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रविवार, अप्रैल 24, 2011

डा० उमाशंकर नगायच कृत ग्रंथ : महर्षि दयानंद का समाज दर्शन



कृति समीक्षा - महर्षि दयानंद का समाज दर्शन
 प्रस्तुति :-गिरीश बिल्लोरे मुकुल 
1. आज बाजारीकरण के प्रभावों से आक्रान्त जनमानस भौतिक विज्ञानों की दिशा में ही चिन्तन के लिए समय दे पा रहा है। सृष्टि के मूल सिद्धान्तों और युगों के अन्तराल के बाद स्थापित मानव संस्कृति, सभ्यता एवं समाज व्यवस्था के सम्बन्ध में चिन्तन घटता दृष्टि गोचर हो रहा है। समाज में संतुलित विकास के लिए दोनो ही दिशाओ में समान रूप से बढ़ना आवश्यक है। एक को छोडकर किसी दूसरे की ओर बढने से जीवन में पूर्णत्व की प्राप्ति नहीं होगी। आदरणीय डॉ. उमाशंकर नगायच द्वारा आई.टी. की चकाचौंध के इस युग में समाज में मूल्यों के घटते महत्व के कारण पनप रही अप्रतिमानता की समाप्ति के लिए भारतीय सभ्यता के मूलाधार ‘वेदों’ को जनसामान्य तक पहुँचाने वाले मनीषी महर्षि दयानन्द के समाज दर्शन की विवेचना अपने शोध ग्रन्थ में की है। उनका यह कार्य अनूठा, अद्भुत और अतुलनीय है।
2. शोधग्रंथ में वैदिक संस्कृति व धर्म के उद्धारक महर्षि दयानंद सरस्वती के बहुआयामी व्यक्तित्व, उदार कृतित्व, जीवन के प्रति उनके व्यापक और सर्वग्राही दृष्टिकोण का रोचक ढंग से वर्णन किया गया है। विद्वान् लेखक ने अपनी शोध-प्रवण दृष्टि से वर्णव्यवस्था, आश्रमव्यवस्था, पुरुषार्थचतुष्टय, शिक्षा व्यवस्था, विवाह-सिद्धान्त, अर्थव्यवस्था एवं राजव्यवस्था इत्यादि महत्वपूर्ण विषयों पर महर्षि दयानन्द की मूलगामी वैदिक दृष्टि और उसके दार्शनिक आधार का सांगोपांग विवेचन किया है। जो प्रत्येक व्यक्ति को सुख-सुविधा सम्पन्न बनाने, सुव्यवस्थित सामाजिक संरचना और संास्कृतिक मूल्यों की रक्षा के लिये उपयोगी और व्यवहारिक है।
3. ‘महर्षि दयानंद का समाज दर्शन डा. उमाशंकर नगायच की शोधदृष्टि का वैचारिक फल है। इस फल का भोक्ता समाज होता है और समाज की सेहत के लिये ऐसे फल सेवनीय होने से पथ्य हैं। वस्तुतः साहित्य लेखन की सार्थकता इसी में है कि वह व्यवहारिक जीवन में उपयोगी हो। इस दृष्टि से लेखक का प्रयास सफल व सराहनीय है। समाज में व्याप्त अनेक कुरीतियों और समस्याओं, यथा- बाल विवाह, दहेजप्रथा, गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा, जनसंख्या वृद्धि आदि के समाधानकारी सिद्धान्तों का ग्रंथ में किया गया विस्तृत विवेचन वर्तमान समय में भी प्रासंगिक है। पुस्तक की भूमिका में डा.सोमपाल शास्त्री ने इसीलिये इस कृति को ‘जीवन-जगत के लिये अधिकतम व्यावहारिक, प्रासंगिक और उपयोगी’ कहा है। प्रस्तुत कृति महर्षि दयानंद के
