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शुक्रवार, दिसंबर 07, 2012

उफ ! ये चुगलखोरियाँ


साभार : गूगल


मुझे उन चुगली पसन्द लोगों से भले वो जानवर लगतें हैं, जो चुगलखोरी के शगल से खुद को बचा लेते हैं। इसके बदले वे जुगाली करते हैं। अपने आप को श्रेष्ठ साबित करने वालों को आप किसी तरह की सजा दें न दें कृपया उनके सामने केवल ऐसे जानवरों की तारीफ जरूर कीजिये। कम-से-कम इंसानी नस्ल किसी बहाने तो सुधर जाए। आप सोच रहे होंगें, मैं भी किसी की चुगली कर रहा हूँ, सो सच है परन्तु अर्ध-सत्य है !
मैं तो ये चुगली करने वालों की नस्ल से चुगली के समूल विनिष्टीकरण की दिशा में किया गया एक प्रयास करने में जुटा हूँ। अगर मैं किसी का नाम लेकर कुछ कहूँ तो चुगली समझिये। यहाँ उन कान से देखने वाले लोगों को भी जीते जी श्रद्धांजलि अर्पित करना चाहूँगा जो गांधारी बन पति धृतराष्ट्र का अनुकरण करते हुए आज भी अपनी आँखे पट्टी से बांध के कौरवों का पालन-पोषण कर रहें हैं। सचमुच उनकी ''चतुरी जिन्दगी`` में मेरा कोई हस्तक्षेप कतई नहीं है और होना भी नहीं चाहिए ! पर एक फिल्म की कल्पना कीजिए, जिसमें विलेन नहीं हो, हुजूर फिल्म को कौन फिल्म मानेगा ? अपने आप को हीरो-साबित करने के लिए मुझे या मुझ जैसों को विलेन बना के पहले पेश करते हैं। फिर अपनी जोधागिरी का एकाध नमूना बताते हुये यश अर्जित करने के मरे जाते हैं।

ऐसा हर जगह हो रहा है हम-आप में ऐसे अर्जुनों की तलाश है, जो सटीक एवं समय पे निशाना साधे हमें चुगलखोरी को दुनियां से नेस्तनाबूत जो करना है आईए हम सब एकजुट हो जाएँ- इन चुगलखोरों के खिलाफ!
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चुगली` का बीजारोपण माँ-बाप करते हैं- अपनी औलादों में बचपने से-एक उदाहरण देखें, ''क्यों बिटिया, शर्मा आंटी के घर गई थी``?
 ''हाँ मम्मी शर्मा आंटी के घर कोई अंकल बैठे थे``
अब 'अंकल और शर्मा आंटी` के रिलेशन्स को फ्रायडी-विजन से देखती मैडम अपनी पुत्री से और अधिक जानकारी जुटाने प्रेरित किया जाओ अंकल का इतिहास, उनकी नागरिकता, उनका भूगोल पता लगाओ और यहीं से शुरू होता है चुगलखोरी का पहला पाठ। इसमें केवल माँ ही उत्तरदायित्व निभाती है- ये  एक अर्द्धसत्य है। पूर्ण सत्य यह है कि ''चुगलखोरी के कीड़े के वाहक पिता भी हुआ करते हैं``
हमें ''पल्स पोलियो`` अभियानों की तरह ''चुगलखोरी उन्मूलन अभियान`` चलाने चाहिए।
शासकीय कार्यालयों में इस अभियान के चलाने की बेहद जरूरत है।
मेरे दृष्टिकोण से आप सभी एकजुट होकर इस राष्ट्रीय अभियान को अपना लीजिए। अभियान के लिये-उन एन.जी.ओ. का सहयोग जुटाना न भूलें, जो अपने संगठनों के कार्यो की श्रेष्ठता सिद्ध करने दूसरों की (विशेषकर सरकारी सिस्टम की) चुगली करते हर फोरम पे नज़र आते हैं।  मित्रों! साहित्य, संस्कृति, कला, व्यापार, रोजिया चैनल, आदि सभी क्षेत्रों को लक्ष्य बनाकर हमें चुगली से निज़ात पानी है। और हाँ जो चुगलियाँ गाँव से शहर के दफ्तरों में साहबों के पास लाई जातीं हैं। उनके वाहक भी हमारे प्रमुख लक्ष्य होने चाहिए। जैसे  मेरे दफ्त़र में आकर चुगली करने वाला पवित्र धवल लिबास में आया गले में एक गमछा डाले था रंग न बताऊंगा वरना पार्टी वाले समझ जाएंगे तो मित्रो  वो व्यक्ति मुझे अच्छी तरह याद है, जो मेरे मातहत गाँव में काम करने वाली कर्मचारी से रूष्ट था। स्वयं गाँव का भ्रमण करने पर पाया कि उस चुगलखोर के अलावा   सारा गांव उस विधवा महिला को देवी की तरह पूजता है और यही जनविश्वास  उसकी चुगली का मूल कारण था । कारण जो भी हो- चुगली एक खतरनाक रोग है। यदि इसे आप पनपने नहीं देना चाहते ''एण्टी-चुगली-ड्राप`` की दो बूंदे  उस  अवश्य देनी होगी।

