Ad

समीक्षा लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
समीक्षा लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

मंगलवार, अप्रैल 16, 2013

हिडिम्ब : क्लासिक आख्यानों की सभी खूबियों से परिपूर्ण एक दुर्लभ उपन्यास

श्री एस.आर.हरनोट का उपन्यास हिडिम्ब पर्वतांचल के एक भूखण्ड, वहां की
श्री एस.आर.हरनोट
एथनिक संस्कृति और उसकी समकालीन सामाजिक वस्तुस्थिति को रेखांकित करता एक ऐसा यथार्थपरक आख्यान है जो देहात के उत्पीडि़त आदमी की जैवी कथा और उसके समग्र परिवेश का एक सही लोखाचित्र के फ्रेम में प्रस्तुत करता है। भाषा और भाव के स्तर पर उलटफेर से गुरेज़ करता हुआ, किन्तु पहाड़ी देहात के ज्वलंत जातीय प्रश्नों को उनकी पूरी पूरी तफ़सीलों के साथ उकेरता हुआ। कहानी यों चलती है जैसे कोई सिनेमेटोग्राफ हो। लेखक खुद भी एक क्रिएटिव छायाकार है इसलिए सम्भवत: उसने हिडिम्ब की कहानी को एक छाया चित्रकार की तरह ही प्रस्तुत किया है। अपने गद्य को सजीव लैण्डस्केपों में बदलता हुआ। इस प्रकार के कथा शिल्प में पहली बार यह महसूस हुआ कि यथार्थ के मूल तत्व को उसमे किस तरह महफूज रखा जा सकता है। ऐसा गल्पित और कल्पित यथार्थ एक साथ अर्थमय भी है और अपने परिप्रेक्ष्य में भव्य भी।

उपन्यासकार ने सबसे पहले अपने पाठक को मूल कथा-चरित्रों का परिचय दिया है। इस तरह के परिचय अक्सर पुराने क्लासिक उपन्यासों में देखे जा सकते हैं। हिडिम्ब में ऐसी पूर्व-प्रस्तुतियां आख्यान के लिये भूमिका का निर्माण करती हैं ताकि लक्षित पाठक उसकी सराहना के लिए उत्प्रेरित हो सके। ऐसे पूर्वविवरण कथा के लिए क्षुधाबोधक का काम करते हैं जिन्हें लेखक ने डूबकर लिखा है। ये वस्तुपरक नहीं, चरित्रांकन करते हुए आत्मीय विवरण हैं, जिससे कथा रूपी नाटक का प्रांगण तैयार होता है। विक्टर ह्यूगो से लेकर पास्तरनाक तक के अनेक उपन्यासकारों में यह परिपाटी कहीं कथारम्भ में तो कहीं कहीं बीच में और अन्त में भी देखने को मिलती है ताकि कथाविशेष के परिवेश की औपचारिक जानकारी मिल सके। कथा का यह एक ऐसा लचीला खोल है जिसमें वह न सिर्फ़ अपनी चाल में तल्लीन एक केंचुए की तरह आगे सरकने लगती है बल्कि अपने घटना क्रियागत परिमाण को भी मर्यादित करती चलती है।

उपन्यासकार ने शावणू नड़, उसकी घरवाली सूरमादेई, बेटी सूमा और बेटे कांसीराम की दुनिया को अपनी कलम से टटोला है। यह दुनिया है विषाद, अन्याय और अभाव को वहन करती दुनिया जो कहानी के अन्त तक- जब कि नड़ अकेला रह जाता है–उसका पीछा नहीं छोड़ती। बकौल लेखक नड़ वह जाति है ’जिसकी ज़रूरत क्षेत्र के लोगों को कभी सात, कभी बारह तो कभी बीस तीस बरस बाद काहिका के लिए पड़ती है।’ काहिका एक नरबलि की अति प्राचीन परम्परा है। ’नड़ इस उत्सव का मुख्य पात्र होता’ है। ’लेकिन जब उसकी ज़रूरत नहीं होती वह अछूत, चाण्डाल बन जाता’ है। उत्सव के समय ’वह ब्राह्मण हो जाता है’–देवता, पुजारी, गूर सब उत्सव की शोभायात्रा में उसका अनुगमन करते हैं। अन्यथा ’गांव–बेड़ के पिछवाड़े का’ वह ’एक आवारा कुत्ता’ है। ’पूजा पाठ करते हुए’ यदि ’ब्राह्मण’ उसे देख ले तो उसे’ गालियां देने’ लगे। नड़ परिवार विशेष में जन्म लेने के कारण उसे काहिका को एक बड़े दण्ड के रूप में भोगना ही है। उपन्यासकार ने उक्त देवोत्सव को रेशारेशा बयान किया है ताकि पाठक यह जान सकें कि किस तरह पहाड़ी समाज में आज भी ऐसे मुकाम हैं जहां आदमी से खुद उसके सामाजिकों द्वारा एक बलिपशु का-सा बर्ताव किया जाता है। उसके सभी विवरण इस बारे में प्रामाणिक हैं जो किसी सम्वेदनशील मन में सहज ही रूढि़यों के खिलाफ़ आक्रोश और खण्डन-भाव को संचरित कर सकते हैं।

काहिका उत्सव में उसके पिता की बलि के बाद शावणू को जमीन का एक टुकड़ा विरासत में मिला था। तब वह बच्चा ही था। कहानी में काहिका प्रकरण को लेखक ने फ्लैशबैक में लेकर अपने इस मुख्यपात्र के अन्दर के बनाव और बदलाव के लिए कथा के वर्तमान का आधार तैयार किया है। पश्चदर्शन की इस शैली से कथा के निकट वर्तमान के साथ-साथ अतीत को समोकर उसने एक साथ दो आयामों को खोजा है ताकि पूरी कथा एक लड़ी में पिरोयी जा सके। उपन्यासकार ने नदी किनारे की उसकी कृषि भूमि का हवाला भी रुचिकर ढंग से दिया है। यह महज़ लैण्डस्केपिंग नहीं, परिवेश और संस्कृति का मानवीय तत्वबोध भी उसमें समाहित है। जैसे–