आर्ष चिन्तन को लोकोपयोगी भाषा शैली में लोक के समक्ष लाने का प्रषंसनीय प्रयास है। महर्षि दयानन्द का तपःपूत चिन्तन किसी कालखण्ड या भूखण्ड विषेष की सीमाओं में आबद्ध नहीं है। उसकी परिधि मानवता के हर छोर को छूती है और समूची मानव जाति को ‘सर्वे वै सुखिनः सन्तु’ का शाष्वत संदेष पहुंचाती हुई परिलक्षित होती है। पुस्तक की विषयवस्तु के विवेचन में यह तथ्य सर्वत्र झलकता और छलकता हुआ दिखाई देता है।
4. संन्यासियों के बारे में जन सामान्य की धारणा है कि वे दीन-दुनिया से कोई नाता-रिश्ता नहीं रखते। जिसने संन्यास लेते समय पुत्र, वित्त और लोक (संसार) से नाता तोड लिया, उससे हम यह अपेक्षा कैसे करें कि वह लोकहित तथा समाज की व्यापक भलाई के लिये कुछ सोचेगा या करेगा। उन्होने तो स्वेच्छा से प्रवृत्ति मार्ग को त्यागकर निवृत्ति मार्ग को अपनाया है, प्रेय को छोड श्रेय पथ पर चलने का निश्चय किया है। अतः वे समाज के समक्ष खडी समस्याओं का निदान करने में रुचि क्यों लेंगे? मध्यकाल के सभी साधु-संन्यासी, सन्त-महन्त, पंडे, पुजारी मात्र परलोक चिन्ता मे लगे रहे और सांसारिक दायित्वों से पूर्णतया विमुख रहे। किसी ने संसार के प्रति अपना कोई दायित्व नहीं समझा और लोगों को दीन-दुनिया से नाता तोडकर परमात्मा से लगन लगाने की बात करते रहे। इस परम्परा के विपरीत नवजागरण काल में दयानन्द तथा विवेकानंद सदृश संन्यासियों ने भी जनमानस में चेतना जगाई। संन्यासियों में दयानंद ही थे, जिन्होने अध्यात्म, दर्शन और धर्म चिन्तन के साथ-साथ इहलोक (संसार व समाज) की समस्याओं के निदान की चिन्ता की तथा भारतवासियों को आर्थिक,सामाजिक तथा राजनैतिक शक्ति उपार्जित करने का संदेश दिया।
5. सामाजिक सरोकारों की चर्चा करें, तो उन्नीसवीं शताब्दी के समाज सुधारकों में
दयानंद सरस्वती का नाम अग्रणी है। सामाजिक परिवर्तन और क्रान्ति के अग्रदूत थे,महर्षि दयानंद सरस्वती। विभिन्न शोध विद्वानों ने स्वामी दयानंद के समाजोन्मुखीव्यक्तित्व तथा कृतित्व की अल्प ही चर्चा की है। इस विस्तृत तथा गंभीर विषय के सभी कोणों को  स्पर्श करने  वाले हाल ही में प्रकाशित  डा. उमाशंकर नगायच (ई-117/6 शिवाजी नगर, भोपाल) के विद्वतापूर्ण शोध प्रबंध (महर्षि दयानंद का समाज दर्शन) में स्वामी दयानंद के चिन्तन और कृतित्व का विस्तृत, प्रमाण पुरस्सर विवेचन किया गया है। इस ग्रंथ में स्वामी दयानंद के आविर्भाव की पृष्ठभूमि तथा तात्कालिक परिस्थितियों की सटीक समीक्षा की गई है। महर्षि के जीवन में आये विभिन्न पड़ावों का विवरण देने के साथ उनके विचार और कर्म क्षेत्र की तात्विक पड़ताल इस ग्रंथ की प्रमुख विषेषता है। ध्यान रहे कि सामाजिक विचारों का क्षेत्र गृह, परिवार, समाज तक ही सीमित नहीं है। लेखक की जागरूकता के कारण इसमें स्वामी दयानंद के आर्थिक तथा राष्ट्रीय (राजनैतिक तथा प्रशासन विषयक) विचारों की समुचित विवेचना हुई है। षिक्षा और सामाजिक उत्थान अन्योन्याश्रित हैं। समाज की चतुर्मुखी उन्नति में षिक्षा की भूमिका
