Ad

लघुकथा लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
लघुकथा लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

बुधवार, मई 27, 2015

पोट्रेट्स

 अक्सर उसे किसी न किसी को अपमानित करते अथवा किसी की चुगली करते देखना लोंगों का अभ्यास सा बन गया था .  सुबह दोपहर शाम निंदा और चुगलियाँ करना  उसके जीवन का मौलिक उद्देश्य था . कई लोगों ने कई बार सोचा कि उसे नसीहत दी जावे पर इस प्रकार का काम करने का लोग जोखिम इस वज़ह से नहीं उठाना चाहते क्योंकि वे जानते हैं कि अति के दुःखद परिणामों का आना निश्चित ही होता है .
  संस्थानों में ऐसे दुश्चरित्रों से लोग बाकायदा सुविधाजनक अंतराल स्थापित कर ही लेते हैं . करना भी चाहिए नगर निगम की नालियों से बहने वाली गन्दगी में कोई पत्थर फैंक कर अपने वस्त्र क्यों खराब करे ..भला  !  
समय के साथ साथ फतेहचंद का चेहरा  गुणानुरूप विकृत सा दिखाई देने लगा था सामने से टूटे हुए दांत ये साबित कर रहे थे कि बाह्य शारीरिक बल के प्रयोग से यह बदलाव आया है . ये लग बात है कि उसे किस रूप में परिभाषित किया जा रहा था किन्तु ज्ञान सभी को था . फिर भी बुद्धि चातुर्य के सहारे फ़तेह अक्सर अपनी मजिल फतह कर ही लेता था .
मित्रो किसी ने उसे सुझाया कि वो एक बेहतरीन विश्लेषक है तो क्यों नहीं चित्रकारी करे लोगों को पोट्रेट करे . चित्रांकन प्रारम्भ हुआ . एक दो ही चित्र में उसे अपनी प्रतिभा पर गर्व सा होने लगा . गर्व घोर घमंड में तब्दील हुआ . मित्रों के पोट्रेट बनाने लगा था वह ... भयंकर अति विद्रूप उसका अपना स्टूडियो घनिष्ट मित्रों के विद्रूप पोट्रेट्स से अता पड़ा था . उन छवियों की और अपलक निहारता विकृत खबीस से चित्रों के देखता अट्टहास करता . 
*******************
      सुधि पाठको , एक रात कला का चितेरा गंधर्व जब भू-विचरण को निकला तो देखा कि कलाकार फतेहचंद अपने बनाए  पोट्रेट्स को निहार के मुस्कुराता है हँसता है  अट्टहास करता है .
एक कला साधक का सहज मानवीय रूप रख गंधर्व जिज्ञासावश उसके स्टूडियो में प्रवेश करता है . छद्म नाम से परिचय देकर गंधर्व ने पूछा – मित्र, ये किनके पोट्रेट हैं ?   
         पूरे अहंकार से फ़तेह का उत्तर था – मेरे कुलीग्स हैं ... ?
         गंधर्व – इतने विकृत ... चेहरे हैं इनके ?
         फतेहचन्द्र -  हैं तो नहीं पर जैसा मैं इनको परिभाषित करता हूँ वैसे बना लिए ... यही तो कला है ... हा हा हा
गंधर्व को  सारा मामला समझ में आ गया उसने प्रतिप्रश्न किया – क्या तुम इनको इसी स्वरुप में सप्राण देखना चाहोगे ...?
क्यों नहीं मित्र ..!
         गंधर्व ने तुरंत भ्रमण करने वाली आत्माओं का आह्वान किया . सारी तस्वीरें सजीव हो गईं उसी रूप में जिस रूप में फ़तेह उनको देखता था . गंधर्व अंतर्ध्यान हो गया .... आर्टिस्ट दीवारों पर लगे पोट्रेट्स की और देखता पर विकृतियाँ उसे आतंकित करतीं  थर थर कांपता स्टूडियो से बाहर भागा आज भी भाग रहा है .. भागेगा क्यों नहीं . फ़तेह  हर व्यक्ति उस व्यक्ति का नाम है जो अपने अनुमानों से  सृजित  विकृतियों के जीवंत होने से भागता है भयातुर होकर
गिरीश बिल्लोरे मुकुल

मंगलवार, जनवरी 13, 2015

रेलवे क्रासिंग वाला किशोर और बाइक वाला


साहेब ये  घोड़ा है
इसकी पीठ पर सवार बादशाह की रौबीली मूंछ
सुनहरी रकाब , ये देखिये घोड़े की  झबरीली पूंछ   
दस रुपये में ..... आपको घोडा तो क्या  बादशाह भी नहीं मिलेगा ....
खरीद लीजिये न ..... आपके दस रुपये बहुत काम आएंगे .......
आपकी बेटे  के चेहरे पर हंसी,
बेटी  के मुखड़े पर मुस्कान लाएँगे .....
साब दे दूँ..... दो ले लीजिये बीस रुपए बेकार नहीं जाएंगे ...
बोलो साब बोलो ..... जल्दी बोलो .....
गाड़ी आने वाली है गेट खुल जाएगा ।
आपका घोडा यहीं रह जाएगा ...
          अनचाहे विक्रेता से खीज कर आलीशान कार के काँच ऊपर चढ़ गए । शाम आसरा भी टूटता नज़र आया हताश किशोर की हताश आंखें पीछे वाले बाइक सवार नें पढ़ लीं, कार का शीशा चढ़ते हुये जो देख रहा था ...... बाइक सवार ने पचास का नोट देकर कहा ये ये मुझे दे दो
सा, छुट्टे ... बीस दीजिये न ...
नहीं है ......
कोई बात नहीं कल लौटूँगा न तब वापस ले लूँगा ..... रोज़ निकलता हूँ ।
साब आप ले जाओ ... छुट्टे कल दे देना !
          बाइक सवार युवक ने लगभग डपट कर उसे बीस की जगह पचास थमा दिये । किशोर ने बाइक का नंबर नोट किया ...........
         किशोर कई दिनों तक उस बाइक का इंतज़ार करता रहा । बाइक वहाँ से कभी भी नहीं निकली ।
       दस बरस बाद उसी  रेलक्रासिंग पर उसी  पुरानी बाइक के ठीक पीछे रुकी आलीशान कार कार से एक युवक उतरा उसने बाइक सवार प्रौढ़ को प्रणाम किया .... जेब से तीस रुपए निकाले उसके हाथ में देते हुए कहा – “मेरे पास बरसों से आपकी अमानत रखी है सर, आप मुझे फिर कभी वापस न मिले ?” वैसे उस दिन आपके दिये पैसे से मेरे घर में सबने भरपेट खाना खाया था । ये मेरा कार्ड है सर ..... आप शहर आएँ मेरे स्टूडिओ में मूर्तियां बनवाता हूँ ।
          बाइक पर सवार व्यक्ति ने मुस्कुरा कर दस रुपए रख लिए ।

             कुछ दिनों बाद सचाई समझने के गुंताड़े में  महानगर में स्टूडिओ का पता खोजते खोजते बाइक वाला प्रौढ़ जब स्टूडिओ पंहुचा तो उसकी  बाइक पर सवार मिट्टी से बनी मूर्ति वो भी उसके अपने युवा काल की देख भौंचक था । 

Ad

यह ब्लॉग खोजें

मिसफिट : हिंदी के श्रेष्ठ ब्लॉगस में