ज़मीन काफ़ी उपजाऊ थी। उम्दा किस्म की मिट्टी से सनी हुई।.... नीचे थोड़ी दूर एक पौराणिक नदी बहती थी।’


यहां पौराणिक नदी का होना यह साबित करता है कि वह एक प्रसिद्ध प्राचीन नदी होगी जिसका प्रसंग पुराणों में मिलता है। आगे–

’वहां कुदरत का नज़ारा बड़ा ही अद्भुत था। एकदम विलक्षण। विचित्रता अनूठी थी। काव्य के नौ रसों में से एक। पहाड़ी ढलान से नीचे उतरते खेत, मानो छन्दों में पिरोये हुए हों। दूर से देखने पर वह एक छोटा सा टापू लगता था।’

एक बेजोड़ सौन्दर्य बोध जिसकी उर्ध्व रेखाएं पूरे भूखण्ड को कथा की समानधर्मिता में ब्लेण्ड करती चलती है। प्रयोग काव्यात्मक है और चित्रात्मक भी, जो अन्तत: कथा के विकास और आने वाले बदलावों तक स्थायी रूप से ज़हन में बना रहता है। परिवेश के सामाजिक सांस्कृतिक तत्व को जानने के लिए निम्न उद्धरण सटीक होगा–

’ज़मीन के आगे एक बड़ा चरांद था जिसमें घाटी के कई गावों के पशु और भेड़-बकरियां चरा करते थे...बहुत पहले न कोई चरवाहा होता, न गवाला।...(पशु) दिनभर खूब चरते...शाम होने लगती तो खुद अपने अपने घरों को लौट आते...(लोगों) ने बाघों को भी (कई बार) नदी किनारे पशुओं के साथ सोते-जागते देखा था।’

उपन्यासकार ने यह चित्र खींच कर घाटी में व्याप्त पहले वक्तों की शान्ति को चित्रित किया है। एक ऐसा माहौल जहां बाघ-बकरी एक साथ रहते हैं।
शावणू की ज़मीन पर दौरे पर आये मंत्री की नज़र पड़ती है। यहां कथाकार ने लोलुप मंत्री का एक असुन्दर किन्तु कलात्मक व्यंगचित्र बनाया है। तन्जिया लहज़ा कहानी में उपयुक्त आवेग का संयोजन करता चलता है। एक छोटी सी बानगी–

’ज़मीन मंत्री के लिए जिस्मानी हवस की तरह हो गयी थी। वह जिस मकसद से दौरे पर आया था उसे भूल गया। सामने थी तो बस वही ज़मीन।...उसकी आंखों में वह नड़ परिवार और उसका घर चुभता चला गया।’

इस तरह की झांकियां आगे आने वाले हालात का न सिर्फ़ संकेत देती हैं बल्कि पाठक के रुझान का भी उद्दीपन करती हैं। यहां कहानी की आगामी लीक को लेखक ने बखूबी स्पष्ट कर दिया है। मंत्री के काल्पनिक प्रोजेक्शन और ज़मीन को लेकर उसकी महत्वाकांक्षाएं उसके लचर चरित्र को उघाड़ कर सामने रख देता है। हिडिम्ब की कहानी में जगह जगह रूपकों की रचना हुई है जो स्थिति विशेष की बेहतरीन ढंग से तजु‍र्मानी करते हैं। मंत्री के दरबार में ज़मीन के सौदे के लिए शावणू की हाजि़री वाला प्रसंग सटीक ढंग से रूपक में बांधा है। जैसे–

’मंत्री ने उसे भेड़िए की आंख से देखा। सिर से पांव तक...बाहर बंधा बकरा मिमियाया था।’

उपयु‍र्क्त रूपक को और ज्यादा सार्थक, उत्तेजक और अन्याय का द्योतक बनाती निम्न पंक्तियां स्थिति को संकेतात्मक रूप से सम्वेदनशील बना जाती हैं–
’शावणू ने....एक सरसरी नज़र कमरे की दीवारों पर डाली। सामने गांधी जी की फोटो टंगी थी। उस पर इतनी धूल और जाले जम गए थे कि पहचानना कठिन था।’..

मंत्री के साथ शावणू का साक्षात्कार, डाक बंगले में मंत्री का दारू पीना और ज़मीन बेचने में शावणू की साफ इन्कारी एक दलित के अन्दर की चिनगारी और नागवार हालात को बखूबी बयान करते हैं। उक्त दृश्य में बकरे का फिर वही रूपक स्थिति का कुछ इस तरह समाहार करता दिखायी देता है–

’बकरे के पास पहुंचकर शावणू के पैर अनायास ही रुक गये। उसे दया भरी दृष्टि से देखा। फिर आरपार घाटियों की तरफ। अनुमान लगाया होगा कि सांझ और बकरे की जिन्दगी में कितना फासला शेष रह गया है।....उस समय उसे अपने और बकरे में कुछ अधिक फर्क न लगा।’

