काम आजकल एक पेशेवर अंदाज में किया जाता है।
  महात्मा बोल चुके थे - "अप्प दीपो भव:..!"
   अगर सब दीपक बन जाते तो क्या बुराई थी? 
#सांख्य_दर्शन यही कहता है न....!
    चलिए मान भी लिया कि यह सब काल्पनिक है तब भी कथानकों ने भी तो समाज को नहीं सुधारा..! सुधारा क्या सुधारने की आकांक्षा समाज में है ही नहीं। 
 वेद लिखे गए उपनिषद लिखे गए बाद में पुराण फिर भी समाज ना सुधरा। असरानी मेरा प्रिय फिल्मी कलाकार है। असरानी ने फिल्म बनाई थी जिसका नाम था हम नहीं सुधरेंगे। फिल्म कितना पैसा बटोर पाई यह कहना तो मेरे लिए मुश्किल है परंतु समाज को सफल संदेश जरूर दे दिया।
   आज के विचारक तपस्वीयों को शत-शत नमन करता हूं जो बाद में तय करते हैं कि सुधारना क्या है। समाज ना हुआ कोई यंत्र हो गया पहले इंजीनियर देखेगा उसका एस्टीमेट बनाएगा (जैसा आजकल हो रहा है) मिस्त्री देखेगा फिर उस लड़के को बुलाएगा जो उसे उस्ताद उस्ताद कहकर फूला नहीं समाता।
   दिनभर समाज सुधार करके थका हारा समाज सुधारक इंजीनियर मिस्त्री और उसका चेला शाम को एक आध पेग ले लेता है तो क्या बुराई है?
बार-बार सब पाकिस्तान के प्रबंधन को कह रहे थे कि भस्मासुर से बचो पर पाकिस्तान के कान में जू न रेंगी..! पाकिस्तानी यह स्थापित कर दिया था कि अच्छे तालिबान और बुरे तालिबान यानी अच्छा आतंकवाद और बुरा आतंकवाद वैसे अच्छे आतंकवाद को स्वीकारना चाहिए। पश्चिम के पूरे देश यह मंत्र पसंद भी करने लगे थे कि एक चाय वाले ने बताया कि आतंकवाद आतंकवाद होता है इसमें अच्छे और बुरे का विश्लेषण कर अच्छे आतंकवाद को प्रश्रय देना अच्छी बात नहीं है जब तक समझाते तब तक 9/11 हो चुका था. मामला समाज सुधारने का ही है न? मुझे नहीं लगता कि यह मामला समाज सुधारने का होगा। यह यह तो वर्चस्व की लड़ाई है, सोवियत विखंडन का दर्द जब रूस के पुतिन भैया को महसूस हुआ तो यूक्रेन को निपटाने की कहानी कोई समाज सुधार पर आधारित नहीं है। पुतिन भैया को दुनिया अपने ढंग से चलानी है तो उधर उत्तर कोरिया का सम्राट विश्व को अपने जलवे दिखा कर छोटी-छोटी नजरों से दुनिया पर पड़ने वाले असर को देखता है। उसका बड़ा भैया शी जिनपिंग कम खुदा नहीं है भाई तो पूरे विश्व को अपने नक्शे में निकल जाना चाहता है।
चीन के बनाए हुए वायरस से दुनिया को जितना नुकसान हुआ उतना लाभ भी हुआ है । कोविड-19 के दौर में इतने महान लोग जो न कर सके आप सोच रहे होंगे मैं ऐसा क्यों कह रहा हूं?
उस समय एक महान विचार सभी लोगों के मन में आ चुका था पता नहीं कल क्या होगा। त्याग उत्सर्ग दान क्षमा दया करुणा की भावनाएं जिधर देखो उधर नजर आती थी। कोई भूखे मरते हुए कुत्तों की तीमारदारी में लगा था तो कोई गाय के लिए चारा बांट रहा था। कोई मुंबई से अपने गांव जाने वालों को चप्पल पहना रहा था तो कोई खाना खिला रहा था। इसे कहते हैं बदलाव शायद यह स्थिति एक दो साल और चल जाती तो यह तय हो गया था कि विश्व समाज बदल जाएगा। परंतु जैसे ही लॉकडाउन खत्म हुआ वैसे ही मानसिक स्थितियां बदली और फिर हम पुराने लटके झटकों के साथ जिंदगी जीने लगे।
   देखी अनदेखी आपदाओं से समाज सुधर जाता है। संकट में संबंध पवित्र हो जाते हैं। यह ब्रह्म सत्य का बोध आप अपने कोविड-19 वाले दिनों में समय यात्रा करके पुनः महसूस कर सकते हैं।
आत्म साक्षात्कार किए बिना दुनिया को सुधारने निकले लोगों की हालत उस बादल जैसी होती है जिसे यह पता नहीं होता कि उनके प्रयासों से होना जाना क्या है..? ना समाज बदलेगी ना व्यवस्था ना ही लोग बदलेंगे। पूरा विश्व चला था पाकिस्तान को सुधारने पूरा विश्व चाइना को सुधारने के उतारू है पर क्या कोई सफल हो सका है या होगा मुझे संदेह है।
  कुछ वस्तुओं में मैन्युफैक्चरिंग डिफेक्ट होता है इंजीनियर भी कुछ नहीं कर पाएगा मिस्त्री और उसका चेला भी कुछ नहीं कर सकता। अब आप पूछेंगे ऐसी कौन सी चीज है? हम बताते हैं न
1.सबसे पहले सत्ता पर काबिज होने की लालच 
2.समाज में वर्चस्व की स्थापना करने की उत्कंठा
3. अत्यंत महत्वाकांक्षा
4. और भेद की दृष्टि
   सुधारना यही है सुधरना भी इसे चाहिए समाज भी सुधर जाएगा प्रशासनिक स्वरूप भी सुधर जाएगा और जब यह सुधरेगा तो भारत का आर्थिक दृश्य भी सुधर जाएगा।
   सच मायनों में समाज सुधारक सीधे समाज को सुधारने लगते हैं अपने विचारों का पुलिंदा जबरिया सिर पर पटक के निकल जाते हैं। सांख्य दर्शन कहता है आत्मिक उत्कर्ष के लिए कोशिश की जाए पर लक्ष्य भौतिक है तो आध्यात्मिक विकास कैसे होगा? सच बताओ अगर आप अध्यात्म की बात करेंगे या आप कहेंगे अलख निरंजन ऐसी स्थिति में तुरंत आपको धर्म से बांध दिया जाएगा इतना जलील किया जाएगा कि आप बोल न सके आप सोचते हैं कि दूरी बनाई जाए बना लेते हैं यह सोच कर आप एक निरापद दूरी बना लेते हैं।
 इन दिनों में वैचारिक अत्याचार के खिलाफ झंडा उठाकर खड़े होने की जरूरत है। हमें समाज नहीं सुधर वाना उन लोगों से जो आयातित विचारधारा को लेकर भारत के मौलिक स्वरूप को बदलने के एजेंडे के साथ बदलाव चाहते हैं। ऐसे लोगों का सीधा तरीका होता है वर्ग बनाओ वर्ग के साथ हो रहे कहे अनकहे अत्याचार की व्याख्या करो फिर कुंठा के बीज बो दो और युद्ध करने दो।

