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गुरुवार, अप्रैल 14, 2011

किसी की मज़ाल क्या जो अर्चिता पारवानी की बात काटे..! और केवलराम जी की विचारोत्तेजक पोस्ट का पाडकास्ट अर्चना जी के स्वर में


                       उस  दिन  हल्की सी बारिश और  आर्ची की घूमने की जिद्द दफ्तर से आते ही बालहट न चाह के भी झुकना तय शुदा होता है घर में बच्चों का ज़िद्द करने वाली उम्र को पार कर लेने के बाद तो .अडोस पड़ोस के बच्चे बहुत ताक़त वर हो जाते हैं ... इनके आगे हर कोई सर झुका लेता है मसलन अब आर्ची को ही लीजिये... हम में से किसी भी भाई की मज़ाल क्या कि अर्चिता पारवानी की बात काटे... हमको हमारे  नाम से पुकारती है...सतीष (मंझले भाई साहब) और  पप्पू (मैं)...हम पर आर्ची  का  एक अघोषित अधिकार.. दादागिरी सब कुछ बेरोक टोक जारी है. हरीश भैया यानी हमारे बड़े भाई साब की सेक्रेट्री टाइप की है बस उनकी चापलूसी में कोई कोर कसर नहीं छोड़ती बाक़ी हम दोनो भाई हमारी पत्नियां, हमारे बच्चे  तो मानो आर्ची ताबे में है .. हमको भी उससे कोई गुरेज़-परहेज़ नही... दुनियां की कोई ताक़त बच्चों के आकर्षण से किसी को भी मुक्त नहीं करा सकती..!  ये तो त्रैलोक्य दर्शन करातें हैं. अर्चिता खूब सवाल करती है हर बात को समझने परखने की कोशिश में लगी रहती है... हां तो गेट नम्बर चार से ग्वारी घाट तक की यात्रा में आसमान की बदलियां उस रास्ते को भिगो रही थी पश्चिम में डूबता सूरज बाकायदा रोशनी दे रहा था... परिणाम  तय था पूर्व दिशा में इंद्रधनुष बना. अर्चिता से मैने पूछा:-"क्या है देखो आकाश में "  अनोखा विस्मित चेहरा लिये अपलक देर तक देखती रही आर्ची.... फ़िर एकाएक लाल बुझक्कड़ की तरह गम्भीर होकर बोली :-"पप्पू, मुझे मालूम है भगवान ने एक बड़ा ब्रश लिया उसे कलर में डुबाया और (हाथ घुमाते हुए ) आसमान में ऐसा पोत दिया फ़िर दूसरा ब्रश , फ़िर और....! है न पप्पू मै समझ गई न  "
मुझे खूब हंसता देख ज़रा नाराज़ हो गई, फ़िर बोली :-”आपको मालूम है तो बताओ ”
                         आर्ची से मैने  वादा किया कि पक्का बताऊंगा , सनडे को छुट्टी है न उस दिन इंद्रधनुष बना के बताऊंगा पक्का  जी इस रविवार अर्चिता को इंद्रधनुष बनाके बताना है ... पर कैसे सोच रहा हूं..  
मित्रो सच किसी ने कहा है भूखे को रोटी खिलाने से ज़्यादा महत्वपूर्ण धर्म शिशु की जिज्ञासा को शांत करना.  
बहुधा लोग अपने बच्चों को खो देते हैं उनसे बचपन में संवाद नहीं करते  उनकी जिज्ञासा से हमको कोई लेना देना नहीं होता. तभी एक दूरी पनपती है जो किशोरावस्था में विकृति और फिर अलगाव की शक्ल में सामने आती है. बच्चों से   हमको सतत संवाद करना ही होगा. वरना "टेक केयर का जुमला सुन सुन के आप एक दिन अपने बच्चों को कोसते नज़र आएंगे उम्र के उस पड़ाव  पर जब आपकी बूढ़ी आंखें अपने प्रवासी (देशीय,अन्तरदेशीय) बच्चों के फ़ोन का इंतज़ार कर रहे होंगे फ़ोन आएगा आप खुश होंगे आपकी संतान आपसे संक्षिप्त वार्ता करेंगें... और फ़िर बात समाप्त करने के पहले यह ज़रूर कहेंगे  टेक केयर "
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जी चलते चलते एक पोस्ट सुनी भी जाये
केवल राम के ब्लाग से "कबूतरों को उड़ाने से क्या...?"
आलेख केवल राम / वाचक-स्वर : अर्चना चावजी



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