फर्क था तो बस इतना कि बकरा शीघ्र ही शाम को मंत्री और उसके परिकरों की पार्टी के लिए जिबह होने वाला था जबकि शावणू को इन्तजा़र था उस दुखद घड़ी का जब मंत्री राजस्व के सेवादारों से मिलकर किसी न किसी प्रकार उसकी पुश्तैनी ज़मीन पर काबिज़ हो जाएगा। उस ज़मीन पर, जो अब तक उसे आजीविका देती रही थी। अपनी इस चाह को पूरा करने के लिये मंत्री स्थानीय तत्वों को उपयोग में लाता है। इनमें मुख्य हैं पंचायत का पूर्व प्रधान, शराब का ठेकेदार और डिपो का सेक्रेटरी। मंत्री के ये जीहजूरिये उसकी इच्छाओं का पूरा ध्यान रखते हैं। उसे खुश करने के लिये वे किसी से भी बदतमीज़ी पर आमादा हो सकते हैं। ’शावणू जानता’ है ’कि वे तीनों उस मंत्री के खासमखास हैं’ और उनके फैलाए जाल में ’कोई भी भला आदमी फंस सकता है।’ लेखक ने इन्हें लार टपकाते कुत्तों की संज्ञा दी है। ये लोग ज़मीन के मालिक शावणू पर हर तरह का दवाब डालते हैं मगर उसकी बीवी कड़ा रुख अपनाती है और उन्हें खदेड़ने के लिए ’विकट और विराट रूप’ भी धारण कर लेती है।

हिडिम्ब में न सिर्फ़ नड़ परिवार और उससे जुड़े प्रसंगों की कहानी कही गयी है बल्कि घाटी में आ रहे नये बदलावों की ओर भी इशारा किया गया है। यहां ’कुछ (लोग) चरस-भांग और विदेशी नशा बेचकर तो कुछ देवदार जैसी बेशकीमती लकड़ी की तस्करी करके’ मालामाल हुए हैं। आसपास के जनपदों पर सामाजिक टीका-टिप्पणी और व्याख्या उपन्यास को एक वचनबद्ध कृति का दर्जा देती है और बीच बीच में दिखायी देते काले स्पॉट पाठक को इस बात का भान करा देते हैं कि विकास के नाम पर पर्वतांचल का आदमी किस तरह अपने ही घर द्वार पर शोषक तत्व का बन्धक बना है।

शोभा लुहार ने इस कहानी में एक चरित्रशाली ग्रामीण दस्तकार की भूमिका निभाई है। वह वयोवृद्ध है। अपने से काफ़ी कम उम्र के शावणू से उसकी अभिन्न मित्रता है। दोनों जब-जब भी कहानी में एक साथ नज़र आये हैं कहानी को एक गम्भीर और अर्थमय वातावरण दे जाते हैं। नायक के संकटग्रस्त जीवन में कहीं इन्सानी उच्चता है तो वह यहीं है, शोभा की दोस्ती में। ’जैसे-जैसे उम्र ढलती गई, लुहार का काम पीछे छूटता रहा’। शोभा के बच्चों ने भी पुश्तैनी काम नहीं किया। जिससे इस वयोवृद्ध दस्तकार को अपना ’आरन बन्द करना पड़ा’। जाति-वर्ग के लिहाज़ से यद्यपि शोभा लोहार शावणू से श्रेष्ठ है फिर भी शावणू नड़ को वह पूरा सम्मान देता है। एक भेंट में उसको उसने ’मंजरी पर बैठने के लिए (भी) कहा था’।

उपन्यासकार ने इन पात्रों के मध्यम से जातिवाद पर करारी टिप्पणी की है। साथ यह भी दर्शाया है कि नये सामाजिक बदलाव ने किस प्रकार पारम्परिक दस्तकारी का खात्मा किया है। उसके एवज़ कोई दूसरा सम्मानजनक आर्थिक विकल्प भी नहीं दिया। यह है एक नये और खतरनाक संक्रमण की जीती-जागती तसवीर। पूरा हिडिम्ब मानवीय त्रासद की एक अत्यन्त दर्द भरी कहानी है जिसमें मानव निर्मित अवरोध प्रकृतिस्थ भूखण्ड को एकाएक क्षतिग्रस्त कर देते हैं। बस एक सपना है जो मरीचिका की तरह आगे से आगे सरकता जाता है। प्रलयान्त मोहभंग की स्थिति तक।
आंचलिक होते हुए भी यह उपन्यास क्लासिक आख्यानों की सभी खूबियों से परिपूर्ण है। यही वे प्रसंग हैं जो हमारे समकालीन विघटन को यथार्थ के धरातल पर प्रस्तुत करते हैं। मुसलसल उदासीनता और अंधेरा छाया है इस कहानी पर। घटित से उभरता हुआ उपेक्षित मानव जीव्य। पर्वतीय घाटी का कड़वा सच। प्रकृति का बेहिसाब दोहन, पर्यावरण में आदमी की दखलन्दाजी, नशीले पदार्थों की तस्करी इस उपन्यास के कुछ ऐसे ज्वलंत मुद्दे हैं जो हमारी आज की इन्सानी दुनिया के बदरूप मटियालेपन को उभार कर सामने लाते हैं।

घाटी को नशानोशी और उससे जुड़े काले व्यापार ने बुरी तरह अपनी गिरिफ्त में कस रखा है। स्थानीय दलाल/ठेकेदार इस काम के लिए ग़रीब और दलित परिवार के बच्चों को बूटलैगर बनाकर खुलेआम अपना धन्धा चला रहे हैं। बच्चे, जिनकी उम्र स्कूल जाने की थी, वे माल को एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाने पर विवश किए जाते हैं। ऐसे माहौल में नशे के वे भी शिकार हुए हैं। इसका ज्वलंत उदाहरण हैं खुद शोभा लोहार और शावणू नड़ के बच्चे। इन दर्दनाक स्थितियों की दुश्वारियों में खोए एक दूसरे की पारस्परिकता से बंधे दोनों मित्रों के सरोकार एक साथ अलग-अलग स्तरों पर कहानी को आगे बढ़ाते चलते हैं। जहां मंत्री और ज़मीन का किस्सा खत्म हुआ वहां शोभा की करुण कहानी शुरू हो जाती है। शोभा दुखी है अपने बच्चों के कारण। छोटा विदेशी नशे का शिकार हुआ जबकि बड़ा दारू-भांग पीता है। दुख की विशेष मन:स्थिति में शोभा की भावभंगिमा हृदय को छूने वाली है। जैसे कि–