31.3.14

ठाकुर सा’ब का कुत्ता........ जो आदमी की मौत मरा

फ़ोटो साभार "इधर से"
             

  साले कुत्ते की मौत मरेगा.. !, उसे तो कुत्ते की मौत मरना चाहिये... अक्सर ये कोसन-मंत्र का उच्चारण रोजिन्ना सुनाई देता है. पर अगरचे कोसने वाले लोग हमारे ठाकुर साब से मिले होते तो  साले कुत्ते की मौत मरेगा.. !, उसे तो कुत्ते की मौत मरना चाहिये..किंतु  ठाकुर साब के कुत्ते की मौत नहीं.कारण साफ़ है कि ठाकुर साब का कुत्ता कुत्ता न होकर उनका पारिवारिक सदस्य बन चुका था.  वज़ह ठाकुर साब न थे वरन ठकुराइन जी की पारखी आंखें थीं . ये अलहदा बात है कि ठाकुर साब को चुनने में उनकी आंखें धोका खा गईं थीं पर इसका दोष  ठकुराइन जी का न था ... ठाकुर साब का चुनाव पारिवारिक इंतखाब था वोटें इन्ही सु.प्र. ठाकुर को मिलीं. चलिये ठाकुर साब को छोड़िये कुत्ते पर आते हैं..
         "यूं तो वो देसी कुतिया एवम सरकारी अफ़सर के विदेशी कुत्ते के मिलन का परिणाम यानी अर्ध्ददेशी नस्ल का  किंतु  उसे जैकी नाम देकर उसका अंग्रेज़ीकरण किया जाना श्रीमति ठाकुर का ही काम रहा होगा वरना एक मेव स्वामी होने का एहसास उनको कैसे होता. ठाकुर साब को वे सुनते हो, ये, वो, हां..जी... सर्वनामों से सम्बोधित करतीं थीं किंतु जैकी को पूर्ण स्नेह के साथ जैकी का सम्बोधन कर बुलाने वाली ठकुराइन ने अपने बगल वाले कमरे में एक बिस्तर जैसा कि आमतौर पर किशोरवय संधि पर आने वाले बच्चों के लिये बड़े घरों में होता है लगवा दिया.   
जब  ठकुराइन जी जैकी को लाईं थीं तब एक पालना एन उनके बाजू में लगा था. ठाकुर साब की मज़ाल क्या कि वे इस अगाध स्नेहिल वातावरण में निमिष मात्र बाधा उत्पन्न करते 
एक दिन ...
ठकुराइन- ए जी, सुनते हो..?
ठाकुर साब - वो ही तो काम है मेरा.. बोलो !
ठकुराइन- जैकी अब बड़ा हो चला है.. 
ठाकुर साब -  तो ?
ठकुराइन- उसे बाजू वाले कमरे में रखूंगी तुम अब बैठक के पीछे वाले कमरे को ड्रिंक्स-रूम बना लो !
ठाकुर साब (बुदबुदाए ) जो आदेश, हमारी दशा कुत्ते से बदतर हो चली है अब.. 
ठकुराइन- क्या कहा... ?
ठाकुर साब- कुछ नहीं .. हम कह रहे थे आखिर कुत्ता भी तो प्राणी ही होता है.. बताओ युधिष्टिर महाराज उसे स्वर्ग तक ले गए थे.. भाईयों को छोड़ कर.. हम तुम्हारे जैकी को एक कमरा नहीं दे सकते क्या.. ?
                           अर्वाचीन प्रसंगों पर पुरातन प्रसंगों की पुनरावृत्ति से माहौल कुछ सामान्य हुआ वरना ठाकुर साब की फ़ज़ीहत तो तय थी. समय के साथ  उम्र जरावस्था की ओर ले जा रही थी सभी को ठाकुर साब भी बेहद गर्व महसूस करने लगे जैकी पर जब उनने सुना कि अस्थाना साब ने कहा है कि - हे प्रभू, अगला जन्म अगर कुत्ते का देना हो तो मुझे ठाकुर साब का कुत्ता बना. क्या ठाठ हैं भाई उसके..  !!-
ठाकुर साब बताते हैं कि अस्थाना साब का यह वक्तव्य उनकी उम्र में बढ़ा देता है..!! . 
************
आज़ अचानक ठाकुर साब मिले बोले- जबलपुर जाओगे ..?
हम- हां, चलोगे क्या आप भी...?
            ठाकुर साब हमारी आल्टो में लद गए जबलपुर वापस आने के लिये.  रास्ते में हमसे पूछने लगे कि भई पिछले महीने छुट्टी पे थे क्या ? दिखाई नहीं दिये.
हम बोले - जी भंडारी हास्पिटल में थे हम , निमोनिया हो गया था. 
          बस अस्पताल निमोनिया बीमारी का सूत्र पकड़ कर  ठाकुर साब के मुंह से एक लम्बी एम. पी. थ्री फ़ाइल चालू हो गई.. ठाकुर साब शुरु हो गये .. हमारा जैकी भी निमोनिया की वज़ह से प्रभू को प्यारा हुआ. 
