आप सभी को दीपावली की शुभकामनाएँ ...
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गुरुवार, नवंबर 08, 2012
शुक्रवार, मार्च 09, 2012
आज बसंत की रात गमन की बात न करना :गोपालदास नीरज़
वसंत का श्रृंगारी स्वरूप कवि मन को प्रभावित न करे ..!-असंभव है.. हर कवि-मन कई कई भावों बगीचे से गुज़रता प्रकृति से रस बटोरता आ कर अपने लिखने वाले टेबल पे रखी डायरी के खाली पन्ने पर अपनी तरंग में डूब कर लिख लेता है गीत..नज़्म...ग़ज़ल.. यानी.कविता उकेरता है शब्द-चित्र . जो दिखाई भी देतें हैं सुना भी जाता है उनको .. अरे हां.. गाया भी तो जाता है.. गीत सुरों पे सवार हो कर व्योम के विस्तार पर विचरण करता है .. बरसों बरस.. दूर तक़ देर तलक... इसी क्रम में नीरज जी की एक रचना अपने सुर में पेश कर रही हूं..
आज बसंत की रात
गमन की बात न करना
धूल बिछाए फूल-बिछौना
बगिया पहने चांदी-सोना
बलिया फेंके जादू-टोना
महक उठे सब पात
हवन की बात न करना
आज बसंत की रात…….
बौराई अमवा की डाली
गदराई गेंहू की बाली
सरसों खड़ी बजाये ताली
झूम रहे जलजात
शमन की बात न करना
आज बसंत की रात……..
खिड़की खोल चंद्रमा झांके
चुनरी खींच सितारे टाँके
मना करूँ शोर मचा के
कोयलिया अनखात
गहन की बात न करना
आज बसंत की रात…….
निंदिया बैरन सुधि बिसराई
सेज निगोड़ी करे ढिठाई
ताना मारे सौत जुन्हाई
रह-रह प्राण पिरत
चुभन की बात न करना
आज बसंत की रात……
ये पीली चूंदर ये चादर
ये सुन्दर छवि, ये रस-गागर
जन्म-मरण की ये राज-कँवर
सब भू की सौगात
गगन की बात न करना
आज बसंत की रात……..
__________________
गीतकार : गोपालदास नीरज़,स्वर : अर्चना चावजी,
__________________
सोमवार, फ़रवरी 13, 2012
पाडकास्ट : जैसे तुम सोच रहे साथी
सुनिए उनकी ही आवाज में ---
जैसे तुम सोच रहे साथी
जैसे तुम सोच रहे साथी,वैसे आजाद नहीं हैं हम,
जैसे तुम सोच रहे साथी,वैसे आजाद नहीं हैं हम।
पिंजरे जैसी इस दुनिया में, पंछी जैसा ही रहना है,
भर पेट मिले दाना-पानी,लेकिन मन ही मन दहना है।
जैसे तुम सोच रहे साथी, वैसे संवाद नहीं हैं हम,
जैसे तुम सोच रहे साथी, वैसे आजाद नहीं हैं हम।
आगे बढ़नें की कोशिश में ,रिश्ते-नाते सब छूट गये,
तन को जितना गढ़ना चाहा,मन से उतना ही टूट गये।
जैसे तुम सोच रहे साथी,वैसे आबाद नहीं हैं हम,
जैसे तुम सोच रहे साथी,वैसे आजाद नहीं हैं हम।
पलकों ने लौटाये सपने, आंखे बोली अब मत आना,
आना ही तो सच में आना,आकर फिर लौट नहीं जाना।
जितना तुम सोच रहे साथी,उतना बरबाद नहीं हैं हम,
जैसे तुम सोच रहे साथी,वैसे आजाद नहीं हैं हम।
आओ भी साथ चलें हम-तुम,मिल-जुल कर ढूंढें राह नई,
संघर्ष भरा पथ है तो क्या, है संग हमारे चाह नई।
जैसी तुम सोच रहे साथी,वैसी फरियाद नहीं हैं हम,
जैसे तुम सोच रहे साथी,वैसे आजाद नहीं हैं हम।
विनोद श्रीवास्तव जी की रचना की सस्वर प्रस्तुति मुझे भी कुछ कहना है ब्लाग की स्वामिनि रचना बज़ाज द्वारा
बुधवार, दिसंबर 21, 2011
मेरी कविता - मेरी आवाज
पिछले दिनों बेटे ने ये करवाया मुझसे .....कहता है कभी खुद का भी पढ़ो....तो ये पॉडकस्ट उसी का नतीजा है...अब सुनिये.....