कैसे पिलाएँ एंटी चुगली ड्राप की दो बूंदे-''सबसे पहले लक्ष्य को पहचानें, उसे कांफिडेन्स में लें`` और उसका मुँह खुलवाएँ। बेहतर ढंग से सुने। जिसकी चुगली की जा रही है-उसे उसके सामने ले आएँ। फिर हौले से चुगलखोर की कही बातों में से दो बातें बूँदों की तरह सार्वजनिक करने की शुरूआत करें।``
इससे चुगलखोर के वस्त्र स्वयम् ही ढीले पड़ने लगेंगें। हाथ पाँव का फूलना, सर झुका लेना, माथा पकड़ना या हड़बड़ाकर ''हाँ...हाँ...हाँ....नहीं...नहीं..`` की रट लगाना बीमारी की समाप्ति के सहज लक्षण होते हैं।
                  मित्रों, दफ्तरों में, बैठकों में, फोरमस् में, इस प्रयोग को करने से बड़े-बड़े की चुगलखोरों की चुगलखोरी का अंत सहज ही हो जाता है। चुगली कमीने पन ग्रुप का रोगाणु है, जिसने कईयों को तख्त से उठा फेंका है। इसका वाहक बेहद मीठा, आकर्षक, प्रभावशाली व्यतित्व वाली मानवीय काया का धारक हो सकता है। चुगली को कानूनी जामा भी पहनाया जाता है. खासकर तब जब प्रमोशन वगैरा का प्रोसेस चल रहा हो. ताक़ि प्रतिस्पर्धी सफ़ल न हो पाए. 
        सियासत का तो मूलाधार है चुगलखोरी  जहाँ सौभाग्यशाली लोगों को ही इससे बच सकने का मौका मिलता है। क़मोबेस सभी इस ''चुगली`` के शिकार हो ही जाते हैं। उधर समाजी रिवायतों की तो मत पूछिए - ''चुगली के बिना संबंध बनते ही नहीं। रहा तंत्र का सवाल सो - ''चुगली को शासन के हित में जारी सूचना की शक्ल में पेश करने वाले अधिकारी कर्मचारी, सफल एवं श्रेष्ठ समझे जाते हैं।
यशभारत : 09/12/2012

सुधिजनों, अगर एक बार हिम्मत दिखा दी जावे तो सैकड़ों चुगली से प्रभावित ''जीव`` सुरक्षित हो जाऐगें।