हम- जैकी..?
ठाकुर साब- हां हमारा कुत्ता.. 
       और बिना इस बात की परवाह किये ठाकुर साब की   एम. पी. थ्री फ़ाइल चालू .वो सब सुनाया जो पहले भाग में हम आपको बता चुके हैं. फ़िर शहपुरा आते ही चाय पीकर और तरोताज़ा हो बताने  लगे कि - भाई जैकी के इलाज़ पर दो लाख रुपया खर्च हो गया
हम- जैकी..का इलाज़ दो लाख.. 
ठाकुर साब- हां भई हां दो लाख ...
       एक सन्नाटा कुछ देर के लिये पसरा हमने ड्रायवर को देखा वो मुंह झुकाए हंस रहा था हम ने खुद पे काबू पाया हम उनकी चुप्पी तुड़वाने के लिये मुंह खोल ही रहे थे कि श्रीमान जी बोले- यार बिल्लोरे, क्या रोग न था उसे.. हार्ट अटैक , सुगर, बी.पी. सब कुछ तो था. बाकायदा रात बिरात डाक्टर एक फ़ोन पे हाज़िर हो जाते थे . उसके हार्ट का  आपरेशन तक करा डाला ..अरे हां उसको मोतिआ बिंद भी था. लेकिन मरा वो निमोनिया.. से..!!
निमोनिया से...?
                             हां उसके कमरे का ए सी ज़रा हाई था. तुम्हारी भाभी बाहर गईं थीं. कोई घर पर न था वैसे भी वो बीमार चल रहा था. नौकर चाकर में इत्ती अकल कहां.. ए सी तेज़ कर दिया (मैं मन में सोच रहा था कि नौकर चाकर अक्लवान रहे होंगे  तभी तो ईर्ष्यावश ऐसा किया उनने  )   बस दूसरे दिन से जैकी लस्तपस्त तुम्हारी भाभी को फ़ोन लगाया उस वक्त वो दार्जलिंग में थीं. प्रायवेट एयर टेक्सी से भागी भागी आईं .. मैं उस वक्त जबलपुर न आ सका वापस सरकारी नौकर की दशा तो तुम जानते ही हो.. पंद्रह दिन इलाज़ चला पर निमोनिया के लिये उस वक्त ऐसे इलाज़ भी तो न थे अब बताओ तुम पंद्रह दिन में ठीक हो गए न.. ?
         जी में आया कि ठाकुर साब को गाड़ी के बाहर ढकेल दूं.. पर बात बदलते हुये हम बोले- सा, कुत्ता ही था न काहे इतना परेशान थे.. आप लोग..?
    क्यों न होते, वो तो किसी ऐरे-गैरे का कुत्ता तो न था..  सु.प्र. ठाकुर का था. जानते हो एक बार उसका दिल  एक हमारे बड़े बाबू की कुतिया पे आ गया.. मैडम समझ गईं बोलीं गुप्ता जी को समझा दो कि वो रानी को बांध के रखें. वो आज़कल अपने दरवाज़े चक्कर लगाती है जैकी भी कूं कूं कर बाहर भागने को करता है. जब गुप्ता जी की कुतिया की हरकतें ज़्यादा बढ़ने लगीं तो हमने   उनका तबादला कर दिया.जिले से बाहर . और सुनो उस कुत्ते की खासियत ये थी कि जब हम पति-पत्नि लड़ाई झगड़ा करते तो वो हमारी तरफ़ मुंह कर गुर्राया करता था. क्या मज़ाल कि हमारे घर में कोई मेहमान किचिन में घुस जाए. केवल महाराजन को बिना ठकुराइन के किचिन में घुसने देता था.  नौकर चाकर अगर तिनका भी फ़ैंकने जाएं तो जैकी को दिखाना ज़रूरी होता था. 
       जब वो मरा तो ठकुराइन की गोद में उसके लिये इंसानों की तरह कर्मकांड करवाया.. अंतिम संस्कार के बाद पूरी क्रियाएं छैमाह तक.. 
               इस बीच हम जबलपुर आ चुके थे ठाकुर साब को उनके बताए अड्डे पे उतारा और फ़िर आज़ तक सोच रहें हैं कि - जैकी के मरने के बाद अंतिम संस्कार करने वाले ठाकुर साब ने मुंडन कराया था कि नहीं.. या वे पितृपक्ष में उसके नाम की धूप डालते हैं कि नहीं. अगली बार फ़िर जैकी को लेकर ठाकुर साब को उकसाऊंगा. अनुत्तरित सवालो के ज़वाब ज़रूर मिलेंगे......... क्योंकि ठाकुर साब एक बड़ी लम्बी चटाई बिछाते हैं. कोशिश करूंगा कि वे गया जी जाकर कुत्ते का अंतिम श्राद्ध कर दें.    