मेरी कविता -- मेरी आवाज में
मेरी कविता -- मेरी आवाज में
रविवार, दिसंबर 11, 2011
सोमवार, अक्तूबर 24, 2011
आधा लाख लोग पढ़ चुके होंगे मिसफ़िट को इस धनतेरस...तक
ब्लाजगत को नमन
न्यू-मीडिया ने गोया एक अनोखी क्रांति को जन्म दिया है. क्रांति जिसके सकारात्मक और नकारात्मक दौनों पहलू हैं. मिसफ़िट को मैने साल भर से अधिक समय पूर्व ज्वाइन किया. गिरीष जी का आमंत्रण पाडकास्टिंग की वज़ह से था मेरे लिये. अचानक वेबकास्टिंग का प्रयोग हुआ मैने भी अपना खाता खोला वेबकास्टिंग में. सच कितना तेज़ बदलाव जीवंत संपर्क सहज अभिव्यक्ति और ढेरों पाठक नित नऎ आलेख, जानकारियां एक क्लिक मात्र से वाक़ई कमाल है. इन दिनों मिसफ़िट अपने तरीके से सृजन-यात्रा के एक नये मुक़ाम पर पहुंच रहा है.. अगले कुछ घण्टों में पाठक संख्या 49,834 से बड़कर आधा लाख हो जाएगी ये तय है. पर इसमें सबसे बड़ा अवदान आपके स्नेह का ही तो है.
मिसफ़िट :सीधीबात को आपका प्रोत्साहन एवम स्नेह इसी प्रका मिलेगा हमें उम्मीद है
आप सभी के प्यार और प्रोत्साहन के लिए आभार .......अब तक बहुत अच्छा समय बीता ,अनुभव भी अच्छा रहा बहुत कुछ सीखा,.....खोया भी और पाया भी....कोशिश रहेगी कि हर पल कुछ नया करूँ........
शनिवार, अक्तूबर 15, 2011
टुकड़े-टुकड़े दिन बीता..
मीना कुमारी (1 अगस्त, 1932 - 31 मार्च, 1972) भारत की एक मशहूर अभिनेत्री थीं। इन्हें खासकर दुखांत फ़िल्म में उनकी यादगार भूमिकाओं के लिये याद किया जाता है। 1952 में प्रदर्शित हुई फिल्म बैजू बावरा से वे काफी वे काफी मशहूर हुईं।
मीना कुमारी का असली नाम माहजबीं बानो था और ये बंबई में पैदा हुई थीं । उनके पिता अली बक्श भी फिल्मों में और पारसी रंगमंच के एक मँजे हुये कलाकार थे और उन्होंने कुछ फिल्मों में संगीतकार का भी काम किया था। उनकी माँ प्रभावती देवी (बाद में इकबाल बानो),भी एक मशहूर नृत्यांगना और अदाकारा थी जिनका ताल्लुक टैगोर परिवार से था । माहजबीं ने पहली बार किसी फिल्म के लिये छह साल की उम्र में काम किया था। उनका नाम मीना कुमारी विजय भट्ट की खासी लोकप्रिय फिल्म बैजू बावरा पड़ा। मीना कुमारी की प्रारंभिक फिल्में ज्यादातर पौराणिक कथाओं पर आधारित थे। मीना कुमारी के आने के साथ भारतीय सिनेमा में नयी अभिनेत्रियों का एक खास दौर शुरु हुआ था जिसमें नरगिस, निम्मी, सुचित्रा सेन और नूतन शामिल थीं।
1953 तक मीना कुमारी की तीन सफल फिल्में आ चुकी थीं जिनमें : दायरा, दो बीघा ज़मीन और परिणीता शामिल थीं. परिणीता से मीना कुमारी के लिये एक नया युग शुरु हुआ। परिणीता में उनकी भूमिका ने भारतीय महिलाओं को खास प्रभावित किया था चूकि इस फिल्म में भारतीय नारियों के आम जिदगी की तकलीफ़ों का चित्रण करने की कोशिश की गयी थी। लेकिन इसी फिल्म की वजह से उनकी छवि सिर्फ़ दुखांत भूमिकाएँ करने वाले की होकर सीमित हो गयी। लेकिन ऐसा होने के बावज़ूद उनके अभिनय की खास शैली और मोहक आवाज़ का जादू भारतीय दर्शकों पर हमेशा छाया रहा।
मीना कुमारी की शादी मशहूर फिल्मकार कमाल अमरोही के साथ हुई जिन्होंने मीना कुमारी की कुछ मशहूर फिल्मों का निर्देशन किया था। लेकिन स्वछंद प्रवृति की मीना अमरोही से1964 में अलग हो गयीं। उनकी फ़िल्म पाक़ीज़ा को और उसमें उनके रोल को आज भी सराहा जाता है । शर्मीली मीना के बारे में बहुत कम लोग जानते हैं कि वे कवियित्री भी थीं लेकिन कभी भी उन्होंने अपनी कवितायें छपवाने की कोशिश नहीं की। उनकी लिखी कुछ उर्दू की कवितायें नाज़ के नाम से बाद में छपी।