रविवार, मई 27, 2012

एक वसीयत : अंतिम यात्रा में चुगलखोरों को मत आने देना

साभार in.com
एक बार दिन भर लोंगों की चुगलियों से त्रस्त होकर एक आदमी बहुत परेशान था. करता भी क्या किससे लड़ता झगड़ता उसने सोचा कि चलो इस तनाव से मुक्ति के लिये एक वसीयत लिखे देता हूं सोचते सोचते कागज़ कलम उठा भी ली कि बच्चों की फ़रमाइश के आगे नि:शब्द यंत्रवत मुस्कुराता हुआ निकल पड़ा बाज़ार से आइसक्रीम लेने . खा पी कर बिस्तर पर निढाल हुआ तो जाने कब आंख की पलकें एक दूसरे से कब लिपट-चिपट गईं उस मालूम न हो सका. गहरी नींद दिन भर की भली-बुरी स्मृतियों का चलचित्र दिखाती है जिसे आप स्वप्न कहते हैं .. है न..?
   आज  वह आदमी स्वप्न में खुद को अपनी वसीयत लिखता महसूस करता है. अपने स्वजनों को संबोधित करते हुये उसने अपनी वसीयत में लिखा
मेरे प्रिय आत्मिन
 सादर-हरि स्मरण एवम असीम स्नेह ,
                   आप तो जानते हो न कि मुझे कितने कौए कोस रहे हैं . कोसना उनका धर्म हैं .. और न मरना मेरा.. सच ही कहा है किसी ने कि -"कौए के कोसे ढोर मरता नहीं है..!"ढोर हूं तो मरना सहज सरल नहीं है. उमर पूरी होते ही मरूंगा.मरने के बाद अपने पीछे क्या छोड़ना है ये कई दिनौं से तय करने की कोशिश में था तय नहीं कर पा रहा था. पर अब तय कर लिया है कि एक वसीयत लिखूं उसे अपने पीछे छोड़ जाऊं . इस वसीयत के अंतिम भाग में  उन सबके नाम उजागर करूं जो दुनियां में चुगलखोरी के के क्षेत्र में  निष्णात हैं.
             प्रिय आत्मिनों..! ऐसे महान व्यक्तित्वों को मेरी शव-यात्रा में आने न देना.. चाहे चोरों को बुलाना, डाकूओं को भी गिरहकटों को हां उनको भी बुला लेना.. आएं तो रोकना मत . बेचारों ने क्या बिगाड़ा किसी का. अपने पापी पेट के कारण अवश्य अपराधी हैं ... इनमें से कोई बाल्मीकी बन सकता है पर चुगलखोर .. न उनको मेरी शव-यात्रा में न आने देना.
                                                                                                                          तुम्हारा ही
                                                                                                                            "मुकुल "
    इन पंक्तियों के लिखे जाने के बाद उस  स्वप्न दर्शी ने महसूस किया कि एक दैत्य उसके समक्ष खड़ा है. दैत्य को देख उसको अपने कई गहरे दोस्त याद आए.दैत्य से बचाव के लिये जिसे पुकारने भी  कोशिश करता तुरंत उसी मित्र का भयावह चेहरा स्वप्न-दर्शी को दैत्य में दिखाई देता.. अकुलाहट घबराहट में उसे महसूस हुआ कि वो मर गया ..
                        खुद के पार्थिव शरीर को देख रहा था. बहुतेरी रोने धोने की आवाज़ें महसूस भी कीं.. मर जो गया था किसी से कुछ न कह पा रहा था.किसी को ढांढस तक न बंधा सका.
        अपनी देह को अर्थी में कसा देखा उसने. परिजन दिख रहे थी. पर मित्र........ गायब थे.. अचानक उसके सामने वही दैत्य प्रगट हुआ. दैत्य ने पूछा-"क्या, मर कर भी चिंता मग्न हो..!"
स्वप्नदर्शी:-”हां, मेरे अभिन्न मित्र गायब हैं..?"
दैत्य :-"मैने सबको रोक दिया वे चुगलखोरी के अपराध में लिप्त थे न.. तुम्हारी वसीयत के मुताबिक़ वे तुम्हारी शव-यात्रा से वंचित ही रहेंगें.."
                     स्वपनदर्शी को अपनी वसीयत पर गहरा अफ़सोस हुआ.. रो पड़ा तभी पत्नी ने उसके मुंह से निकलती अजीबो-गरीब आवाज़ सुन कर जगाया.. क्या हुआ तुम्हैं ...?
 नींद से जागा वो वास्तव में जाग चुका था............ अपनी वसीयत लिखने की इच्छा खत्म कर दी.. दोस्तों ये ही आज़ की सच्चाई..
   सूचना 
इस आलेख के सभी पात्र एवम स्थान काल्पनिक हैं इनका किसी भी जीवित मृत व्यक्ति से कोई सम्बंध नहीं.. यदि ऐसा पाया जाता है तो एक संयोग मात्र होगा 
भवदीय:गिरीश बिल्लोरे मुकुल

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