25.5.13

भूमंडलीकरण के भयावह दौर और गदहे-गदही के संकट



भूमंडलीकरण के भयावह दौर में गधों की स्थिति बेहद नाज़ुक एवम चिंतनीय हो चुकी है . इस बात को लेकर समाज शास्त्री बेहद चिंतित हैं. उनको चिंतित होना भी चाहिये समाजशास्त्री चिंतित न होंगे तो संसद को चिंतित होना चाहिये. लोग भी अज़ीब हैं हर बात की ज़वाबदेही का ठीकरा सरकार के मत्थे फ़ोड़ने पे आमादा होने लगते हैं. मित्रो  -"ये...अच्छी बात नहीं..है..!"
सरकार का काम है देखना देखना और देखते रहना.. और फ़िर कभी खुद कभी प्रवक्ता के ज़रिये जनता के समक्ष यह निवेदित करना-"हमें देखना था , हमने देखा, हमें देखना है तो हम देख रहे हैं ".. यानी सारे काम देखने दिखाने में निपटाने का हुनर सरकार नामक संस्था में होता है. जी आप गलत समझे मैं सरकार अंकल की बात नहीं कर रहा हूं.. मै सरकार यानी गवर्नमेंट की बात कर रहा हूं. हो सकता है सरकार अंकल ऐसा कथन कहते हों पर यहां उनको बेवज़ह न घसीटा जाये. भई अब कोई बीच में बोले मेरी अभिव्यक्ति में बाधा न डाले.. रेडी एक दो तीन ......... हां, तो अब पढिये अर्र तुम फ़िर..! बैठो.... चुपचाप..  तुमाए काम की बात लिख रहा हूं..तुम हो कि जबरन .. चलो बैठो.. 
               
अब इनको  बैसाखीय सुख कहां मिलता है आज़कल ?
   हां  तो मित्रो मित्राणियो .. मैं कह रहा था कि  
भूमंडलीकरण के भयावह दौर में गधों की स्थिति बेहद नाज़ुक एवम चिंतनीय हो चुकी है . इस बात को लेकर समाज शास्त्री बेहद चिंतित हैं. चिंता का विषय है कि  गधों को अब सावन के सूर की तरह हरियाली ही हरियाली  नज़र आती है.. चारों ओर का नज़ारा एक दम ग्रीन नज़र आता है.. और आप सब जानते ही हैं कि बेचारे ग्रीनरी में सदा भूखे रह जाते हैं उनके अंग खाया-पिया कुछ भी नहीं लगता . जबकि उनको कम से कम बैसाख में तो उनके साथ इतना अत्याचार नहीं होना चाहिये.अब ज़रूरी है कि  सरकार इस ओर गम्भीरता से विचार करे ऐसा मत है समाज शास्त्रियों का. 

                            मित्रो आप को मेरी बात अटपटी लग रही है न .? तो ऐसे दृश्य की कल्पना कीजिये जिसमें आप सपत्नीक अपनी आंखों की हरियाई दृष्टि से अपने बच्चे को अच्छे स्कूल में दाखिला दिलाने खड़े  हों और स्कूल की फ़ीस इतनी ज़्यादा हो कि आपको गश आ जाये..  है न ..  आपकी आत्मकथा सी कहानी उस गधे की ..जिसे हरियाली दिखाई जाती है.. पर हासिल कुछ भी नहीं होता.. यहां तक की बैसाख में सूखी घास भी नहीं. 
                       अगर सरकार ने गधों के हितों के बारे में सोचना शुरु कर दिया तो  आपके बारे में कौन  सोचेगा..!
              सरकार करे  क्या करे,  सरकार के सामने कई सारी समस्याएं हैं जैसे सी ए जी , बी सी सी आई, थ्री जी चीनी  सैनिक पाकिस्तानी उधम बाज़ी, . और निपटने इच्छा शक्ति..सब को मालूम है
          और आप हो कि ये हल्की फ़ुल्की समस्या लेके सरकार के पास आ जाते हो.. स्कूल में दाखिला कराना आपका निर्णय है काहे सरकार को इत्ती बात में घसीटते हो भाई.   उसके पास न तो दाखिला फ़ीस कम कराने के कोई नियम हैं न ही क़िताबों के बोझ कम कराने के लिये कोई तदबीर. भारत को  विश्व के विकसित देशों के पासंग बैठना है तो सरकार को अपनी साइज़ तो कम करनी ही है.और आप हो कि सरकार को खींच खीच के बढ़ा रये हो.. 
              अब आप ही बताईये आपकी और आपके सहोदर की  पूरी पढाई जितनी रक़म में हो गई उससे दूनी तो आपके मुन्ने को एक क्लास में लग जाएगी. बेचारी सरकार सोचे क्यों ! डिसाइड आपने किया आप तय करो पैसा किधर से लाओगे 
             आप भी न अज़ीब बात करते हो सरकार को स्कूल कालेज़ की दाखिला फ़ी में सब्सिडी देना चाहिये.. हुर हुत्त.. कल आई पी एल की टिकट पर सब्सिडी की मांग करोगे. 
                      अरे हां रामदेव महाराज जी  एक बात याद आई आप स्विस से पैसा मंगाना चाह रहे थे न किसी से न कहियो एक तरीका बताय देता हूं.. आप की सुन ली जावे तो सरकार से आई.पी. एल. की कमाई को राज़कोष में जमा करने की मांग कर दैयो महाराज..
                          तब तक हम गधे और मनुष्य प्रजाति को समझाना जारी रखते हैं..
   हां तो मित्रो   सरकार को बड़ी समस्याओं के बारे में सोचने दो.. गधों और हमारे लोगों के  बारे में समाजशास्त्रीगण सोचेंगे. हालांकि दौनों के पास सिर्फ़ सोचने के अलावा कोई चारा नहीं है. पर बच्चन सुत महाराज बोलते थे टीवी पर  सोचने से आईडिये आते हैं और एकाध धांसू टाइप आईडिया आया कि आपकी और गधे की ज़िंदगी में भयंकर बदलाव आ जाएंगे.. ये बदलाव देश को क्या जींस तक को बदल देंगे आज़ आप लेविस की जींस पहन रहें हैं हो सकता है कल गधे जी..... हा हा 
छोड़ो भाई बताओ मज़ा आया कि नहीं.. नही आया तो पढ़ काय रये हो.. जाओ बाहर आई. पी एल चालू हो गया.. पट्टी लिखवा दो.. हा हा         