’कोई देखता तो जानता कि उम्र के इस पड़ाव पर बैठे शोभा के दर्द कितने तीखे और गहरे थे। जिसने अपनी टोपी की ओट में बरसों से इज्ज़त-परतीत छिपा-बचा के रखी, बुढ़ापे में किस तरह जाती रही।’

’शोभा ने गीली आंखों से शावणू की तरफ देखा था। दर्दीली नज़रों का स्पर्श शावणू को भीतर तक बींध गया था। वह जानता था कि यह दर्द अकेले शोभा का नहीं है। इस घाटी के गावों में न जाने कितने बुजुर्ग होंगे जो अपने घर में पराए की तरह दिन काट रहे थे।’

शोभा और शावणू की आपसी हमदर्दी और अपने-अपने दुखों के विनिमय से भरी यह दोस्ताना जुगलबन्दी कथा के अन्त तक उपन्यास को एक ऐसा गाढ़ा रंग देती है जो इन्सानी ज़ात और उसकी नैतिकता के समूल विखण्डन की ओर इशारा करता है। इन दोनों के दुख भरे संवाद हिडिम्ब की कहानी के अभिन्न अंग है। उनके दुख में आदमी नहीं, जानवर भी शिरकत करते दिखाये गये हैं। एक उदाहरण –

’दोनों मेमने जो बड़ी देर से आंगन में उछल-कूद कर रहे थे, शोभा के पास आकर सो गए। कुत्ते की भी जुगाली खत्म हो गई थी। वह दुम हिलाता आया और शोभा से सट कर बैठ गया। आंखें उसकी तरफ थीं। भीगी-भीगी हुई सी।’

सहसा यह वृत्त चेखव के आयोना पोतेपोव और उसके गमज़दा घोड़े की याद ताज़ा कर जाता है। आदमी और जानवर के बीच का अनन्य जुड़ाव दर्शनीय है। लेखक के पास सजाने के लिए कोई अलंकार न सही वह ऐसे ही मार्मिक दृश्यों से सहज अलंकरण का काम अपने गल्प में अन्यत्र भी लेता है।

शावणू के बेटे कांसी की मौत भी ड्रग माफिया की वजह से होती है। एक साजिश के तहत ठेकेदार और प्रधान द्वारा उसे खाने के लिए ज़हर मिला प्रसाद दिया जाता है ताकि वे मंत्री को ज़मीन न देने वाले नड़ परिवार से बदला ले सकें। वे कांसी की हत्या ही नहीं करते, उसकी ’लाश को भांग के नशे में बर्बतापूर्ण लातों-घूसों से’ मार कर अपनी घृणित भावना की पूर्ति भी करते हैं। उनकी इस जाति संहारक साजि़श में कहीं स्कूल का नशेड़ी मास्टर भी शामिल है। मास्टर जो अन्यथा समाज में एक आदर्श रुतबा रखता है। लेखक ने यहां परोक्ष रूप से एक साथ दो सामाजिक संस्थानों और उनके संचालकों पर ज़ोरदार प्रहार किया है। उसने कांसी की दर्दनाक मौत के बाद स्कूल के आसपास के वातावरण को भी उदासीन कर दिया है। मानो प्रकृति भी उस मौत पर शोक मना रही हो––

’स्कूल की छत पर बैठा कौऔं का दल उड़ गया। वे कई पल कर्कश आवाज़ करते रहे। उनकी करकराहट किसी अनहोनी को कह रही थी। कोई उनकी भाखा जानता तो देखता विद्याघर में आज कितना अनर्थ हुआ था ?......’

’.....वहां ऐसा कौन था जो उनकी भाखा सुनता। थोड़ी देर बाद पता नहीं वे कहां चले गये। वहां जो कुछ घटा उसका डर पूरे मैदान में पसर गया। न हवा चल रही थी। न कोई कौआ या चिडि़या ही कहीं चहचहा रही थी।’

ऐसे विवरण एपिक तत्वों से परिपूर्ण हैं। हूबहू प्रेमचन्दीय गल्प जैसी सरल और इन्सान को छू सकने वाली सहज भावना से ओतप्रोत। इस कथा प्रकरण के अन्त में ’घास काटती’ हुई औरत द्वारा ’भियाणी नायिका का’ यह गीत पाठक को और ज्यादा स्पन्दित कर देता है जिसमें यह कहा गया है: ’अरी भियाणी, कानों में क्या कथनी सुन ली, नौजवान की मौत हो गई, चिडि़या शाख पर रो दी।’ इस तरह के गाथाई किस्से कथा को क्या और ज्यादा दारुण नहीं बना देते ? यह दुख का विषय है कि कहानी, उपन्यास आज सामान्य लोक से उठ कर विशेष लोक में चले गये हैं। कथाकार को अब गाथाओं में गुंथी पीड़ाओं की जगह नगर-लोक ज्यादा प्रिय है।

