मृत काग |
काग दही के कारने वृथा जीवन गंवाय..!
छोटी
बिटिया श्रृद्धा ने स्कूल से लौटकर मुझसे पूछा.. पापा- “कागद ही के कारने वृथा
जीवन गंवाय..!” का अर्थ विन्यास कीजिये.. मैने दार्शनिक भाव से कहा – बेटी यहां
कागज के कारण जीवन व्यर्थ गंवाने की बात है.. शायद कागज रुपए के लिये प्रयोग किया
गया है.. ?
बेटी ने फ़िर पूछा- “काग दही के कारने वृथा जीवन गंवाय..!”
अब फ़िर से बोलिये.. इसका अर्थ क्या हुआ..
हतप्रभ सा मैं बोल पड़ा – किसी ऐसी घटना का विवरण है जिसमें
कौआ दही के कारण जीवन खो देता है..
गदही |
बेटी ने बताया कि आज़ स्कूल में एक कहानी सुना कर टीचर जी ने
इस काव्य पंक्ति की व्याख्या की. कहानी कुछ यूं थी कि एक दही बेचने वाली के दही
वाले घड़े में लालची कौआ गिर के मर गया. महिला निरक्षर थी पर कविता करना जानती थी
सो उसने अपने मन की बात कवित्त में कही- “काग
दही के कारने वृथा जीवन गंवाय..!” इस पंक्ति को दुहराने लगी . फ़िर राह पर किसी पढ़े
लिखे व्यक्ति से उक्त पंक्ति लिपिबद्ध कराई..
पढ़े लिखे
व्यक्ति ने कुछ यूं लिखा – “कागद ही के कारने वृथा जीवन गंवाय..!”
फ़िर राह में एक अन्य पढ़े लिखे व्यक्ति से भेंट हुई, जिससे उसने लिखवाया ,
दूसरे व्यक्ति ने यूं लिखा.. “का गदही के कारने वृथा जीवन गंवाय..? ”
कागद |
समय की वास्तविकता यही है..विचार मौलिक नहीं रह पाते हैं. सब अपने अपने नज़रिये से विचार करते हैं.. जिसके पास मौलिक विचार हैं वो उनको विस्तार देने में असफ़ल है और जिनके पास मौलिक चिंतन ही नहीं है वे किसी ज़रिये से भी प्राप्त विचारों को अपने तरीके से गढ़ कर विस्तार दे रहे हैं. यही है आज़ के दौर का यथार्थ. जिसे देखिये वो अपनी दुम्दुभी बज़ाने के चक्कर नें मन चाहे विचार परोस रहा है. बस शब्दों हेर फ़ेर वाला मामला है. अर्थ बदल दीजिये.. लोगों को ग़ुमराह कर अपना उल्लू सीधा कर लीजिये .. सब के सब जाने किस जुगाड़ में हैं. क्या हो गया है युग को जिसे देखिये वो कुतर्कों की ठठरी पर अमौलिक चिंतन की बेजान देह ढोने को आमादा हैं. न तो समाज न ही तंत्र के स्तंभ.. सब के सब एक्सपोज़ भी हो रहे हैं कोई ज़रा कम तो कोई सुर्खियों में . मित्रो.. दुनिया अब "गदही" सी लगने लगी है..
ऐसी गदही में मैं क्यों क्यों इनवाल्व होने चला मिसफ़िट हूं क्यों न कहूं.. - “का गदही के कारने वृथा जीवन गंवाय..? ”