Ad

मर्मस्पर्श लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
मर्मस्पर्श लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

बुधवार, सितंबर 10, 2014

मर्मस्पर्श (कहानी)

       "गुमाश्ता जी क्या हुआ भाई बड़े खुश नज़र आ रहे हो.. अर्र ये काज़ू कतली.. वाह क्या बात है.. मज़ा आ गया... किस खुशी में भाई..?"
        "तिवारी जी, बेटा टी सी एस में स्लेक्ट हो गया था. आज  उसे दो बरस के लिये यू. के. जाना है... !" लो आप एक और लो तिवारी जी.. 
       तिवारी जी काज़ू कतली लेकर अपनी कुर्सी पर विराज गये. और नक़ली मुस्कान बधाईयां देते हुए.. अका़रण ही फ़ाइल में व्यस्त हो गए. सदमा सा लगता जब किसी की औलाद तरक़्की पाती, ऐसा नहीं कि तिवारी जी में किसी के लिये ईर्षा जैसा कोई भाव है.. बल्कि ऐसी घटनाओं की सूचना उनको सीधे अपने बेटे से जोड़ देतीं हैं. तीन बेटियों के बाद जन्मा बेटा.. बड़ी मिन्नतों-मानताओं के बाद प्रसूता... बेटियां एक एक कर कौटोम्बिक परिपाटी के चलते ब्याह दीं गईं. बचा नामुराद शानू.. उर्फ़ पंडित संजय कुमार तिवारी आत्मज़ प्रद्युम्न कुमार तिवारी. दिन भर घर में बैठा-बैठा किताबों में डूबा रहता . पर क्लर्की की परीक्षा भी पास न कर पाया. न रेल्वे की, न बैंक की. प्रायवेट कम्पनी कारखाने में जाब लायक न था. बाहर शुद्ध हिंदी घर में बुंदेली बोलने वाले लड़का मिसफ़िट सा बन के रह गया. किराना परचून की दुक़ान पर काम करने वाले लड़कों से ज़्यादा उसकी योग्यता का आंकलन न तो तिवारी जी ने किया न ही दुनियां का कोई भी कर सकता है. शुद्ध हिंदी ब्रांड युवक था जो उसकी सबसे बड़ी अयोग्यता मानी जाने लगी. तिवारी जी एक दिन बोल पड़े- संजय, तुम्हारे जैसो नालायक दुनियां में दिन में टार्च जला खैं ढूढो तो न मिलहै. देख गुमाश्ता, शर्मा, अली सबके मौड़ा बड़ी बड़ी कम्पनी मैं चिपक गए और तैं हमाई छाती पै सांप सरीखो लोट रओ है. आज लौं. सुनत हो शानू की बाई.. हमाई किस्मत तो लुघरा घांईं या हो गई.. मोरी पेंशन खा..है और  हम हैं सुई ..
भीख मांग है.. पंडत की औलाद जो ठहरो. एम ए पास कर लओ मनौं कछु काबिल नै बन पाओ जो मौड़ा
                                             शानू की मां बुदबुदाई.. "को जानै का का गदत बक़त रहत हैं.मना करो हतो कै सिरकारी स्कूल में न डालो नै माने कहत हते सरकारी अदमी हौं उतई पढ़ै हों.. लो आ गयो न रिज़ल्ट..अब न बे मास्साब रए न स्कूल.. अब भोगो एम ए पास मौड़ा इतै-उतै कोसिस भी करत है तो अंग्रेजी से हार जाउत है."
      अब तुम कछू कहो न.. बाम्हन को मौड़ा है.. कछु कर लै हे.. मंदिर खुलवा दैयो..
"तैं सुई अच्छी बात कर रई है. मंदर खुलावा हौं.. मंदर कौनऊ दुकान या 
                                         ******************************
                         धीरे धीरे सब तिवारी दम्पत्ति के जीवन में तनाव   कढ़वे करेले की मानिंद घुलने लगा. पीढ़ा तब और तेज़ी से उभर आती जब कि गुमाश्ता जी टाइप का कोई व्यक्ति अपनी औलाद की तरक़्क़ी की काज़ू-कतली खिलाता. शानू का नाकारा साबित होना निरंतर जारी है. उधर एक दिन तिवारी जी को दिल की बीमारी से घेर लिया. काजू-कतलियां.. रोग का प्रमुख कारण साबित हो रहीं थीं.. अब तो प्रद्युम्न तिवारी को काज़ू-कतली से उतनी ही  घृणा होने लगी  थी जितना कि चुनाव के समय उम्मीदवारों को आपस में घृणा हो जाती है. 
                     शाम घर लौटेते तिवारी जी के पांव तले शानू गिरा पैरों को धोक देते हुए बोला- पिताजी, मैंने शिक्षा कर्मी की परीक्षा पास कर ली. अब व्यक्तिगत -साक्षात्कार शेष है. शुद्ध हिंदी बोलने वाले विप्र पुत्र को विप्र ने हृदय से लगा लिया. आंखें भीग गईं. सिसकते सुबक़ते बोले - जा, काज़ू कतली ले आ कल सुबह आफ़िस ले जाऊंगा..
सानू- पिताजी, अभी नहीं,  व्यक्तिगत -साक्षात्कार के बाद परिणाम आ जाए. तिवारी जी ने सहमति स्वरूप सहमति वाली मुंडी मटका दी.
                घटना ने परिवार को उत्साह से सराबोर कर दिया . बहनों-बेटियों नातेदारों को फ़ोन करकर के सूचित किया तिवारी जी को लगा कि उनको दुनिया भर की खुशियां मिल गईं. 