26.2.13

यहां चंदा मांगना मना है !

साभार नवभारत टाइम्स 
                      पिछले कई बरस से एक आदत लोगों में बदस्तूर देखी जा रही है. लोग हर कहीं चंदाखोरी ( बिलकुल हरामखोरी की तरह ) के लिये निकल पड़ते हैं. शाम तक जेब में उनके कुछ न कुछ ज़रूर होता है. भारत के छोटे-छोटे गांवों तक में इसे आसानी से देखा जा सकता है. 
               कुछ दिन पहले एक फ़ोन मिला हम पारिवारिक कारण से अपने कस्बा नुमा शहर से बाहर थे ट्रेन में होने की वज़ह से सिर्फ़ हमारे बीच मात्र हलो हैल्लो का आदान-प्रदान हो पा रहा था. श्रीमान जी बार बार इस गरज़ से फ़ोन दागे जा रहे थे कि शायद बात हो जावे .. क़रीबन बीसेक मिस्ड काल थे. डोढी के जलपान-गृह में रुके तो  फ़ुल सिगनल मिले तो हम ने उस व्यक्ति को कालबैक किया. हमें लग रहा था कि शायद बहुत ज़रूरी बात हो  सो सबसे पेश्तर हम उन्हीं को लगाए उधर से आवाज़ आई -भैया, आते हैं रुकिये.. भैया.! भैया..!! जे लो कोई बोल रहा है ?
कौन है रे..?
पता नईं कौन है.. 
ला इधर दे.. नाम भी नईं बताते ससुरे.......!
हल्लो...... 
जी गिरीश बोल रहा हूं.. नाम फ़ीड नहीं है क्या.. बताएं आपके बीस मिस्ड काल हैं.. 
                                                              सुनते ही श्रीमान कें मुंह में मानो लिरियागो सीरप  गिर गया उनके हिज्जे बड़े हो गये लगभग हक़लाले से लगे फ़िर  मासूम बनने की एक्टिंग कर बोले-  अरे सर ,माफ़ करना जी धूप में पढ़ने में नहीं आ पाया खैर मैंने फोन लगाया था !
हम- जी बताएं क्या सेवा करूँ ?
उधर से एक दन्त-निपोरित हंसी के साथ घुली आवाज़ सुनाई दी - सर, हमारे मंडल  के लोग सागर जाएंगे..
हम-  जाएं हमारी हार्दिक शुभकामनाएं
वो - धन्यवाद, .. आप एक गाड़ी का किराया दे देते ..?
     हमारे भाई साहब ने   कभी ऐसा हुक़्म नहीं दिया इस चंदाखोर ने क्या समझ रखा है. 
      हद हो गई अब इनकी   इनकी मंडली का झौआ भर कचरा सागर जाएगा  किराया हम दें .. बताओ भला जे कोई बात हुई..? आप भी सोच रहे हैं न यही सोचिये सोच ही पाएंगे कर कछु न पाएंगें !
    हम ने साफ़ तौर पे इंकार कर दिया. हम जब अवकाश से  वापस लौटे तो श्रीमान का एक लग्गूभग्गू हमारे दफ़्तर में आ धमका बोला - हज़ूर को खफ़ा कर दिया जानते हैं आप 
 तो...?
तो क्या... अब आप ही जानें 
                        तभी हमने अपने उस आस्तीन के सांप से पूछा जो दफ़्तर में हम कब आते हैं कब जाते हैं की खबर मुफ़्त मुहैया कराता है - प्रदेश में कितने जिल्ले हैं ..
कर्मचारी बोला - सर पचास... 
मैने उसे ही लक्ष्य कर कहा - हां, पूरे पचास... जिले हैं समझे रामबाबू....... 
कर्मचारी - जी , हज़ूर पूरे पचास... जिले हैं समझा अच्छे से 
 उधर लग्गू-भग्गू की हवा निकस गई.. बिना कुछ बोले निकल पड़ा 
               और फ़िर हमने एक पर्ची कम्प्यूटर से निकलवाई जिसमें लिखवाया   " यहां चंदा मांगना मना है !" और एन दफ़्तर के दुआरे  चस्पा करा  दी.अंत में हमारे इस तरह के असामाजिक आचरण से खफ़ा लोगों को विनम्र श्रृद्धांजली के साथ 














27.1.13

अक़्ल हर चीज़ को, इक ज़ुर्म बना देती है !