को स्वामी दयानंद ने सम्यकतया समझा था, इसी कारण ऋषि दयानंद के शिक्षा विषयक विचारों का विस्तारपूर्वक विवेचन इस पुस्तक में किया गया है। निश्चय  ही दयानंद के बहुकोणीय व्यक्तित्व की विवेचना करने में लेखक को असाधारण सफलता मिली है। दयानंद के धार्मिक एवं दार्षनिक विचारों की पर्याप्त चर्चा अनुसंधाता विद्वानों द्वारा हुई है, किन्तु उनके समाज-दार्षनिक विचारों, समाज दृष्टा तथा समाज संशोधक व्यक्तित्व को जानने के लिये यह ग्रंथ पाठकों के अध्ययन क्रम में अनिवार्यतः आना चाहिये।
6. पुस्तक की विषय वस्तु पुरःस्थापना से उपसंहार तक ग्यारह अध्यायों में विभक्त है। प्रथम अध्याय में ग्रंथ के उद्देष्य और प्रतिपाद्य का औपचारिक निदर्शन है। ग्रंथ का द्वितीय अध्याय महर्षि दयानन्द के व्यक्तित्व एवं कृतित्व को समर्पित है। इसमें महर्षि की लोक से परलोक तक की यात्रा का सजीव वर्णन विद्धान् लेखक ने कुछ इस तरह किया है, जैसे कि वह महर्षि के सहयात्री रहें हो। शेष अध्यायों में समाज व्यवस्था, अर्थ व्यवस्था और राज्य व्यवस्था के संबंध में उनके दार्षनिक विचारों को व्याख्यायित किया गया है।
7. वैदिक दर्शन में कालान्तर में आये विक्षेपण को दूर करते हुये लेखक ने वैज्ञानिक दृष्टि से वैदिक समाज व्यवस्था के आधारभूत सिद्धान्तों का सूक्ष्म विवेचन कर महर्षि के ‘वेदों की ओर लौटो‘ के संदे्श को औचित्यपूर्ण सिद्ध किया है। वेदों में समाहित समाज वैज्ञानिक सिद्धान्तों का महर्षि दयानंद ने जो अन्वेषण किया, उस अन्वेषण को क्रमबद्धता  की लय में पिरोने का दुष्कर कार्य लेखक ने बडी सहजता से किया है। तदनुसार ग्रंथ जीवन उपयोगी एवं मानव के सर्वांगीण विकास के लिये आवश्यक जीवन दर्शन को प्रस्तुत करता है। समग्र समाज को पोषित, संबर्द्धित करने के लिये ऋषियों ने अपनी दिव्य दृष्टि से सामाजिक संरचना वर्णव्यवस्था का जो तानाबाना बुना, उसको इस ग्रंथ ने औचित्यपूर्ण एवं नवीन विश्व सामज व्यवस्था के संदर्भ में वर्णव्यवस्था की प्रासंगिकता, आवश्यकता एवं महत्व को प्रतिपादित किया है। पुस्तक के चार सौ चौदह पृष्ठीय कलेवर में लगभग नब्बे प्रतिषत अंष महर्षि दयानन्द के दर्षन को समर्पित है। इससे स्पष्ट है कि लेखक की मंषा महर्षि के कृतित्व के दार्षनिक पक्ष को उजागर कर उसे सुबोध शैली में समाज तक पहुंचाने की है। यह उपक्रम पुस्तक के शीर्षक में समाविष्ट बोध को भी सार्थक करता है।
8. ‘महर्षि दयानन्द का समाज दर्शन’ पुस्तक सामाजिक सरोकारों का दुरुस्त दस्तावेज है। समाज की प्रगति पर मानव जीवन की समृद्धि निर्भर है, इस तथ्य की पुष्टि ‘‘महर्षि दयानंद के समाज दर्शन’’ में है। इसकी विषय वस्तु में महर्षि दयानन्द की दार्शनिक विचारधारा के सामाजिक पक्ष की प्रस्तुति के लिये वैदिक समाज व्यवस्था, अर्थ व्यवस्था और राज्य व्यवस्था की सैद्धान्तिक और व्यावहारिक दृष्टि से विवेचना