  ******************************     
     आज़ का दौर खुशियों और कपूर के लिये अनूकूल नहीं. हौले हौले पर्सनल इंटरव्यू का दिन आया . अब तक पराजित हुए शानू ने पूछा - पिताजी, यदि आज़ मैं न चुना गया तो.. ?
पिता ने कहा -बेटा, शुभ शुभ बोलो, तुम पक्का सलेक्ट होगे. 
शानू ने कहा- पर   मान लीजिये न हो पाया तो .......
 तो .. तो ठीक है.. घर मत आना.. आना तब जब बारोज़गार हो.. हा हा.. अरे बेटा कैसी बात करते हो.. 
            "घर मत आना" संजय के मर्म पर चिपका हुआ द्रव्य सा था... जो बार बार युवा नसों में बह रहे लहू में ज़रा ज़रा सा घुलता.. और संजय उर्फ़ शानू के ज़ेहन को जब जब भी चोट करता तब तब  संजय सिहर उठता .. शाम को जनपद पंचायत के दफ़्तर में लगी लिस्ट में अपना नाम न पाकर .. संजय ने जेब टटोला जेब में एक हज़ार रुपए थे जो काफ़ी थे जनरल डिब्बे की टिकट और रास्ते में रोटी खरीदने के लिये. घर न पहुंच संजय   गाड़ी में जा बैठा.   गाड़ी की दिशा उसे मालूम थी वो जान चुका था कि वो दिल्ली सुबह दस ग्यारह बजे पहुंच जाएगा. वहां क्या करना है इस बात से अनभिग्य था. 
                                     और इस तरह  शाम संजय कुमार तिवारी के घर वापस न आने से तय हो गया  
******************************
          अल्ल सुबह रेल हबीबगंज रेल्वे स्टेशन पर जा रुकी. टिकट तो इंदौर तक का था पर संजय ने सोचा कि पहले यहीं रुका जाए. फ़िर अगर भाग्य ने सहयोग न किया तो आगे चलेंगे. स्टेशन के बाहर उतरकर शानू ने दो कप चाय पीकर सुबह का स्वागत किया . संकल्प ये था कि कोशिश करूंगा शाम तक कोई मज़दूरी वाला काम मिले तब कुछ खाऊं . दिन भर मशक्क़त के बाद भी काम न मिला तो शाम एक चादर खरीद लाया बस स्टेशन पर  सो गया. उसकी जेब के एक हज़ार रुपये खर्च के ताप से घुल के अब सिर्फ़ तीन सौ हो चुके थे. सामने पराठे वाले से एक परांठा खरीदा. खाया और स्टेशन पर सो गया. शक्लो-सूरत से सभ्य सुसंस्कृत दिखने की वज़ह से जी आर पी वाले ने तलाशी के वक़्त उससे कोई पूछताछ न की. एक ऊंचा-पूरा युवा तेज़स्वी चेहरा लिये सुबह उठा और फ़िर गांव की आदत के मुताबिक निकल पड़ा सुबह की सैर को.
            तय ये किया कि रोटी का इंतज़ाम किया जाए. चाहे मज़दूरी क्यों न करनी पड़े . सैर करते कराते  शक्तिनगर वाले मंदिर के पास पहुंचते ही देव दर्शन की आकांक्षा जोर मारने लगी. आदत के मुताबिक विप्र पुत्र ने शिव के सामने जाकर सस्वर शिव महिम्न स्त्रोत का पाठ किया. उसके पीछे भीड़ खड़ी हो गई. भीड़ में बुज़ुर्गों की संख्या अधिक थी. लाफ़िंग-क्लब के सदस्य सदाचारी युवक को अवाक देख रहे थे. एक बोला-पंडिज्जी, किस फ़्लेट में आएं हैं..?
“हा हा, फ़्लेट, न दादा जी न.. शहर मे आज़ ही आया हूं. मज़दूरी के लिये..”
मज़दूरी......?
जी हां मज़दूरी....... ! और क्या हिंदी मीडियम से एम ए पास करने वाला क्या किसी कम्पनी के क़ाबिल होता है.
            बुज़ुर्गों की पारखी आंखों ने उसे पहचान लिया ... लाफ़िंग क्लब की गतिविधि से  लौटने तक रुकने का कह के सारे बुजुर्ग मंदिर परिसर में खाली मैदान जैसे हिस्से में हंसने का अभ्यास करने लगे. शानू खड़ा खड़ा वहीं से उनकी गतिविधियां देख रहा था. कुछ  बुज़ुर्गों के पोपले  चेहरे  उसे गुदगुदा रहे थे.
  *************************
बेकार नाकारा किंतु जीवट शानू अपनी जगह बनाने के गुंताड़े में कस्बे से पलायन तो कर आया पर केवल मज़दूर बनने से ज़्यादा योग्यता उसे अपने आप में महसूस नहीं कर पा रहा था. छलनी हृदय में केवल जीत की लालसा पता नहीं कैसे बची थी . शायद संघर्ष के संस्कार ही वज़ह हों.. सोच मंदिर से जाने के लिये बाहर निकल ही रहा था कि- सारे बूढ़े बुज़ुर्ग उसके  क़रीब आ गये. सबने उसे रोका और मंदिर में पूजा और देखभाल की ज़िम्मेदारी सम्हालने की पेशक़श कर डाली.. 
क्रमश: अगले अंक तक ज़ारी   

Ad

यह ब्लॉग खोजें

मिसफिट : हिंदी के श्रेष्ठ ब्लॉगस में