इस कहानी में अप्रत्याशित मोड़ तब आता है जब बेटी सूमा घाटी में आये एक विदिशी युवक एरी से इकरारनामे के आधार पर विवाह कर लेती है। पुराणपंथी समाज अब उन लोगों के लिए पराया है जो जातीय परिधि से बाहर होने के कारण अन्तर्जातीय व्यवहार में लगातार घृणा व उपेक्षा का सामना कर रहे हैं। विदेशी इन रूढि़यों से सर्वथा मुक्त हैं। कॉण्ट्रेक्चुअल शादियां अब उन के लिए टाइमपास का एक सरलतम उपाय है। इसके बरक्स भारतीय समाज के लिए विवाह आज भी एक अहम संस्कार है। यह कोई व्यापारिक विनिमय का विषय नहीं। इकरारनामा जबकि एक गैर ज़िम्मेदाराना व्यवस्था है। इस की अवधि समाप्त होने पर विवाह अमान्य हो जाते हैं। पौर्वात्य भारत इसे कभी नहीं अपना सकता। यदि ऐसा हुआ तो इसके लिये जिम्मेदार है जातीय वर्गवाद। उपन्यासकार ने इस नयी विवाहपद्धति के परिणामस्वरूप आने वाले खतरों से भी सावधान किया है। यह उन कुलीन वर्गों पर एक गहरा कटाक्ष है। विशेषकर, आसपास निवास कर रहे उन ग़रीब तथा अकुलीन वर्ग के लोगों की ओर से जो अपनी जवान होती बेटियों के विवाह के लिए रिश्ते व साधन नहीं जुटा पाते। शावणू नड़ काण्ट्रेक्चुअल विवाह होने के बावजूद अपनी परम्परा और संस्कृति से विमुख नहीं हुआ है। कन्या की विदाई के समय उसके अन्दर वही भाव हैं जो एक भारतीय पिता के अन्दर ऐसे अवसरों पर स्पष्ट चीन्हे जा सकते हैं। ’दुल्हन मुन्नी उर्फ़ सूमा चली गई। सब कुछ पीछे छूटता रहा....पिता। घर। आंगन। गोशाला। पशु। खेत। क्यार। खलिहान....और पता नहीं क्या क्या ?’ शावणू के अन्दर का पिता, वियोग में पूरी तरह डूबा है जिसे लेखक ने लोकगीत की इन पंक्तियों से भावमय बना दिया है–

’इमली रा बूटा नीवां नीवां डालू
तिस्स पर बैठिया पंछी रूदन करे।
मां बोले बेटी बड़े घरे ब्याहणी
पलंगा पर बैठी बैठी राज करे।
हिडिम्ब महाभारत का एक मिथक पात्र है जिसे कथाकार ने एक बहुआयामी रूपक में बांधा है। हिडिम्ब और उसकी बहन हिडिम्बा के प्रक्षेपक, उपन्यास की कथा को एक ऐसी गाथा का रूप देते हैं जो पौराणिक होते हुए भी न सिर्फ़ लोक आस्था को व्यंजित करती है बल्कि एक ऊर्जा के रूप में निरात्म और आत्मिक दोनों स्तरों पर आज के मानवीय द्वन्द्व को भी प्रकाशित करती है। कहानी के अन्त में ये असुर आत्माएं अपने प्रकोप से चौफेर ताण्डव रचाती हैं जिसे हम एक छोटी सी किन्तु एक अर्थमय मैटाफोरिक प्रलय भी कह सकते हैं। कथा के अन्त का प्राकृति जनिक विध्वंस खुद मनुष्य के पापों और अतिवादिता का परिणाम है जिसके समाप्त होने पर ही नयी सुबह की उम्मीद की जा सकती है।

संपर्क


श्री देश र्नि‍मोही , संचालक,
आधार प्रकाशन प्रा0 लि

0172 2566952, मो0-09417267004
फ़ेसबुक पाठकों के लिये 
30% की छूट  
समीक्षक : 9/, पूजा हाउसिंग सोसाइटी,
सन्दल हिल, कामना नगरचक्कर,
शिमला–171005, हि0प्र0
फोन–0177–2633272