की गई है। समाज व्यवस्था के अंतर्गत वर्ण विभाजन के औचित्य और वर्णव्यवस्था की वर्तमान में उपादेयता और प्रासंगिकता पर बेबाकी से विचार व्यक्त किये गये हैं। इसके अतिरिक्त जीवन के संतुलित विकास के लिये अत्यावश्यक वैदिक आश्रम व्यवस्था एवं पुरुषार्थचतुष्टय- धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की बहुत सटीक व्याख्या की गई है। वैदिक संस्कृति की पुरुषार्थ चतुष्टय की अवधारणा को लेखक ने अपने वैशिष्ट्य में रेखांकित किया है, जिसमें अलौकिक जीवन के लिये लौकिक जीवन की उपेक्षा नहीं की गई है। मनुष्य के व्यक्तित्व में आत्मा के साथ शरीर को समान रुप से महत्तवपूर्ण माना है।
9. पुस्तक में वैदिक षिक्षा व्यवस्था का विस्तार से प्रतिपादन है। महर्षि दयानंद के विचार अनुसार मानव जीवन के सम्यक् विकास के लिये एवं जीवन साध्यों - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि के लिये उत्तम शिक्षा सर्वोपरि साधन है। सबको शिक्षा के समान अधिकार एवं अनिवार्य शिक्षा की अवधारणा महर्षि के विचारों का वेैशिष्ट्य है। महर्षि दयानन्द ने संपन्न तथा विपन्न सभी की संतानों को शिक्षा पाने हेतु समान सुविधाएं राज्य व समाज द्वारा उपलब्ध कराने का सिद्धांत प्रस्तुत कर दीन.हीन, वंचित, शोषित और पीड़ित मनुष्यों के उत्थान के लिये स्तुत्य प्रयत्न किया है, जो विश्व मानवता को उनकी अविस्मरणीय देन है।
10. पुस्तक में विवाह सिद्धान्त की लोकोपयोगिता को वैज्ञानिक दृष्टिकोंण के साथ व्याख्यायित किया गया है। सफल वैवाहिक जीवन के आधारसूत्र के रूप में स्वयंवर विवाह विषयक महर्षि के दृष्टिकोण का वृहद् विश्लेषण कृ्रति में किया गया है। दाम्पत्य प्रीति को गृहस्थ आश्रम की सफलता तथा समग्र परिवार के सुनिश्चित कल्याण का साधन माना है। महर्षि के अनुसार संसार का उपकार करना समाज का मुख्य उद्देश्य है, अर्थात शारीरिक, आर्थिक और सामाजिक,उन्नति करना। आर्यसमाज के इस छठवे नियम में समाहित अपेक्षाओं का पल्लवन लेखक ने पुस्तक में आद्यन्त किया है।
11. अर्थ समाज के शरीर का रक्त है। जिस प्रकार से मानव शरीर के स्वास्थ्य के लिये रक्त शुद्धि आवश्यक है। उसी प्रकार समाज के स्वास्थ्य के लिये अर्थ सिद्धि की आवश्यकता है। कृति में धर्मानुगामी अर्थोपार्जन की प्रवृति को समाज के लिये हितकर निरूपित किया गया है। अर्थव्यवस्था में धर्म और अर्थ के अन्तःसम्बन्ध संबंधी महर्षि के विचारों की बहुत सटीक व्याख्या की गई है। महर्षि की मान्यता है कि ‘अर्थ वह है जो धर्म ही से प्राप्त किया जाये और जो अधर्म से सिद्ध होता है वह अनर्थ है।’ इस संदेश में वर्तमान भ्रष्टाचार पीडित समाज के साध्यपरक अर्थोन्मुखीकरण के फलस्वरूप उपजे अपघाती परिणामों से उबरने के लिये कारगर उपचार का संकेत है।
