साम्यवाद : सामंतवाद एवं पूंजीवाद के जाल में
साम्यवाद, वर्तमान परिस्थितियों में सामंतवादी और पूंजीवादी व्यवस्था के मकड़जाल में गिरफ्त हो चुका है। अगर दक्षिण एशिया के साम्यवादी राष्ट्र चीन का मूल्यांकन किया जाए ज्ञात होता है कि वहां की अर्थव्यवस्था पूंजीवादी व्यवस्था के कीर्तिमान भी ध्वस्त करती नजर आ रही हैं। अपने आर्टिकल में हम केवल कोविड19 के जनक चीन के ज़रिए समझने की कोशिश करते हैं ।
चीन का असली चेहरा : पूंजीवादी व्यवस्था और विस्तार वादी संस्कार
यहां चीन में अर्थव्यवस्था की जो स्थिति है वह विश्व की श्रेष्ठ अर्थव्यवस्थाओं में से एक है । चीन ने विश्व के कुछ सुविधा विहीन देशों को गुलाम बनाने के उद्देश्य से उनकी स्थावर संपत्तियों पर खास स्ट्रैटेजी के तहत कब्ज़ा करने की पूरी तैयारी कर ली है। यह चीन द्वारा उठाया गया वह क़दम है जो कि "साम्यवादी-चिंतन" को नेस्तनाबूद करने का पर्याप्त उदाहरण है । यह एक ऐसा राष्ट्र बन चुका है जिसे फ़िल्म "रोटी कपड़ा मकान" वाले साहूकार डॉक्टर एस डी दुबे की याद आ जावेगी ।
कौन कौन से देश हैं इस सामंत के गुलाम..?
चीन के कर्ज से दबे दक्षिण एशिया के देशों में श्रीलंका, पाकिस्तान, बांग्लादेश, मालदीव, नेपाल , अग्रणी हैं । जबकि 2010 में अफ्रीकी देशों पर चीन का 10 अरब डॉलर (आज के हिसाब से 75 हजार करोड़ रुपए) का कर्ज था। जो 2016 में बढ़कर 30 अरब डॉलर (2.25 लाख करोड़ रुपए) हो गया अब जबकि कोविड19 विस्तारित है तब ।
ये अफ्रीकी देश की हालत क्या हो सकती है आप खुद अंदाज़ा लगा सकते हैं ।
अफ्रीकी देश जिबुती, दुनिया का इकलौता कम आय वाला ऐसा देश है, जिस पर चीन का सबसे ज्यादा कर्ज है। जिबुती पर अपनी जीडीपी का 80% से ज्यादा विदेशी कर्ज है। इन ऋण लेने वाले देशों के पास चीन नामक साहूकार को ऊँची ब्याज दर चुकाने तक का सामर्थ्य तक नहीं है। दक्षिण एशियाई देश मालदीव के वर्तमान राष्ट्रपति ने साफ तौर पर कर्ज वापसी के लिए असमर्थता व्यक्त कर दी है ।
स्थिति स्पष्ट है कि- चीन वैश्विक अर्थव्यवस्था में एक साम्यवादी न होकर शुद्ध रूप से पूंजीवादी व्यवस्था के रूप में शामिल हो चुकी है ।
जिस व्यवस्था में नागरिक अर्थात व्यक्ति उत्पादन के लिए एक मशीन की तरह प्रयुक्त हो वह व्यवस्था कार्ल मार्क्स के मौलिक सिद्धांतों का अंत करती नज़र आती है।
मार्क्सवाद मानव सभ्यता और समाज को हमेशा से दो वर्गों -शोषक और शोषित- में विभाजित मानता है। नये सिनेरियो में - शोषक के रूप में चीन की सरकार है और शोषित के रूप में जनता या उसके नागरिक ।
मार्क्स के सिद्धांत के अनुसार यह सत्य कि है साधन संपन्न वर्ग ने हमेशा से उत्पादन के संसाधनों पर अपना अधिकार रखने की कोशिश की तथा बुर्जुआ विचारधारा की आड़ में एक वर्ग को लगातार वंचित बनाकर रखा।
अतः चीन को इस बात का एहसास भी हो जाना चाहिए कि शोषित वर्ग (चीन एवम कर्ज़दार देशों के नागरिक ) को इस षडयंत्र का एहसास हो चुका है । अतः वर्ग संघर्ष की 100% संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता क्योंकि वर्गहीन समाज (साम्यवाद) की स्थापना के लिए वर्ग संघर्ष एक अनिवार्य और निवारणात्मक प्रक्रिया है।
"सामंतवादी दृष्टिकोण अपनाते हैं राष्ट्रप्रमुख...?"