रविवार, अप्रैल 24, 2011

डा० उमाशंकर नगायच कृत ग्रंथ : महर्षि दयानंद का समाज दर्शन



कृति समीक्षा - महर्षि दयानंद का समाज दर्शन
 प्रस्तुति :-गिरीश बिल्लोरे मुकुल 
1. आज बाजारीकरण के प्रभावों से आक्रान्त जनमानस भौतिक विज्ञानों की दिशा में ही चिन्तन के लिए समय दे पा रहा है। सृष्टि के मूल सिद्धान्तों और युगों के अन्तराल के बाद स्थापित मानव संस्कृति, सभ्यता एवं समाज व्यवस्था के सम्बन्ध में चिन्तन घटता दृष्टि गोचर हो रहा है। समाज में संतुलित विकास के लिए दोनो ही दिशाओ में समान रूप से बढ़ना आवश्यक है। एक को छोडकर किसी दूसरे की ओर बढने से जीवन में पूर्णत्व की प्राप्ति नहीं होगी। आदरणीय डॉ. उमाशंकर नगायच द्वारा आई.टी. की चकाचौंध के इस युग में समाज में मूल्यों के घटते महत्व के कारण पनप रही अप्रतिमानता की समाप्ति के लिए भारतीय सभ्यता के मूलाधार ‘वेदों’ को जनसामान्य तक पहुँचाने वाले मनीषी महर्षि दयानन्द के समाज दर्शन की विवेचना अपने शोध ग्रन्थ में की है। उनका यह कार्य अनूठा, अद्भुत और अतुलनीय है।
2. शोधग्रंथ में वैदिक संस्कृति व धर्म के उद्धारक महर्षि दयानंद सरस्वती के बहुआयामी व्यक्तित्व, उदार कृतित्व, जीवन के प्रति उनके व्यापक और सर्वग्राही दृष्टिकोण का रोचक ढंग से वर्णन किया गया है। विद्वान् लेखक ने अपनी शोध-प्रवण दृष्टि से वर्णव्यवस्था, आश्रमव्यवस्था, पुरुषार्थचतुष्टय, शिक्षा व्यवस्था, विवाह-सिद्धान्त, अर्थव्यवस्था एवं राजव्यवस्था इत्यादि महत्वपूर्ण विषयों पर महर्षि दयानन्द की मूलगामी वैदिक दृष्टि और उसके दार्शनिक आधार का सांगोपांग विवेचन किया है। जो प्रत्येक व्यक्ति को सुख-सुविधा सम्पन्न बनाने, सुव्यवस्थित सामाजिक संरचना और संास्कृतिक मूल्यों की रक्षा के लिये उपयोगी और व्यवहारिक है।
3. ‘महर्षि दयानंद का समाज दर्शन डा. उमाशंकर नगायच की शोधदृष्टि का वैचारिक फल है। इस फल का भोक्ता समाज होता है और समाज की सेहत के लिये ऐसे फल सेवनीय होने से पथ्य हैं। वस्तुतः साहित्य लेखन की सार्थकता इसी में है कि वह व्यवहारिक जीवन में उपयोगी हो। इस दृष्टि से लेखक का प्रयास सफल व सराहनीय है। समाज में व्याप्त अनेक कुरीतियों और समस्याओं, यथा- बाल विवाह, दहेजप्रथा, गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा, जनसंख्या वृद्धि आदि के समाधानकारी सिद्धान्तों का ग्रंथ में किया गया विस्तृत विवेचन वर्तमान समय में भी प्रासंगिक है। पुस्तक की भूमिका में डा.सोमपाल शास्त्री ने इसीलिये इस कृति को ‘जीवन-जगत के लिये अधिकतम व्यावहारिक, प्रासंगिक और उपयोगी’ कहा है। प्रस्तुत कृति महर्षि दयानंद के
आर्ष चिन्तन को लोकोपयोगी भाषा शैली में लोक के समक्ष लाने का प्रषंसनीय प्रयास है। महर्षि दयानन्द का तपःपूत चिन्तन किसी कालखण्ड या भूखण्ड विषेष की सीमाओं में आबद्ध नहीं है। उसकी परिधि मानवता के हर छोर को छूती है और समूची मानव जाति को ‘सर्वे वै सुखिनः सन्तु’ का शाष्वत संदेष पहुंचाती हुई परिलक्षित होती है। पुस्तक की विषयवस्तु के विवेचन में यह तथ्य सर्वत्र झलकता और छलकता हुआ दिखाई देता है।
4. संन्यासियों के बारे में जन सामान्य की धारणा है कि वे दीन-दुनिया से कोई नाता-रिश्ता नहीं रखते। जिसने संन्यास लेते समय पुत्र, वित्त और लोक (संसार) से नाता तोड लिया, उससे हम यह अपेक्षा कैसे करें कि वह लोकहित तथा समाज की व्यापक भलाई के लिये कुछ सोचेगा या करेगा। उन्होने तो स्वेच्छा से प्रवृत्ति मार्ग को त्यागकर निवृत्ति मार्ग को अपनाया है, प्रेय को छोड श्रेय पथ पर चलने का निश्चय किया है। अतः वे समाज के समक्ष खडी समस्याओं का निदान करने में रुचि क्यों लेंगे? मध्यकाल के सभी साधु-संन्यासी, सन्त-महन्त, पंडे, पुजारी मात्र परलोक चिन्ता मे लगे रहे और सांसारिक दायित्वों से पूर्णतया विमुख रहे। किसी ने संसार के प्रति अपना कोई दायित्व नहीं समझा और लोगों को दीन-दुनिया से नाता तोडकर परमात्मा से लगन लगाने की बात करते रहे। इस परम्परा के विपरीत नवजागरण काल में दयानन्द तथा विवेकानंद सदृश संन्यासियों ने भी जनमानस में चेतना जगाई। संन्यासियों में दयानंद ही थे, जिन्होने अध्यात्म, दर्शन और धर्म चिन्तन के साथ-साथ इहलोक (संसार व समाज) की समस्याओं के निदान की चिन्ता की तथा भारतवासियों को आर्थिक,सामाजिक तथा राजनैतिक शक्ति उपार्जित करने का संदेश दिया।
5. सामाजिक सरोकारों की चर्चा करें, तो उन्नीसवीं शताब्दी के समाज सुधारकों में