12. पुस्तक के दसम् अध्याय में महर्षि दयानन्द के राजनैतिक दर्शन की विवेचना की गई है। इसमें राजधर्म, राज्य की प्रकृति, राज्य के मूल अंगों और कार्यों का उल्लेख तथा न्याय एवं प्रशासन व्यवस्था का निदर्शन, अथर्ववेद और मनुस्मृति के उद्धरणों से समर्थित है। महर्षि ने राज्य में सम्यक् दण्ड की व्यवस्था को आवश्यक निरूपित किया है। वस्तुतः यह विवेचन वर्तमान राजनैतिक तंत्र की कमियों को सुधार कर तंत्र को नियंत्रित करने के लिये मार्गदर्षक की भूमिका का निर्वाह कर सकता है। इस अध्याय का उल्लेखनीय वैषिष्ट्य महर्षि के राष्ट्रवाद संबंधी विचारों की उपयुक्त प्रस्तुति है। लेखक के विचार से अंग्रेजों की दासता से जकड़े हुये देष में राष्ट्रीय स्वाभिमान तथा स्वराज की भावनाओं से युक्त राष्ट्रवादी विचारों की शुरूआत करने तथा अपने कृत्यों एवं उपदेषों से निरन्तर राष्ट्रवाद को पोषित करने वाले महर्षि दयानन्द को ही आधुनिक युग में भारतीय राष्ट्रवाद का जनक कहना उपयुक्त होगा।
13. अंतिम अध्याय उपसंहार के रूप में अपने अग्रज अध्यायों का सारतत्व समेटे हुये है। इस अध्याय के अंतिम वाक्य-’महर्षि दयानन्द एक जीवनदृष्टा थे और उनके विचारों में सर्वांग जीवन ब दर्शन विद्यमान है’, में यह स्पष्ट रूप से व्यक्त है। महर्षि का व्यक्तित्व और कृतित्व आदर्श भारतीय समाज सुधारक का समाजोपयोगी संस्करण है।
14. ग्रंथ की शैली उत्कृष्ट, विवेचनापरक एवं भाषा सरस, सरल, बोधगम्य, सप्राण, सारगर्भित और धाराप्रवाह है। लेखक ने ग्राहय शैली के साथ जिज्ञासु पाठकों के लिये एक अद्भुत ग्रन्थ रचा है। महर्षि के विचारों को माध्यम बनाकर लेखक ने विहंगम दृष्टि से ग्रन्थ लिखा है, पुस्तक में लेखक ने सरल-सरस और सुस्पष्ट रीति से वैदिक संस्कृति, दर्शन और धर्म की गहन गंभीर अवधारणाओं को बोधगम्य बनाया है। जिससे पाठक की समस्त शंकायें एवं जिज्ञासायें ग्रन्थ पढते-पढते स्वतः समाधान को प्राप्त हो जाती हैं। ग्रन्थ के अध्ययन उपरांत भारतीय संस्कृति में स्वतः आये अथवा सप्रयास लाये गये विक्षेपण स्वतः तिरोहित हो जाते हैं और ग्रन्थ की सार्थकता स्वतः सिद्ध हो जाती हैं। महर्षि के विचार, दृष्टिकोण, कृतित्व के अन्वेषण का गुरुतर कार्य विद्वान लेखक द्वारा किया जाकर ग्रंथ में वेदों के ज्ञान को गागर में सागर जैसा भरा है। हर दृष्टि से ‘महर्षि दयानन्द का समाज दर्शन’ कृति पठनीय और संग्रहणीय है।  डा नगायच की वर्षों से  की साधना से किये गए सृजन हेतु डॉ. उमाशंकर नगायच बधाई के पात्र हैं। ईश्वर से प्रार्थना है कि भविष्य में भी वे समाज कल्याण की दिशा/क्षेत्र में लेखन कार्य हेतु ऊर्जावान रहें।
कृति: ‘महर्षि दयानन्द का समाज दर्शन’
कृतिकार: डा. उमाशकर नगायच
117/6, शिवाजी नगर, भोपाल
मोबा. 09407518452
पृष्ठ संख्या: 414, मूल्य - 300 रु.
प्रकाषक:
आर्श गुरुकुल महाविद्यालय,नर्मदापुरम्,होशगाबाद म.प्र

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