चीन में सदा से ही जनगीत केवल जनता को मानसिक रूप से भ्रमित करने के लिए गाये एवम गवाए हैं । नागरिकों की आज़ादी केवल सरकारी किताबों तक सीमित है । उईगर मुस्लिम इसका सबसे उत्तम उदाहरण हैं । सामंत सदा सामन्त बने रहने के गुन्ताड़े में रहता है। शी जिंग पिंग भी उसी जुगाड़ में हैं। जबकि डेमोक्रेटिक सिस्टम सदा सामंती व्यवस्था के विरुद्ध होता है। कारण भी है कि डेमोक्रेटिक सिस्टम में सत्ता का मार्ग नागरिकों के संवेदनशील मस्तिष्क से निकलता है जबकि उनकी मान्यता है कि -"सत्ता का मार्ग बंदूक की नली से निकलता है ।
साम्यवाद, वर्तमान परिस्थितियों में सामंतवादी और पूंजीवादी व्यवस्था के मकड़जाल में गिरफ्त हो चुका है। अगर दक्षिण एशिया के साम्यवादी राष्ट्र चीन का मूल्यांकन किया जाए ज्ञात होता है कि वहां की अर्थव्यवस्था पूंजीवादी व्यवस्था के कीर्तिमान भी ध्वस्त करती नजर आ रही हैं। अपने आर्टिकल में हम केवल कोविड19 के जनक चीन के ज़रिए समझने की कोशिश करते हैं ।
चीन का असली चेहरा : पूंजीवादी व्यवस्था और विस्तार वादी संस्कार
यहां चीन में अर्थव्यवस्था की जो स्थिति है वह विश्व की श्रेष्ठ अर्थव्यवस्थाओं में से एक है । चीन ने विश्व के कुछ सुविधा विहीन देशों को गुलाम बनाने के उद्देश्य से उनकी स्थावर संपत्तियों पर खास स्ट्रैटेजी के तहत कब्ज़ा करने की पूरी तैयारी कर ली है। यह चीन द्वारा उठाया गया वह क़दम है जो कि "साम्यवादी-चिंतन" को नेस्तनाबूद करने का पर्याप्त उदाहरण है । यह एक ऐसा राष्ट्र बन चुका है जिसे फ़िल्म "रोटी कपड़ा मकान" वाले साहूकार डॉक्टर एस डी दुबे की याद आ जावेगी ।
कौन कौन से देश हैं इस सामंत के गुलाम..?
चीन के कर्ज से दबे दक्षिण एशिया के देशों में श्रीलंका, पाकिस्तान, बांग्लादेश, मालदीव, नेपाल , अग्रणी हैं । जबकि 2010 में अफ्रीकी देशों पर चीन का 10 अरब डॉलर (आज के हिसाब से 75 हजार करोड़ रुपए) का कर्ज था। जो 2016 में बढ़कर 30 अरब डॉलर (2.25 लाख करोड़ रुपए) हो गया अब जबकि कोविड19 विस्तारित है तब ।
ये अफ्रीकी देश की हालत क्या हो सकती है आप खुद अंदाज़ा लगा सकते हैं ।
अफ्रीकी देश जिबुती, दुनिया का इकलौता कम आय वाला ऐसा देश है, जिस पर चीन का सबसे ज्यादा कर्ज है। जिबुती पर अपनी जीडीपी का 80% से ज्यादा विदेशी कर्ज है। इन ऋण लेने वाले देशों के पास चीन नामक साहूकार को ऊँची ब्याज दर चुकाने तक का सामर्थ्य तक नहीं है। दक्षिण एशियाई देश मालदीव के वर्तमान राष्ट्रपति ने साफ तौर पर कर्ज वापसी के लिए असमर्थता व्यक्त कर दी है ।
स्थिति स्पष्ट है कि- चीन वैश्विक अर्थव्यवस्था में एक साम्यवादी न होकर शुद्ध रूप से पूंजीवादी व्यवस्था के रूप में शामिल हो चुकी है ।
जिस व्यवस्था में नागरिक अर्थात व्यक्ति उत्पादन के लिए एक मशीन की तरह प्रयुक्त हो वह व्यवस्था कार्ल मार्क्स के मौलिक सिद्धांतों का अंत करती नज़र आती है।
मार्क्सवाद मानव सभ्यता और समाज को हमेशा से दो वर्गों -शोषक और शोषित- में विभाजित मानता है। नये सिनेरियो में - शोषक के रूप में चीन की सरकार है और शोषित के रूप में जनता या उसके नागरिक ।
मार्क्स के सिद्धांत के अनुसार यह सत्य कि है साधन संपन्न वर्ग ने हमेशा से उत्पादन के संसाधनों पर अपना अधिकार रखने की कोशिश की तथा बुर्जुआ विचारधारा की आड़ में एक वर्ग को लगातार वंचित बनाकर रखा।
अतः चीन को इस बात का एहसास भी हो जाना चाहिए कि शोषित वर्ग (चीन एवम कर्ज़दार देशों के नागरिक ) को इस षडयंत्र का एहसास हो चुका है । अतः वर्ग संघर्ष की 100% संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता क्योंकि वर्गहीन समाज (साम्यवाद) की स्थापना के लिए वर्ग संघर्ष एक अनिवार्य और निवारणात्मक प्रक्रिया है।
"सामंतवादी दृष्टिकोण अपनाते हैं राष्ट्रप्रमुख...?"
चीन में सदा से ही जनगीत केवल जनता को मानसिक रूप से भ्रमित करने के लिए गाये एवम गवाए हैं । नागरिकों की आज़ादी केवल सरकारी किताबों तक सीमित है । उईगर मुस्लिम इसका सबसे उत्तम उदाहरण हैं । सामंत सदा सामन्त बने रहने के गुन्ताड़े में रहता है। शी जिंग पिंग भी उसी जुगाड़ में हैं। जबकि डेमोक्रेटिक सिस्टम सदा सामंती व्यवस्था के विरुद्ध होता है। कारण भी है कि डेमोक्रेटिक सिस्टम में सत्ता का मार्ग नागरिकों के संवेदनशील मस्तिष्क से निकलता है जबकि उनकी मान्यता है कि -"सत्ता का मार्ग बंदूक की नली से निकलता है ।