दयानंद सरस्वती का नाम अग्रणी है। सामाजिक परिवर्तन और क्रान्ति के अग्रदूत थे,महर्षि दयानंद सरस्वती। विभिन्न शोध विद्वानों ने स्वामी दयानंद के समाजोन्मुखीव्यक्तित्व तथा कृतित्व की अल्प ही चर्चा की है। इस विस्तृत तथा गंभीर विषय के सभी कोणों को  स्पर्श करने  वाले हाल ही में प्रकाशित  डा. उमाशंकर नगायच (ई-117/6 शिवाजी नगर, भोपाल) के विद्वतापूर्ण शोध प्रबंध (महर्षि दयानंद का समाज दर्शन) में स्वामी दयानंद के चिन्तन और कृतित्व का विस्तृत, प्रमाण पुरस्सर विवेचन किया गया है। इस ग्रंथ में स्वामी दयानंद के आविर्भाव की पृष्ठभूमि तथा तात्कालिक परिस्थितियों की सटीक समीक्षा की गई है। महर्षि के जीवन में आये विभिन्न पड़ावों का विवरण देने के साथ उनके विचार और कर्म क्षेत्र की तात्विक पड़ताल इस ग्रंथ की प्रमुख विषेषता है। ध्यान रहे कि सामाजिक विचारों का क्षेत्र गृह, परिवार, समाज तक ही सीमित नहीं है। लेखक की जागरूकता के कारण इसमें स्वामी दयानंद के आर्थिक तथा राष्ट्रीय (राजनैतिक तथा प्रशासन विषयक) विचारों की समुचित विवेचना हुई है। षिक्षा और सामाजिक उत्थान अन्योन्याश्रित हैं। समाज की चतुर्मुखी उन्नति में षिक्षा की भूमिका
को स्वामी दयानंद ने सम्यकतया समझा था, इसी कारण ऋषि दयानंद के शिक्षा विषयक विचारों का विस्तारपूर्वक विवेचन इस पुस्तक में किया गया है। निश्चय  ही दयानंद के बहुकोणीय व्यक्तित्व की विवेचना करने में लेखक को असाधारण सफलता मिली है। दयानंद के धार्मिक एवं दार्षनिक विचारों की पर्याप्त चर्चा अनुसंधाता विद्वानों द्वारा हुई है, किन्तु उनके समाज-दार्षनिक विचारों, समाज दृष्टा तथा समाज संशोधक व्यक्तित्व को जानने के लिये यह ग्रंथ पाठकों के अध्ययन क्रम में अनिवार्यतः आना चाहिये।
6. पुस्तक की विषय वस्तु पुरःस्थापना से उपसंहार तक ग्यारह अध्यायों में विभक्त है। प्रथम अध्याय में ग्रंथ के उद्देष्य और प्रतिपाद्य का औपचारिक निदर्शन है। ग्रंथ का द्वितीय अध्याय महर्षि दयानन्द के व्यक्तित्व एवं कृतित्व को समर्पित है। इसमें महर्षि की लोक से परलोक तक की यात्रा का सजीव वर्णन विद्धान् लेखक ने कुछ इस तरह किया है, जैसे कि वह महर्षि के सहयात्री रहें हो। शेष अध्यायों में समाज व्यवस्था, अर्थ व्यवस्था और राज्य व्यवस्था के संबंध में उनके दार्षनिक विचारों को व्याख्यायित किया गया है।
7. वैदिक दर्शन में कालान्तर में आये विक्षेपण को दूर करते हुये लेखक ने वैज्ञानिक दृष्टि से वैदिक समाज व्यवस्था के आधारभूत सिद्धान्तों का सूक्ष्म विवेचन कर महर्षि के ‘वेदों की ओर लौटो‘ के संदे्श को औचित्यपूर्ण सिद्ध किया है। वेदों में समाहित समाज वैज्ञानिक सिद्धान्तों का महर्षि दयानंद ने जो अन्वेषण किया, उस अन्वेषण को क्रमबद्धता  की लय में पिरोने का दुष्कर कार्य लेखक ने बडी सहजता से किया है। तदनुसार ग्रंथ जीवन उपयोगी एवं मानव के सर्वांगीण विकास के लिये आवश्यक जीवन दर्शन को प्रस्तुत करता है। समग्र समाज को पोषित, संबर्द्धित करने के लिये ऋषियों ने अपनी दिव्य दृष्टि से सामाजिक संरचना वर्णव्यवस्था का जो तानाबाना बुना, उसको इस ग्रंथ ने औचित्यपूर्ण एवं नवीन विश्व सामज व्यवस्था के संदर्भ में वर्णव्यवस्था की प्रासंगिकता, आवश्यकता एवं महत्व को प्रतिपादित किया है। पुस्तक के चार सौ चौदह पृष्ठीय कलेवर में लगभग नब्बे प्रतिषत अंष महर्षि दयानन्द के दर्षन को समर्पित है। इससे स्पष्ट है कि लेखक की मंषा महर्षि के कृतित्व के दार्षनिक पक्ष को उजागर कर उसे सुबोध शैली में समाज तक पहुंचाने की है। यह उपक्रम पुस्तक के शीर्षक में समाविष्ट बोध को भी सार्थक करता है।
8. ‘महर्षि दयानन्द का समाज दर्शन’ पुस्तक सामाजिक सरोकारों का दुरुस्त दस्तावेज है। समाज की प्रगति पर मानव जीवन की समृद्धि निर्भर है, इस तथ्य की पुष्टि ‘‘महर्षि दयानंद के समाज दर्शन’’ में है। इसकी विषय वस्तु में महर्षि दयानन्द की दार्शनिक विचारधारा के सामाजिक पक्ष की प्रस्तुति के लिये वैदिक समाज व्यवस्था, अर्थ व्यवस्था और राज्य व्यवस्था की सैद्धान्तिक और व्यावहारिक दृष्टि से विवेचना की गई है। समाज व्यवस्था के अंतर्गत वर्ण विभाजन के औचित्य और वर्णव्यवस्था की वर्तमान में उपादेयता और प्रासंगिकता पर बेबाकी से विचार व्यक्त किये गये हैं। इसके अतिरिक्त जीवन के संतुलित विकास के लिये अत्यावश्यक वैदिक आश्रम व्यवस्था एवं पुरुषार्थचतुष्टय- धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की बहुत सटीक व्याख्या की गई है। वैदिक संस्कृति की पुरुषार्थ चतुष्टय की अवधारणा को लेखक ने अपने वैशिष्ट्य में रेखांकित किया है, जिसमें अलौकिक जीवन के लिये लौकिक जीवन की उपेक्षा नहीं की गई है। मनुष्य के व्यक्तित्व में आत्मा के साथ शरीर को समान रुप से महत्तवपूर्ण माना है।