बापू आसाराम के बाद समाज शास्त्री  आशीष नंदी भाई सा के विचारों के आते ही खलबली मचती देख भाई कल्लू पेलवान को न जाने क्या हुआ  बोलने लगा : सरकार भी गज़ब है कई बार बोला कि भई मूं पे टेक्स लगा दो सुनतई नहीं.. 
हमने पूछा :- कहां बोला तुमने कल्लू भाई
कल्लू     :- पिछले हफ़्ते मिनिस्टर साब का पी.ए. मिला था, मुन्नापान भंडार में ..उनई को बोला रहा. कसम से बड़े भाई हम सही बोलते हैं. हैं न ?
            कल्लू को मालूम है कि काम किधर से कराना है कई लोग इत्ता भी नहीं जानते. कल्लू की बात सरकार तलक पहुंच गई होती तो पक्क़े में वक़्तव्यों के ज़रिये राजकोष में अकूत बढ़ोत्तरी होती. 
          इस विषय पर हमने कल्लू से बात होने के बाद  रिसर्च की तो पता चला पर्यावरण में वायु के साथ "वक्तव्य वायरस" का संक्रमण विस्तार ले रहा है.   आजकल बड़े बड़े लोग "वक्तव्य वायरस" की वज़ह से बकनू-बाय नामक बीमारी के शिक़ार हो रहे हैं.  इस बीमारी के  शिकार मीडिया के अत्यंत करीब रहने वाले सभा समारोह में भीड़ को देख कर आपा खोने वाले, खबरीले चैनल के कैमरों से घिरे व्यक्ति होते हैं. इस बीमारी के  रोगी को आप रोज़िन्ना देख सकते हैं. अखबार जिन खबरों में इन्वर्टेड कामा लगा कर  वर्ज़न लगाया करते हैं उन वर्ज़नों से आप रोगी को पहचान सकते हैं. यानी वर्ज़न से आप रोगी को पहचान सकते हैं. ऐसा नहीं है कि केवल वर्ज़न के ज़रिये बीमार पहचाने जाते हैं एक सा’ब ट्वीटर पर पहचाने गये थे, कुछ फ़ेसबुक पे, कुछेक प्रेस कांफ़्रेंस करके खुद को  बीमार होने की जानकारी  देते हैं . 
            दरअसल बीमार के सामने  माइक, कैमेरा, संवाददाता टाईप के लोग जब सामने आते हैं तो बीमारी इस कारण उभर आती है क्योंकि वे समझने लगते हैं कि उनके वक्तव्य से देश की स्थिति में सुधार आएगा. बस फ़िर क्या दिमाग से तेज़ जुबान चल पड़ती है. अब आशीष नंदी भाई सा को ही लीजिये बोलना कुछ था बोल कुछ गये. उनने सोचा भी न होगा कि फ़िसली ज़ुबां से बबंडर ऊगेगा. 
 नंदी जी बेचारे बहुत भोले और भले मानुष हैं.. क्या करें वे भूल गये कि आतंक और करप्शन दौनों ही ”गुणातीत’ है. इनको जाति,धर्म,वर्ग,सम्प्रदाय से जोड़ के देखना केवल एक नज़रिया हो सकता है न कि सचाई. 

        जन सामान्य में बीमारों की तलाश की गरज़ से  हमने एक हथकंडा अपनाया. हम अपने साथ एक कैमरामैन मित्र उमेश राठौर को लेकर एक पान की दूकान पे पंहुचे .  पहुंचते ही हमने अपने कैमराधारी मित्र को कुछ फ़ोटू उतारने की हिदायत दी. आस पास के लोग हमें पत्रकार समझ बैठे तत्काल हमसे सरकार और व्यवस्था के खिलाफ़ खासतौर पे नगर निगम के खिलाफ़ खुलकर बोले. इतना खुलकर कि खुद को याद न रहा कि क्या क्या बोले.  बार बार पिच्च से पान-तम्बाखू की पीक सड़क पे थूकते हुए श्रीमान जी का गंदगी पे   का भाषण तब तक जारी रहा जब तक कि हमने ये न पूछा कि-"भाई सा’ब, जे जो आप पीक थूके हैं इसे भी नगर निगम साफ़ नहीं कर पाएगी क्या..?" सवाल से भाई का मुंह मनमोहन साहब की तरह बंद हो गया. 
 बकनू-बाय नामक बीमारी लाइलाज़ बीमारी है. इस पर इलाज के लिये  रिसर्च के लिये सरकार को धन खर्चना चाहिये तब तक कल्लू भाई की सलाह मान कर मूं पर टेक्स की व्यवस्था इसी बज़ट में कर ली जाए तो अच्छा होगा. 
                            वैसे तो सारे विश्व में इस बीमारी का विस्तार देखा जा सकता है किंतु यह बीमारी भारतीय उपमहाद्वीप क्षेत्र में महामारी की तरह फ़ैली है. अब अच्छे भले  मिमियाते डायलाग डिलेवरी करते बेचारे शाहरुख की सार्वजनिक ज़िंदगी में पड़ोसी पाक़ ने ज़हर घोलने की नापाक़ हरक़त कर डाली. 
                 इस बीमारी के गम्भीर परिणाम होते हैं जो सारे समाज पर गहरा असर डालते हैं. इस बीमारी से वक़्तव्य वीरों को पनपने का अवसर मिलता है. वे भी कुकरमुत्तों की मानिंद ऊग आतें हैं. ऐसे मौकों पे गली गली आपको नुक्कड़ वार्ताओं से गर्मागर्म उष्माएं निकलते नज़र आएंगी. जो न बोला उसे जबलपुरिया भाषा में ” पुर्रा ” घोषित किया जाता है. बातों बातों में फ़सादों की सम्भावना बढ़ जाती है. कई आलमाईटी साहबान यानी डी.एम. साहब लोग आपत बैठकें आहूत कर निगरानी कराते हैं कि प्रतिक्रिया स्वरूप कोई बेज़ा हरक़त न कर दे और क़ानून व्यवस्था तार तार न हो जाए. 
         सारी बीमारी की जड़ है लोगों का अत्यधिक अक्ल वाला होना 
     अदम गोंडवी साहब बेहद  सटीक बात कही है 
            अक़्ल हर चीज़ को, इक ज़ुर्म बना देती है
             बेसबब सोचना, बे-सूद पशीमा होना ..!

