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"पश्चाताप : आत्म-कथ्य"

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र वीजा जी के इस बात से "सौ फ़ीसदी सहमत हूं. l"और घरेलू हिंसा के सम्दर्भ में इन प्रयासों को गम्भीरता से लेना चाहिये.मुझे इस बात को एक व्यक्तिगत घटना के ज़रिये बताना इस लिये ज़रूरी है कि इस अपराध बोध को लेकर शायद मैं और अधिक आगे नहीं जा सकता. मेरे विवाह के कुछ ही महीने व्यतीत हुए थे . मेरी पत्नी कालेज से निकली लड़की अक्सर मेरी पसंद की सब्जी नहीं बना पाती थीं. जबकि मेरे दिमाग़ में परम्परागत अवधारणा थी पत्नी सर्व गुण सम्पूर्ण होनी चाहिये. यद्यपि मेरे परिवार को परम्परागत अवधारणा पसंद न थी किंतु आफ़िस में धर्मेंद्र जैन का लंच बाक्स देख कर मुझे हूक सी उठती अक्सर हम लोग साथ साथ खाना खाते . मन में छिपी कुण्ठा ने एक शाम उग्र रूप ले ही लिया. घर आकर अपने कमरे में पत्नी को कठोर शब्दों (अश्लील नहीं ) का प्रयोग किये. लंच ना लेने का कारण पूछने पर मैंने उनसे एक शब्द खुले तौर पर कह दिया :-"मां-बाप ने संस्कार ही ऐसे दिये हैं तुममें पति के लिये भोजन बनाने का सामर्थ्य नहीं ?" किसी नवोढ़ा को सब मंज़ूर होता है किंतु उसके मां-बाप का तिरस्कार कदापि नहीं. बस क्या था बहस शुरु.और बहस के तीखे होत