9. पुस्तक में वैदिक षिक्षा व्यवस्था का विस्तार से प्रतिपादन है। महर्षि दयानंद के विचार अनुसार मानव जीवन के सम्यक् विकास के लिये एवं जीवन साध्यों - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि के लिये उत्तम शिक्षा सर्वोपरि साधन है। सबको शिक्षा के समान अधिकार एवं अनिवार्य शिक्षा की अवधारणा महर्षि के विचारों का वेैशिष्ट्य है। महर्षि दयानन्द ने संपन्न तथा विपन्न सभी की संतानों को शिक्षा पाने हेतु समान सुविधाएं राज्य व समाज द्वारा उपलब्ध कराने का सिद्धांत प्रस्तुत कर दीन.हीन, वंचित, शोषित और पीड़ित मनुष्यों के उत्थान के लिये स्तुत्य प्रयत्न किया है, जो विश्व मानवता को उनकी अविस्मरणीय देन है।
10. पुस्तक में विवाह सिद्धान्त की लोकोपयोगिता को वैज्ञानिक दृष्टिकोंण के साथ व्याख्यायित किया गया है। सफल वैवाहिक जीवन के आधारसूत्र के रूप में स्वयंवर विवाह विषयक महर्षि के दृष्टिकोण का वृहद् विश्लेषण कृ्रति में किया गया है। दाम्पत्य प्रीति को गृहस्थ आश्रम की सफलता तथा समग्र परिवार के सुनिश्चित कल्याण का साधन माना है। महर्षि के अनुसार संसार का उपकार करना समाज का मुख्य उद्देश्य है, अर्थात शारीरिक, आर्थिक और सामाजिक,उन्नति करना। आर्यसमाज के इस छठवे नियम में समाहित अपेक्षाओं का पल्लवन लेखक ने पुस्तक में आद्यन्त किया है।
11. अर्थ समाज के शरीर का रक्त है। जिस प्रकार से मानव शरीर के स्वास्थ्य के लिये रक्त शुद्धि आवश्यक है। उसी प्रकार समाज के स्वास्थ्य के लिये अर्थ सिद्धि की आवश्यकता है। कृति में धर्मानुगामी अर्थोपार्जन की प्रवृति को समाज के लिये हितकर निरूपित किया गया है। अर्थव्यवस्था में धर्म और अर्थ के अन्तःसम्बन्ध संबंधी महर्षि के विचारों की बहुत सटीक व्याख्या की गई है। महर्षि की मान्यता है कि ‘अर्थ वह है जो धर्म ही से प्राप्त किया जाये और जो अधर्म से सिद्ध होता है वह अनर्थ है।’ इस संदेश में वर्तमान भ्रष्टाचार पीडित समाज के साध्यपरक अर्थोन्मुखीकरण के फलस्वरूप उपजे अपघाती परिणामों से उबरने के लिये कारगर उपचार का संकेत है।
12. पुस्तक के दसम् अध्याय में महर्षि दयानन्द के राजनैतिक दर्शन की विवेचना की गई है। इसमें राजधर्म, राज्य की प्रकृति, राज्य के मूल अंगों और कार्यों का उल्लेख तथा न्याय एवं प्रशासन व्यवस्था का निदर्शन, अथर्ववेद और मनुस्मृति के उद्धरणों से समर्थित है। महर्षि ने राज्य में सम्यक् दण्ड की व्यवस्था को आवश्यक निरूपित किया है। वस्तुतः यह विवेचन वर्तमान राजनैतिक तंत्र की कमियों को सुधार कर तंत्र को नियंत्रित करने के लिये मार्गदर्षक की भूमिका का निर्वाह कर सकता है। इस अध्याय का उल्लेखनीय वैषिष्ट्य महर्षि के राष्ट्रवाद संबंधी विचारों की उपयुक्त प्रस्तुति है। लेखक के विचार से अंग्रेजों की दासता से जकड़े हुये देष में राष्ट्रीय स्वाभिमान तथा स्वराज की भावनाओं से युक्त राष्ट्रवादी विचारों की शुरूआत करने तथा अपने कृत्यों एवं उपदेषों से निरन्तर राष्ट्रवाद को पोषित करने वाले महर्षि दयानन्द को ही आधुनिक युग में भारतीय राष्ट्रवाद का जनक कहना उपयुक्त होगा।
13. अंतिम अध्याय उपसंहार के रूप में अपने अग्रज अध्यायों का सारतत्व समेटे हुये है। इस अध्याय के अंतिम वाक्य-’महर्षि दयानन्द एक जीवनदृष्टा थे और उनके विचारों में सर्वांग जीवन ब दर्शन विद्यमान है’, में यह स्पष्ट रूप से व्यक्त है। महर्षि का व्यक्तित्व और कृतित्व आदर्श भारतीय समाज सुधारक का समाजोपयोगी संस्करण है।
14. ग्रंथ की शैली उत्कृष्ट, विवेचनापरक एवं भाषा सरस, सरल, बोधगम्य, सप्राण, सारगर्भित और धाराप्रवाह है। लेखक ने ग्राहय शैली के साथ जिज्ञासु पाठकों के लिये एक अद्भुत ग्रन्थ रचा है। महर्षि के विचारों को माध्यम बनाकर लेखक ने विहंगम दृष्टि से ग्रन्थ लिखा है, पुस्तक में लेखक ने सरल-सरस और सुस्पष्ट रीति से वैदिक संस्कृति, दर्शन और धर्म की गहन गंभीर अवधारणाओं को बोधगम्य बनाया है। जिससे पाठक की समस्त शंकायें एवं जिज्ञासायें ग्रन्थ पढते-पढते स्वतः समाधान को प्राप्त हो जाती हैं। ग्रन्थ के अध्ययन उपरांत भारतीय संस्कृति में स्वतः आये अथवा सप्रयास लाये गये विक्षेपण स्वतः तिरोहित हो जाते हैं और ग्रन्थ की सार्थकता स्वतः सिद्ध हो जाती हैं। महर्षि के विचार, दृष्टिकोण, कृतित्व के अन्वेषण का गुरुतर कार्य विद्वान लेखक द्वारा किया जाकर ग्रंथ में वेदों के ज्ञान को गागर में सागर जैसा भरा है। हर दृष्टि से ‘महर्षि दयानन्द का समाज दर्शन’ कृति पठनीय और संग्रहणीय है।  डा नगायच की वर्षों से  की साधना से किये गए सृजन हेतु डॉ. उमाशंकर नगायच बधाई के पात्र हैं। ईश्वर से प्रार्थना है कि भविष्य में भी वे समाज कल्याण की दिशा/क्षेत्र में लेखन कार्य हेतु ऊर्जावान रहें।
कृति: ‘महर्षि दयानन्द का समाज दर्शन’
कृतिकार: डा. उमाशकर नगायच
117/6, शिवाजी नगर, भोपाल
मोबा. 09407518452
पृष्ठ संख्या: 414, मूल्य - 300 रु.
प्रकाषक:
आर्श गुरुकुल महाविद्यालय,नर्मदापुरम्,होशगाबाद म.प्र

Ad

यह ब्लॉग खोजें

मिसफिट : हिंदी के श्रेष्ठ ब्लॉगस में