   
       
           

9.1.13

फ़ुर्षोत्तम-जीव



किस किस को सोचिए किस किस को रोइए
आराम बड़ी चीज है ,मुंह ढँक के सोइए ....!!
"जीवन के सम्पूर्ण सत्य को अर्थों में संजोए इन पंक्ति के निर्माता को मेरा विनत प्रणाम ...!!''
साभार http://manojiofs.blogspot.in/2011/11/blog-post_26.html
साभार नभाटा 

आपको नहीं लगता कि जो लोग फुर्सत में रहने के आदि हैं वे परम पिता परमेश्वर का सानिध्य सहज ही पाए हुए होते हैं। ईश्वर से साक्षात्कार के लिए चाहिए तपस्या जैसी क्रिया उसके लिए ज़रूरी है वक़्त आज किसके पास है वक़्त पूरा समय प्रात: जागने से सोने तक जीवन भर हमारा दिमाग,शरीर,और दिल जाने किस गुन्ताड़े में बिजी होता है। परमपिता परमेश्वर से साक्षात्कार का समय किसके पास है...?
लेकिन कुछ लोगों के पास समय विपुल मात्रा में उपलब्ध होता है समाधिष्ठ होने का ।
इस के लिए आपको एक पौराणिक कथा सुनाता हूँ ध्यान से सुनिए
एकदा -नहीं वन्स अपान अ टाइम न ऐसे भी नहीं हाँ ऐसे

"कुछ दिनों पहले की ही बात है नए युग के सूत जी वन में अपने सद शिष्यों को जीवन के सार से परिचित करा रहे थे नेट पर विक्की पेडिया से सर्चित पाठ्य सामग्री के सन्दर्भों सहित जानकारी दे रहे थे " सो हुआ यूँ कि शौनकादी मुनियों ने पूछा -"हे ऋषिवर,इस कलयुग में का सारभूत तत्व क्या है.....?

ऋषिवर:-"फुर्सत"
मुनिगण:- "कैसे ?"
ऋषिवर :- फुरसत या फुर्सत जीवन का एक ऐसा तत्व है जिसकी तलाश में महाकवि गुलजार की व्यथा से आप परिचित ही हैं आपने उनके गीत "दिल ढूँढता फ़िर वही " का कईयों बार पाठ किया है .
मुनिगण:- हाँ,ऋषिवर सत्य है, तभी एक मुनि बोल पड़े "अर्थात पप्पू डांस इस वज़ह से नहीं कर सका क्योंकि उसे फुरसत नहीं मिली और लोगों ने उसे गा गाकर अपमानित किया जा रहा है ...?"
ऋषिवर:-"बड़े ही विपुल ज्ञान का भण्डार भरा है आपके मष्तिस्क में सत्य है फुर्सत के अभाव में पप्पू नृत्य न सीख सका और उसके नृत्य न सीखने के कारण यह गीत उपजा है संवेदन शील कवि की कलम से लेकिन ज्यों ही पप्पू को फुरसत मिलेगी डांस सीखेगा तथा हमेशा की तरह पप्पू पास हो जाएगा सब चीख चीख के कहेंगे कि-"पप्पू ....!! पास होगया ......"
मुनिगण:-ये अफसर प्रजाति के लोग फुरसत में मिलतें है .... अक्सर ...........?
ऋषिवर:-" हाँ, ये वे लोग हैं जिनको पूर्व जन्म के कर्मों के फलस्वरूप फुरसत का वर विधाता ने दिया है
मुनिगण:-"लेकिन इन लोगों की व्यस्तता के सम्बन्ध में भी काफी सुनने को मिलता है ?
ऋषिवर:-"इसे भ्रम कहा जा सकता है मुनिवर सच तो यह है कि इस प्रजाति के जीव व्यस्त होने का विज्ञापन कर फुरसत में होतें है, "
मुनिगण:-कैसे...? तनिक विस्तार से कहें ऋषिवर

