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तवायफ की मौत

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राज  कुमार  सोनी के बिगुल पर प्रकाशित ''घुंगरू टूट गए''  को पढ़ते ही मुझे अपनी पंद्रह  बरस पुरानी एक सम्पादक द्वारा सखेद वापस रचना याद आ गई सोनी जी के प्रति आभार एवं उस आत्मा की शान्ति  के लिए रचना सादर प्रेषित है चीथड़े में लिपटी बूढ़ी  माँ मर गई कोई न रोया न सिसका उन सेठों के बच्चों ने भी नहीं जिन सेठों नें बदन नौचा था इसका वे बच्चे इसे माँ  कह सकते थे एक एक दिन अपने साथ रख सकते थे ओरतें भी इस बूढ़ी सौत की सेवा कर सकतीं थीं किन्तु कोई हाथ कोई साथ न था इस को सम्हालने सारे हाथ बंधे थे सामाजिक-सम्मान की रेशमी जंजीर से ये अलग बात है ये परिवार गिर चुके थे ज़मीर से बूढ़ी शबनम के पास मूर्ती पूजक पैगम्बर के आराधक सब जाते थे जिस्मानी सुख के सुरूर में गोते खाते थे आज आख़िरी सांस ली इस बूढ़ी माँ ने तब कोई भी न था साथ घमापुर पोलिस ने रोजनामाचे में मर्ग कायम कर लाश पोस्ट मार्टम को भेज दी है पोलिस वाले उसे जलाते अगर उसका नाम शबनम न होता उसे दफना दिया गया है अल्लाह उस पुलिस वाले को ज़न्नत दे जिसने दफनाते वक्त आँखें भिगोई थीं....! _________________