मीना कुमारी जी की एक गज़ल ---
टुकड़े-टुकड़े दिन बीता, धज्जी-धज्जी
रात मिली
जितना-जितना आंचल था, उतनी
ही सौगात मिली
रिमझिम-रिमझिम बूंदों में, ज़हर
भी है और अमृत भी
आंखें हंस दीं दिल रोया, यह
अच्छी बरसात मिली
जब चाहा दिल को समझें, हंसने
की आवाज़ सुनी
जैसे कोई कहता हो, ले
फिर तुझको मात मिली
मातें कैसी घातें क्या, चलते
रहना आठ पहर
दिल-सा साथी जब पाया, बेचैनी
भी साथ मिली
होंठों तक आते आते, जाने
कितने रूप भरे
जलती-बुझती आंखों में, सादा
सी जो बात मिली
टेक्स्ट कंटेण्ट साभार विकीपीडिया एवम स्टार-न्यूज़ एजेंसी से साभार
बुधवार, अक्तूबर 12, 2011
हर जन्मदिन एक नई शुरुआत...
ये आजकल के बच्चे भी बहुत मन मानी करते हैं ..सुनते नहीं है जल्दी ..हाँ..हाँ कह कर बात को टाल देते हैं पर उन्हें नहीं पता कि ..माँ इतनी आसानी से हार नहीं मानती ......
आज करना ही पड़ा----सुनिये केवल राम जी के विचार उनके जन्मदिन पर उनकी ही आवाज में ...
आज करना ही पड़ा----सुनिये केवल राम जी के विचार उनके जन्मदिन पर उनकी ही आवाज में ...
गुरुवार, सितंबर 22, 2011
गुरुवार, सितंबर 15, 2011
जलाओ दिए - गोपालदास नीरज जी की एक रचना.
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।
नई ज्योति के धर नए पंख झिलमिल,
उड़े मर्त्य मिट्टी गगन स्वर्ग छू ले,
लगे रोशनी की झड़ी झूम ऐसी,
निशा की गली में तिमिर राह भूले,
खुले मुक्ति का वह किरण द्वार जगमग,
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।
नई ज्योति के धर नए पंख झिलमिल,
उड़े मर्त्य मिट्टी गगन स्वर्ग छू ले,
लगे रोशनी की झड़ी झूम ऐसी,
निशा की गली में तिमिर राह भूले,
खुले मुक्ति का वह किरण द्वार जगमग,
ऊषा जा न पाए, निशा आ ना पाए
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।
सृजन है अधूरा अगर विश्व भर में,
कहीं भी किसी द्वार पर है उदासी,
मनुजता नहीं पूर्ण तब तक बनेगी,
कि जब तक लहू के लिए भूमि प्यासी,
चलेगा सदा नाश का खेल यूँ ही,
भले ही दिवाली यहाँ रोज आए
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।
मगर दीप की दीप्ति से सिर्फ जग में,
नहीं मिट सका है धरा का अँधेरा,
उतर क्यों न आयें नखत सब नयन के,
नहीं कर सकेंगे ह्रदय में उजेरा,
कटेंगे तभी यह अँधरे घिरे अब,
स्वयं धर मनुज दीप का रूप आए
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।
नीरज जी की अन्य रचनाएं कविताकोष से साभार जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।
सृजन है अधूरा अगर विश्व भर में,
कहीं भी किसी द्वार पर है उदासी,
मनुजता नहीं पूर्ण तब तक बनेगी,
कि जब तक लहू के लिए भूमि प्यासी,
चलेगा सदा नाश का खेल यूँ ही,
भले ही दिवाली यहाँ रोज आए
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।
मगर दीप की दीप्ति से सिर्फ जग में,
नहीं मिट सका है धरा का अँधेरा,
उतर क्यों न आयें नखत सब नयन के,
नहीं कर सकेंगे ह्रदय में उजेरा,
कटेंगे तभी यह अँधरे घिरे अब,
स्वयं धर मनुज दीप का रूप आए
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।
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