ऋषिवर:-"भाई किससे मिलना है किससे नहीं कौन उपयोगी है कौन अनुपयोगी इस बात की सुविज्ञता के लिए इनको विधाता नें विशेष गुण दिया है वरदान स्वरुप इनकी घ्राण-शक्ति युधिष्ठिर के अनुचर से भी तीव्र होती है मुनिवर कक्ष के बाहर खडा द्वारपाल इनको जो कागज़ लाकर देता है उसे पड़कर नहीं सूंघ कर अनुमान लगातें हैं कि इस आगंतुक के लिए फुरसत के समय में से समय देना है या नहीं ? "
    मुनिगण बोले तो ऋषिवर, क्लर्क नामक जीव ही है जो सदैव व्यस्त दिखाई देता है. कार्यालयों में बहुधा..?
 ऋषिवर :- ये भी दृष्टि भ्रम है मुनियो, कुटिया की इस भित्ती पर देखो अभी मैं वेबकास्टिंग प्रणाली से एक दफ़्तर का चलचित्र प्रस्तुत करता हूं.. 
   मुनियों ने दीवारावलोकन प्रारम्भ किया, नट्टू मुनि लम्बू मुनि को लगभग डपट कर न हिलने की सलाह दे रहे थे भित्ती पर एक LED SCREEN अवतरित हुआ ऋषिवर ने हाथ में CPU को मंत्र शक्ति से उत्पन्न किया. दृश्य कुछ यूं था -
    "एक दफ़्तर में बाबू साब एक फ़ाईल की तलाशी में व्यस्त थे तभी अधिकारी का दूत आया बोला-"पुसऊ जी ...पुसऊ जी"
पुसऊ :- का है दिमाग न खाओ देखते नहीं ज़रूरी काम में लगा हूं..!
दूत :- "सा’ब, बुलाय रै हैं..."
पुसऊ :-हओ, बोल दो आत हैं, फ़ाईल निकाल के.. 
दूत :- हओ, जल्दी आईयो.. भोपाल से डाक आई है.. साब बोलत थे 
पुसऊ :- बोल दओ न कि आ रहे हैं .. भोपाल वारे जान लै लैं हैं का.. स्टाफ़ के नाम पै हम अकेले काम   
              झौआ भर . कहूं की फ़ाइल कहूं रख देत हो तुम .. हमाओ पूरो दिन फ़ाइल ढूड़त ढूड़त लग जात है.. फ़ुरसत कहां मिलत है इतै.. जो सा’ब भी एक पे एक ग्यारा .. हर कागज़ आतई टेर लगात है पुसऊ पुसऊ... 
ऋषिवर :- मुनिगण, ये   पुसऊ दिन भर में अफ़सर की मार्क की हुई डाक को सही फ़ाईल में नत्थी करता है एक भी कागज़ इधर के उधर न हो पाए उसका मूल कार्य दायित्व है. रोजिन्ना दफ़्तर में जब इसे फ़ुरसत मिलेगी तो पहली फ़ुरसत में हरे कव्हर वाली फ़ाईल निपटाता है. ये फ़ाईलें जानते हो कौन सी हैं..
मुनिगण अवाक थे तभी ऋषि बोले- "मुनियो, ये फ़ाईलें जेब और वातावरण को हरा भरा बनातीं हैं. इन फ़ाईलों पर फ़ुरसत से काम किया जाता है. बहुधा कार्यालय के बंद होने के बाद "
   यानी देश इसी तरह चलता है ऋषिवर ? मुनियों का सवाल था .
हां, देश चल कहां रहा है..? फ़ाईलों में बंद है जैसे परसाई दादा वाले भोला राम का जीव . 
मुनिगण :- तो महाराज ये देश चल कैसे रहा है..?
ऋषिवर :- यही वो सवाल है जिसके उत्तर आपको परमेश्वर के अस्तित्व का एहसास होगा  ?
मुनिगण :- यानी गुरुदेव..?
 ऋषिवर :- यानी भारत को केवल भगवान पर भरोसा है सच भी यही है जो भी चल रहा है सब उसके भरोसे ही तो चल रहा है..    
मुनिगण:-वाह गुरुदेव वाह आपने तो परम ज्ञान दे ही दिया ये बताएं कि क्या कोई फुरसत में रहने के रास्ते खोज लेता है सहजता से ...?
कुछ ही क्षणों उपरांत सारे मुनि कोई न कोई बहाना बना के सटक लिए फुरसत पा गए और बन गए ""फ़ुरुषोत्तम -जीव "
गुरुदेव सूत जी ने एकांत में मुनियों से फुरसत पा कर वृक्षों को जो कहा वो कुछ इस तरह था
फुर्सत और उत्तम शब्द के संयोजन से प्रसूता यह शब्द आत्म कल्याण के लिए बेहद आवश्यक और तात्विक-अर्थ लेकर धरातल पर जन्मां है   इस शब्द का जन्मदिन जो नर नारी पूरी फुर्सत से मनाएंगें वे स्वर्ग में सीधे इन्द्र के बगल वाली कुर्सी पर विराजेंगे । इस पर शिवानन्द स्वामी एक आरती तैयार करने जा रहें हैं आप यदि कवि गुन से लबालब हैं तो आरती लिख लीजिए अंत में लिखना ज़रूरी होगा : कहत "शिवानन्द स्वामी जपत हरा हर स्वामी " पंक्ति का होना ज़रूरी है।


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धर्म और संप्रदाय

What is the difference The between Dharm & Religion ?     English language has its own compulsions.. This language has a lot of difficu...